आप जब बिहार के पूर्णिया जिला की तरफ आएंगे तो आपको हर जगह हरियाली दिखेगी। पूर्णिया को बिहार का दार्जिलिंग भी कहा जाता है। खुशनुमा मौसम और हरियाली के बीच यहाँ हैदराबाद का एक परिवार बसा हुआ है, जो पिछले चार दशक से इस इलाके में हरियाली को बढ़ावा देने के लिए काम कर रहा है।
बात 1960 की है। अनंत सत्यार्थी नाम का एक शख्स काम के सिलसिले में पूर्णिया आता है। उस वक्त भारत-चीन सीमा पर तनाव चल रहा था। सुरक्षा के दृष्टिकोण से पूर्णिया में चूनापुर सैन्य हवाई अड्डे का निर्माण कार्य चल रहा था। उस वक्त अनंत सत्यार्थी को हवाई अड्डे के निर्माण कार्य में वुड वर्क का काम मिला था। वे इसी काम के लिए अपने परिजनों से हजारों किलोमीटर दूर पूर्णिया आए थे।
अनंत सत्यार्थी जब पूर्णिया आए, तो अलग-अलग मोर्चे पर चुनौतियाँ उनका इंतजार कर रही थीं। यहाँ आने के बाद उन्हें सैन्य हवाई अड्डे के निर्माण कार्य से जुड़े लोगों के भोजन आदि की व्यवस्था के काम से भी जुड़ना पड़ा। देश के अलग-अलग प्रांतों से आए लोगों का खान-पान अलग था। ऐसे में फल ही ऐसी चीज थी, जो सभी पसंद कर सकते थे। तभी उन्हें ख्याल आया कि आखिर फल की खेती इस इलाके में क्यों नहीं हो रही है।
इसके बाद वे स्थानीय किसानों के संपर्क में आए, जो आगे चलकर पूर्णिया के किसानों के लिए वरदान साबित हुआ।
केले की खेती से की शुरुआत
जब हम अनंत सत्यार्थी के पूर्णिया स्थित घर पर पहुँचे तो वहाँ के माहौल ने हमारा मन मोह लिया। अनंत सत्यार्थी की नर्सरी में पेड़-पौधे बहुत ही करीने से लगे हुए हैं। यहाँ हमारी मुलाकात अनंत सत्यार्थी के बड़े बेटे अरविंद सत्यार्थी से हुई। अरविंद अपने पिता के बारे में बात करते हुए भावुक हो जाते हैं।
अरविंद कहते हैं, “मेरे पिताजी हैदराबाद के चिकरपल्ली इलाके से पूर्णिया आए थे। आज जब पिताजी इस दुनिया में नहीं हैं तो मुझे महसूस हो रहा है कि उन्होंने खेती और किसानी के लिए कितना कुछ किया। वे खेती कर रहे लोगों को हर मोर्चे पर सफल और समृद्ध देखना चाहते थे। वे जब पूर्णिया में वुड वर्क का काम करते हुए अलग-अलग राज्यों से आए लोगों के लिए भोजन आदि की व्यवस्था का काम भी देखने लगे तो उन्हें महसूस हुआ कि पूर्णिया के किसानों को फल की खेती करनी चाहिए। उस वक्त बिहार में सिर्फ़ हाजीपुर इलाके में ही केले की खेती होती थी।”

अनंत सत्यार्थी की नर्सरी में उनके बेटे से बातचीत करते हुए लगा मानो हम बिहार से आंध प्रदेश की यात्रा कर रहे हैं। केले और नारियल के छोटे-छोटे पौधों को दिखाते हुए अरविंद ने कहा, “1964 में पिताजी मुंबई गए और वहाँ से केले के पौधे लेकर आए। उन्होंने पूर्णिया के किसानों को केले की खेती के लिए प्रोत्साहित किया। अपने साथ वे मुंबई से एक प्रशिक्षक को भी पूर्णिया लेकर आए। फिर वे गाँव-गाँव में घूमकर किसानों को फल की खेती के लिए जागरूक करने लगे और फिर 1967 में पूर्णिया में एक नर्सरी की स्थापना की। हम सभी को पिताजी अक्सर कहते थे कि आंध्र प्रदेश का बिहार से एक स्थाई नाता बने, इसके लिए परिवार को काफी मेहनत करनी होगी।”
बिहार के लिए कुछ करने की जिद
अरविंद पुराने दिनों की यादों में खो जाते हैं। उनसे बातचीत करते हुए लगा कि वे अपने काम से उसी तरह प्रेम करते हैं, जैसे कोई अपनी संतान से करता है। पिता के निधन के बाद अरविंद ने नर्सरी की कमान संभाल ली। वे जीव विज्ञान में स्नातक हैं। उनकी पत्नी सुनीता सत्यार्थी भी नर्सरी के काम में हाथ बंटाती हैं। सुनीता नर्सरी को पूरा समय देती हैं। उन्हें कैक्टस प्रजाति के पौधों से खूब लगाव है।
