Placeholder canvas

नूर इनायत ख़ान : एक भारतीय शहज़ादी, जो बनी पहली महिला ‘वायरलेस ऑपरेटर’ जासूस!

1 जनवरी 1914 को मोस्को में जन्मीं नूर का पूरा नाम नूर-उन-निसा इनायत ख़ान था। नूर इनायत ख़ान, मैसूर के महाराजा टीपू सुल्तान की वंशज, एक भारतीय शहज़ादी, और दुसरे विश्व-युद्ध के दौरान हिटलर के नाज़ी साम्राज्य के खिलाफ़ ब्रिटिश सेना की जासूस!

साल 2012 में महारानी एलिज़बेथ द्वितीय की बेटी राजकुमारी एनी ने इंग्लैंड के गार्डन स्क्वायर में एक लड़की की प्रतिमा का अनावरण किया। इस प्रतिमा के बारे में कहा जाता है, कि ब्रिटेन में लगी यह मूर्ति किसी एशियाई महिला की पहली मूर्ति है।

यह मूर्ति है नूर इनायत ख़ान की। नूर इनायत ख़ान, मैसूर के महाराजा टीपू सुल्तान की वंशज, एक भारतीय शहज़ादी, और दुसरे विश्व-युद्ध के दौरान हिटलर के नाज़ी साम्राज्य के खिलाफ़ ब्रिटिश सेना की जासूस!

वह सीक्रेट एजेंट, जो दुश्मनों की ख़ुफ़िया जानकारी इकट्ठा कर उसे कोड कर, वायरलेस ऑपरेटर के जरिये ब्रिटिश अधिकारियों तक पहुँचाती थीं। सोचने वाली बात यह थी कि नूर भारत के उस घराने से संबंध रखती थीं जिन्होंने कभी अंग्रेजों के आगे घुटने नहीं टेके बल्कि उनके पूर्वजों ने ब्रिटिश सेना के खिलाफ़ लड़ते हुए अपनी जान दी। तो इस घराने की शहज़ादी आख़िर क्यों इंग्लैंड के लिए उनकी जासूस बन गयी?

नूर इनायत ख़ान (बाएं) और ब्रिटेन में लगी उनकी प्रतिमा (दाएं)

1 जनवरी 1914 को मोस्को में जन्मीं नूर का पूरा नाम नूर-उन-निसा इनायत ख़ान था। उनके पिता, हज़रत इनायत ख़ान एक सूफ़ी संगीतकार थे और टीपू सुल्तान के पड़पोते थे। जबकि नूर की माँ, ओरा रे एक ब्रिटिश महिला थीं जिनकी परवरिश अमेरिका में हुई। सूफ़ीवाद को पश्चिमी देशों तक पहुँचाने के श्रेय नूर के पिता को ही जाता है।

प्रथम विश्व-युद्ध के चलते नूर के परिवार को रूस छोड़कर फ्रांस जाना पड़ा। यहाँ वे पेरिस में बस गये। यहाँ उनके घर का नाम ‘फ़ज़ल मंज़िल’ था। बचपन से ही नूर और उनके भाई-बहनों को सूफ़ीवाद की शिक्षा मिली थी। उन्हें हमेशा ही उनके अब्बू ने अहिंसा, मानवता, सच बोलना, और शांति का पाठ पढ़ाया था।

1. नूर अपने पूरे परिवार के साथ, 2. हज़रत इनायत खान, 3. नूर अपनी माँ के साथ

नूर की ज़िंदगी पर ‘द स्पाई प्रिसेंज: द लाइफ़ ऑफ़ नूर इनायत ख़ान’ नाम से किताब लिखने वाली श्राबणी बसु के मुताबिक, नूर बहुत शांत स्वभाव की थीं। उन्हें पढ़ने और लिखने के साथ-साथ संगीत में काफ़ी दिलचस्पी थी। वे वीणा-वादन करती थीं। 25 साल की उम्र में उनकी पहली किताब छपी। उन्होंने बुद्ध जातक कथाओं से प्रेरित होकर बच्चों के लिए यह कहानियों की किताब लिखी थी।

वीणा बजाते हुए नूर

साल 1940 में जब फ्रांस पर जर्मनी ने कब्ज़ा कर लिया और धीरे-धीरे हिटलर की दहशत पेरिस तक पहुँचने लगी। मासूम लोगों पर अत्याचार होते देख सूफ़ीवाद में पली-बढ़ी नूर को जैसे सदमा लगा। वे उन लोगों के लिए कुछ करना चाहती थीं जहाँ उनकी ज़िंदगी का सबसे खुबसूरत वक़्त बीता था। नूर और उनके भाई विलायत ने लंदन जाने का निर्णय किया।

यहाँ आकर नूर ने महिलाओं की सहायक वायु सेना में भर्ती होने के लिए आवेदन किया। पर उनके आवेदन को ब्रिटिश सेना ने ठुकरा दिया क्योंकि उनके अनुसार एक भारतीय नाम की लड़की जो कि फ्रांस की निवासी रह चुकी है उसे वे ब्रिटिश सेना में कैसे जगह दे सकते थे।

पर नूर हार मानने वालों में से कहाँ थीं। उन्होंने तुरंत ब्रिटिश सेना को पत्र लिखा और उनसे सवाल किया कि वो एक ब्रिटिश माँ की बेटी हैं और उस देश की मदद करना चाहती हैं जिसने उन्हें अपनाया है। वे फ़ासीवाद के खिलाफ़ लड़ना चाहती हैं तो वे ब्रिटिश सेना में काम क्यों नहीं कर सकती हैं।

उनकी इस हिमाकत के जबाव में ब्रिटिश शासन ने उन्हें इंटरव्यू के लिए बुलाया। श्रावणी बसु बताती हैं कि साक्षात्कार के दौरान नूर से पूछा गया कि क्या वे भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ़ बग़ावत करने वाले नेताओं का समर्थन करती हैं? नूर ने बिना झिझके कहा कि आज जब पुरे विश्व में फ़ासीवाद के खिलाफ़ जंग जारी है तो मेरा फ़र्ज़ है कि मैं इसके खिलाफ़ ब्रिटेन और अमेरिका का साथ दूँ। लेकिन जिस पल यह युद्ध खत्म होगा मैं भारत की आज़ादी के लिए अपने वतन का साथ दूंगी।

अंग्रेज उनके जबाव से हैरान तो थे लेकिन साथ ही यह भी समझ गये कि नूर बहुत हिम्मत वाली हैं और उनके मिशन के लिए जरूरी भी। क्योंकि नूर बहुत अच्छे से फ्रेंच भाषा पढ़-लिख सकती थीं। उनका चयन हो गया और फिर शुरू हुआ उनका प्रशिक्षण।

साल 1942 में नूर को तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल द्वारा गठित ‘स्पेशल ऑपरेशन एक्ज़िक्यूटिव’ संगठन में भर्ती किया गया। इस संगठन का काम फ्रांस में रहते हुए अंग्रेजों के लिए जर्मन सेना की जासूसी करना था। यहाँ से नूर के जीवन ने एक नया मोड़ लिया।

हमेशा ही सूफ़ी माहौल में पली-बढ़ी नूर के लिए ये सब बहुत नया था। अब वे महान हज़रत इनायत ख़ान की बेटी या फिर हिन्दुस्तान की कोई शहज़ादी नहीं थीं बल्कि वे ब्रिटिश सेना में सिर्फ़ एक नंबर थीं और यहाँ उनका नाम था ‘नोरा बेकर’! हालांकि, उनके सभी प्रशिक्षकों को लगता था कि नूर एक सीक्रेट एजेंट बनने के लिए नहीं हैं। एक बार तो ट्रेनिंग के दौरान उन्होंने साफ़ कह दिया था कि वे झूठ नहीं बोल पाएंगी।

नूर को ब्रिटेन की वायु सेना में ‘नोरा बेकर’ नाम दिया गया

बसु कहती हैं कि उन्होंने हमेशा सच बोलना सीखा लेकिन एक सीक्रेट एजेंट बनने के बाद उनके नाम से लेकर उनके कागज़ात और उनका वज़ूद, सब झूठ था। वायरलेस ऑपरेटर की ट्रेनिंग उनके लिए आसान ना थी। अक्सर परीक्षण के दौरान वे डर जाती थीं। उनके अफ़सरों को लगता था कि नूर यह काम नहीं कर पाएंगी। लेकिन फिर भी उन्हें जासूस बनाकर फ्रांस भेजने का निर्णय लिया गया क्योंकि वे फ्रेंच-भाषी थीं और दूसरा वे किसी भी सन्देश को बहुत जल्द कोड या फिर डी-कोड कर लेती थीं।

नूर हमेशा ही एक लेखिका बनना चाहती थीं। उन्हें लिखने का मौका तो मिला पर एक बहुत ही अलग और नई भाषा में।नूर को जून 1943 में जासूसी के लिए रेडियो ऑपरेटर बनाकर फ्रांस भेज दिया गया और उनका कोड नाम ‘मेडेलिन’ रखा गया। मेडेलिन, नूर द्वारा लिखी गयी एक जातक कथा में नायिका का नाम था और जिस रेडियो एन्क्रिप्शन कोड का इस्तेमाल उन्होंने किया, वह नूर ने अपनी ही एक कविता से बनाया था।

नूर पहली महिला वायरलेस ऑपरेटर थीं क्योंकि उनसे पहले सिर्फ़ पुरुष ही वायरलेस ऑपरेटर होते थे। हालांकि, यह काम बहुत जोख़िम भरा था। क्योंकि, जर्मन सीक्रेट पुलिस ‘गेस्टापो’ ऑपरेटर के इलेक्ट्रॉनिक सिग्नल्स की पहचान कर इन जासूसों को आसानी से पकड़ सकती थी। यहाँ तक कि पेरिस पहुंचने के अगले महीने ही जर्मन सेना ने सभी ऑपरेटर्स को पकड़ लिया। इसके बाद पेरिस में सिर्फ़ एक ही ट्रांसमीटर बचा था और वह थीं नूर। ब्रिटिश सेना ने नूर को वापिस आने के लिए कहा। लेकिन नूर ने वापिस आने से मना कर दिया।

नूर का कोड नाम ‘मेडेलिन’ था 

नूर ने जून से लेकर अक्टूबर के बीच अकेले ही काम किया और उनके द्वारा भेजे गये सन्देश कभी भी गलत नहीं होते थे। नूर को पता था कि अगर उन्होंने किसी एक जगह से 15 मिनट तक मेसेज भेजा तो जर्मन सेना को पता चल जायेगा इसलिए वे हमेशा मेसेज भेजने के बाद किसी पार्क में चली जाती थीं। एक बार जब वे अपनी ट्रांसमिशन मशीन के साथ पार्क में थीं तो उन्हें जर्मन सैनिकों ने रोककर पूछ लिया कि उनके ब्रीफ़केस में क्या है?

नूर सच नहीं कह सकती थीं और झूठ बोलना उनके लिए जैसे नामुमकिन था। उनके सर्किट का नाम ‘सिनेमा’ था और इसलिए उन्होंने कहा कि ‘सिनेमा दिखाने की मशीन है।’ उनका आत्म-विश्वास देखकर जर्मन सैनिकों ने उन पर यकीन कर लिया। ऐसे ही कई बार जर्मन सेना की आँखों में धूल झोंककर नूर फरार होती रहीं। पर अब उनका हुलिया दुश्मनों को पता चल चूका था। इसलिए उन्हें हर दिन अपना रूप बदलना पड़ता।

सीक्रेट एजेंट द्वारा इस्तेमाल किये जाने वाले ट्रांसमीटर मशीन

लेकिन अक्टूबर, 1943 में नूर की गिरफ्तारी की वजह बना अपने ही एक सहयोगी का धोखा। उनकी ही एक सहयोगी ने चंद पैसों के लिए उनका राज उजागर कर दिया और नूर को पेरिस में उनके अपार्टमेंट से पकड़ा गया। हालांकि, जर्मन सैनिकों के लिए उन्हें गिरफ्तार करना भी बहुत आसान नहीं था। बताया जाता है कि लगभग 6 सैनिकों ने उन्हें साथ मिलकर काबू में किया था।

जेल में भी उन पर बहुत अत्याचार किये गए लेकिन नूर ने कोई भी जानकारी नहीं दी। बल्कि, जर्मन अधिकारियों के लिए वे बहुत ही खतरनाक कैदी थीं। उन्होंने दो बार जेल से भागने का प्रयास किया, हालांकि दोनों बार उन्हें पकड़ लिया गया।जर्मन सेना ने उनसे ब्रिटिश अधिकारियों की जानकारी उगलवाने का हर संभव प्रयास किया पर वे नूर से उनका असली नाम तक नहीं जान पाए।

27 नवम्बर 1943 को नूर को पेरिस से जर्मनी ले जाया गया। लगभग 10 महीनों तक नूर को हर तरह से प्रताड़ित कर उनसे जानकारी हासिल करने की कोशिश की गयी। सितंबर 1944 में नूर को डाउशे कसंट्रेशन कैंप में ले जाया गया। यहाँ 13 सितंबर 1944 को नूर को गोली मार दी गयी। उस वक़्त नूर की जुबान से निकला आखिरी लफ्ज़ था ‘लिबरेटे’ जिसका फ्रेंच में मतलब होता है आज़ादी!

मृत्यु के समय नूर की उम्र 30 साल थी। जिस नूर को अंग्रेजी अफ़सरों ने अपने मिशन में कभी सबसे कमजोर कड़ी माना था वही नूर उस मिशन की सबसे बड़ी ताकत बनकर उभरीं। उनके सम्मान में ब्रिटेन की डाक सेवा, रॉयल मेल ने डाक टिकट जारी किया गया। नूर की बहादुरी को उनकी मौत के बाद फ्रांस में ‘वॉर क्रॉस’ देकर सम्मानित किया गया तो ब्रिटेन ने अपने सर्वोच्च नागरिक सम्मान जॉर्ज क्रॉस से उन्हें नवाज़ा!

नूर इनायत ख़ान की कहानी को किताब की शक्ल देकर आम नागरिकों तक पहुँचाने वाली लेखिका श्रावणी बसु ने उनकी याद और सम्मान में ‘नूर इनायत ख़ान मेमोरियल ट्रस्ट‘ की भी शुरुआत की है। उन्होंने एक साक्षात्कार के दौरान कहा,

“मुझे एहसास हुआ कि नूर की कहानी ने आम लोगों को, विशेष रूप से युवाओं के दिल को कितना छुआ … मुझे लगा कि नूर के संदेश, उसके आदर्शों और उसके साहस को आज के समय में याद रखना बेहद जरूरी है।”

लेखिका श्रावणी बसु द्वारा लिखी गई किताब, ‘द स्पाई प्रिसेंज: द लाइफ़ ऑफ़ नूर इनायत ख़ान’

हाल ही में, हॉलीवुड़ में द्वितीय विश्व-युद्ध में अहम भूमिका निभाने वाले जासूसों पर एक फिल्म बनाने की घोषणा की गयी है। इस फिल्म में नूर इनायत ख़ान का किरदार भारतीय अभिनेत्री राधिका आप्टे निभाएंगी। उम्मीद है कि नूर की कहानी बड़े परदे पर भी लोगों का दिल छू जाएगी।

मूल लेख: संचारी पाल


यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ बांटना चाहते हो तो हमें hindi@thebetterindia.com पर लिखे, या Facebook और Twitter पर संपर्क करे। आप हमें किसी भी प्रेरणात्मक ख़बर का वीडियो 7337854222 पर भेज सकते हैं।

We at The Better India want to showcase everything that is working in this country. By using the power of constructive journalism, we want to change India – one story at a time. If you read us, like us and want this positive movement to grow, then do consider supporting us via the following buttons:

X