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1 करोड़ पेड़, 2500 चेक डैम: कैसे इस 86 वर्षीय व्यक्ति के दृढ़-निश्चय ने बदला गुजरात के 3 जिलों को!

साल 1970 में, पटेल 54 गांवों की 18, 000 हेक्टयर ज़मीन को वाटरशेड प्रोग्राम के अंतर्गत लाने में सफल रहे, ताकि यहाँ के किसान प्राकृतिक, सुरक्षित और सस्ते तरीके से पानी बचा पाएं।

प्रेमजी पटेल की यादों में उनका गुजरात वाला घर हमेशा बसा रहा। मुंबई में अच्छे-खासे व्यवसायी होने के बाद भी उन्हें यहाँ की आसमान को छूती इमारतें, भाग-दौड़ की ज़िन्दगी और नाम कमाने की होड़ कभी रास नहीं आई। शहर का जीवन शायद उनके लिए था ही नहीं !

कई बार ज़िंदगी के कुछ अहम् फ़ैसले लेने के लिए हमें प्रेरणा की ज़रूरत होती है। और पटेल के लिए यह प्रेरणा एक चरवाहे की कहानी बनीं। उन्होंने एक किताब में पढ़ा था कि किस प्रकार एक चरवाहे द्वारा अनजाने में बोये हुए बीजों से एक बंजर ज़मीन हरे- भरे जंगल में बदल गयी!

दूर देश की इस कहानी ने पटेल के जीवन की दिशा बदल दी। किसने सोचा था कि मुंबई के व्यस्त जीवन में डूबा यह व्यवसायी, गुजरात के राजकोट, गोंडल और मगरोल ज़िले को एक घने जंगल में तब्दील करके एक दिन अपनी राष्ट्रीय पहचान बनाएगा।

साल 1967 में पटेल को चरवाहे की कहानी वाली किताब उनके बेटे ने भेंट में दी थी। अगली बार जब वे राजकोट गए, उन्होंने वहां के बड़े बुजुर्गों से उस जगह के जीव-जंतुओं और पेड़-पौधों के बारे में जानकारी ली। उन्हें यह जान कर बड़ा आश्चर्य हुआ कि अपने पूरे जीवन में जिस ज़मीन को वे बंजर मानते आ रहे थे, वह एक समय पर हरा- भरा जंगल हुआ करती थी, जो कि गिर से ले कर द्वारका तक 285 किमी में फैली हुई थी!

बीजों से शुरु हुआ हरे- भरे जंगल का सफर:

साभार: वृक्ष प्रेम सेवा ट्रस्ट

86 वर्षीय पटेल के बारे बात करते हुए, यशोधर दीक्षित बताते हैं, “बापूजी को वह कुछ पन्नों की छोटी-सी किताब तो याद नहीं रही, पर सबक अच्छी तरह से याद रहा। उन्होंने बीज इकठ्ठा करना शुरू किया और पूरे भारत में बीज संरक्षको व वितरको का एक संघ बना लिया।” साल 2010 के अंत तक पटेल ने गुजरात के राजकोट, गोंडल और मांगरोल जिले में विभिन्न किस्मों (स्थानीय) के लगभग 550 टन बीज छिड़क दिए थे।

द बेटर इंडिया को यशोधर ने बताया, “विभिन्न प्रोजेक्ट्स के ज़रिए उन्होंने करीब एक करोड़ पेड़ लगाये और उनके इस महान कार्य को डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम ने भी सराहा था।”

पटेल ने बहुत सी उपलब्धियां हासिल की और उन्होंने इसकी शुरुआत एक सरल तरकीब के साथ की थी। हर गाँव में एक मंदिर होता है जहाँ भक्तों का आना जाना लगा रहता है। उन्होंने इन मंदिरों के आस-पास पेड़ लगाना शुरू किया क्योंकि इस जगह लोगों द्वारा पेड़ काटने की संभावना सबसे कम होती है। उन्होंने बीज खरीदने और बोने के लिए एक व्यक्ति को नियुक्त किय। इसमें समय तो लगा पर यह प्रयोग सफल सिद्ध हुआ।

जैसे ही पटेल को लगा कि उनकी मेहनत रंग लाने लगी है, तो उन्होंने अपना अगला कदम बढ़ाया।

साभार: वृक्ष प्रेम ट्रस्ट

कुछ समय पहले ही उन्होंने बीज संग्रहको, खरीददारों और विक्रेताओं का एक नेटवर्क बनाया था। वे अच्छी तरह जानते थे कि इनके बीजों में से अगर कुछ भी बच गये और पेड़ बन गए तो भी ज़मीन का एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा हरा भरा हो सकता है।

पटेल द्वारा 1968 में शुरू किये गये वृक्ष प्रेम सेवा ट्रस्ट (VPST) के रिकॉर्ड के अनुसार उन्होंने अलग-अलग किस्मों के 550 बीज जैसे प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा के पेड़, और स्थानीय प्रजाति जैसे अनाल, घास के बीज, करंज, नीम, पलाश, आदि के बीज इकट्ठा किये। पटेल ने अपने जीवन के तीन दशक इन पेड़ो को लगाने और इनकी देखभाल को समर्पित कर दिए।

हालांकि, पटेल की दृष्टि उन विशाल पेड़ों पर थी जिन्हें बड़ा करने में उन्होंने अपने जीवन का लम्बा समय दिया। उनका मकसद केवल गुजरात के सौराष्ट्र और राजकोट की हरियाली बढ़ाना नहीं था बल्कि वहां के स्थानीय किसानों की पानी की समस्या को कम करना भी था।

वीपीएसटी के ट्रस्टी दीक्षित के अनुसार, “पेड़ों के साथ ही हमने कुओं को फिर से पानी से भरने का प्रोजेक्ट भी शुरू किया और इसके लिए किसानो को सीमेंट और पाइप भी दिए गए ताकि वे कुओं से खेत तक पानी ला पायें। गुजरात सरकार ने वृक्ष प्रेम के परामर्श से चेक डैम का प्रोग्राम शुरू किया और अब तक हमने सौराष्ट्र क्षेत्र के आस पास 2, 500 से अधिक चेक डैम बनाये हैं।

राजकोट को सूखा रहित बनाना:

साभार: वृक्ष प्रेम ट्रस्ट

पानी की कीमत एक किसान से अधिक शायद ही कोई समझ पाए। मानसून का एक महीने जल्दी या एक महीने देर से आना, किसानों के लिए मुसीबत खड़ी कर देता है जिन्होंने पूरा साल फसल की देखभाल में लगाया है। बारिश ज़्यादा हो या फिर हो ही ना, इन दोनों  का मतलब है कि किसानो की कमाई शून्य हो जाती है और अगले साल तक के लिए उन्हें अपनी जमापुंजी पर निर्भर होना पड़ता है। और अगर साल दर साल बरसात कम होने लगे, तो इन गरीब किसानों की आर्थिक व्यवस्था चरमरा जाती है।

सूखी ज़मीन, बादलों की राह तकता आसमान और अंतिम सांस लेती प्यासी फसल, बहुत से किसानो को जब इन समस्याओं का कोई हल नहीं मिलता तो वे इस स्थिति से निकलने का कोई घातक रास्ता चुन लेते हैं।

किसानों के इन हालातों के बारे में जब पटेल को पता चला तो उन्होंने जाना कि इन गरीब किसानों को किसी ऐसे व्यक्ति की ज़रूरत है जो उन्हें फसल को सींचने के लिए पानी मुहैया करवा सके, और पटेल किसानों की इस जंग में कूद पड़े।
साल 1970 में, पटेल 54 गांवों की 18, 000 हेक्टयर ज़मीन को वाटरशेड प्रोग्राम के अंतर्गत लाने में सफल रहे, ताकि यहाँ के किसान प्राकृतिक, सुरक्षित और सस्ते तरीके से पानी बचा पाएं।

सेंट्रल ग्राउंड वॉटर बोर्ड ऑफ इंडिया (CGWB) के अनुसार, “इन परियोजनाओं में 1, 500 हेक्टेयर ज़मीन को कवर करते हुए 21, 600 बांधों के निर्माण की योजना शामिल थी, जिससे करीब 5,500 परिवारों को लाभ मिला | इससे पहले, इस ट्रस्ट ने सौराष्ट्र के छह ज़िलो में कुओं को रीचार्ज करने का कार्य अपने हाथ लिया था और गांववालों को 50,000 फीट लम्बी सीमेंट पाइप बांटी गयी थी।

वीपीएसटी की अब तक की उपलब्धियाँ:

साभार: वृक्ष प्रेम ट्रस्ट
  • किसानों की मुश्किलों को हल करते हुए अब तक 6, 250 हेक्टेयर ज़मीन तक पानी पहुँचाया गया।
  • 2,100 परिवारों को सीधा लाभ मिला है।
  • डैम के आस पास 3, 000 पेड़ लगाए गए ताकि पर्यावरण का समीकरण बना रहे।
  • इन सभी प्रयासों से बहुत-से परिवारों को सुरक्षित आय का साधन मिला तो कई परिवारों की आमदनी बढ़ी भी।

दीक्षित बताते हैं, “गुजरात सरकार ने रूफ टॉप रेनवाटर हार्वेस्टिंग प्रोजेक्ट के लिए कई एनजीओ को आमंत्रित किया था और वीपीएसटी को सबसे अधिक घरों तक यह सुविधा पहुंचाने के लिए पुरस्कृत किया गया। अब तक हमने 4, 600 रेनवाटर हार्वेस्टिंग प्रोजेक्ट पूरे किए हैं जिनसे करीब 20, 000 लोगों को सीधा लाभ मिला है।”

द बेटर इंडिया ने पटेल से संपर्क करने की कोशिश की, लेकिन उनका स्वास्थ्य ठीक न होने के कारण बात नहीं हो पाई। पर अब तक उन्होंने जो भी काम किए हैं, वे काफ़ी हैं उनकी अनुपस्थिति में भी उनकी कहानी कहने के लिए।

2012 में, उन्होंने द टेलीग्राफ को बताया था, “25 सालों से, वृक्षारोपण को मैंने अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया है। मेरे मरने के बाद, मेरे अग्नि संस्कार में किसी भी तरह से लकड़ी का प्रयोग न हो। जिन पेड़ों को मैंने लगाया है, उन्हे ही अपने अंतिम संस्कार के लिए कटते हुए मैं नहीं देख सकता।”

मूल लेख: तन्वी पटेल
संपादन: निशा डागर 


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