उन्होंने कहा, “बिहार के पूर्णिया इलाके में पानी का संकट नहीं है और यहां की मिट्टी भी खेती के लिए अनुकूल है। हम बिहार को खेती के क्षेत्र में बहुत कुछ नया देना चाहते हैं। हॉर्टिकल्चर के क्षेत्र में कुछ नया करने की जरूरत है। मैं खुद फल और कैक्टस प्रजाति के पौधों को लेकर काम कर रही हूँ। साथ ही, हम सब इन दिनों नारियल की खेती के लिए भी लोगों को प्रशिक्षित कर रहे हैं।”
नेशनल हॉर्टिकल्चर बोर्ड (NHB) से मान्यता प्राप्त
अरविंद सत्यार्थी बताते हैं कि उनकी नर्सरी का नाम ‘ग्रोमोर फूड नसर्री’ है और इसी नाम से हैदराबाद में भी नर्सरी है।पूर्णिया स्थित उनकी नर्सरी को नेशनल हॉर्टिकल्चर बोर्ड से गुणवत्ता के मामले में थ्री स्टार मिला हुआ है। यह बिहार की इकलौती नर्सरी है, जिसे नेशनल हॉर्टिकल्चर बोर्ड से गुणवत्ता के मामले में थ्री स्टार मिला है। इस नर्सरी से वे बिहार के किसानों को हर तरह का पौधा मुहैया कराते हैं। यहाँ अलग-अलग जलवायु में पैदा होने वाले फल-फूल मसलन इलायची, नाशपाती, अंगूर, काजू और रुद्राक्ष के पौधे आपको मिल जाएंगे।
आम-लीची की दुनिया
पिता की तरह अरविंद भी खेती कर रहे लोगों के चेहरे पर मुस्कान देखना चाहते हैं। उनका मानना है कि किसानों का जीवन समृद्ध तब होगा, जब वे फलदार खेती की तरफ मुड़ेंगे। उनका कहना है कि आम, लीची और अमरूद उनके लिए वरदान साबित हो सकते हैं।
उन्होंने कहा, “आम की 60 और लीची की 10 नस्ल हमारे पास है। देश भर से हम पौधों को लाते हैं और फिर यहाँ उन्हें तैयार करते हैं।”
किसानों का फीडबैक
थाईलैंड के अमरूद और बेर पर उनका विशेष जोर है। उन्होंने बताया कि उनके लिए किसानों का फीडबैक सबसे महत्वपूर्ण है और इसके लिए वे लगातार किसानों से संवाद करते हैं। वे किसानों की एक डायरेक्टरी बनाना चाहते हैं, ताकि हर किसान से जुड़ा जा सके। वे पॉली हाउस में भी पौधों को रखने का काम कर रहे हैं। उन्होंने सरकार के सहयोग से दो हजार स्क्वायर फ़ीट में पॉली हाउस का निर्माण किया है। अरविंद ने बताया कि खेती-किसानी के ज़रिए स्थानीय लोगों को रोजगार मिले, इसके लिए वे लगातार प्रयास कर रहे हैं।
देश में जैविक जिला की अवधारणा
अरविंद सत्यार्थी ऑर्गेनिक खेती को बढ़ावा देने के लिए भी योजना बना रहे हैं। उनका कहना है कि एक झटके में आप ऑर्गेनिक स्टेट नहीं बना सकते। उन्होंने बताया, “सरकार को चाहिए कि इसके लिए पहले जिला का चयन करे और फिर उस जिले के पांच गाँवों को चुना जाए। फिर उन पांच गाँवों के 10 किसानों को जौविक खेती के लिए तैयार किया जाए। उन किसानों को बताया जाए कि वे केवल अपनी जमीन के 10वें हिस्से में ही जैविक खेती करें। सरकार जौविक खेती के लिए उन किसानों को 75 फीसदी अनुदान दे। इस तरह धीरे-धीरे जमीन रासायनिक प्रभाव से मुक्त हो जाएगी। “
पूर्णिया में रच-बस गए सत्यार्थी परिवार का हैदराबाद से भी रिश्ता बना हुआ है। हैदराबाद में भी नर्सरी का काम जारी है। अरविंद कहते हैं कि भविष्य में हैदराबाद और पूर्णिया की मिट्टी का रिश्ता और मजबूत होगा। उन्होंने कहा कि आने वाली पीढ़ी किसानी से समृद्ध बने, इसके लिए हमें और मेहनत करने की जरूरत है।
संपादन – मनोज झा
यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ बांटना चाहते हो तो हमें hindi@thebetterindia.com पर लिखे, या Facebook और Twitter पर संपर्क करे। आप हमें किसी भी प्रेरणात्मक ख़बर का वीडियो 7337854222 पर भेज सकते हैं।
We at The Better India want to showcase everything that is working in this country. By using the power of constructive journalism, we want to change India – one story at a time. If you read us, like us and want this positive movement to grow, then do consider supporting us via the following buttons: