प्रभा खेतान की कहानी – छिन्नमस्ता!

हि न्दी भाषा की लब्ध प्रतिष्ठित उपन्यासकार, कवयित्री तथा नारीवादी चिंतक प्रभा खेतान ने अपनी रचनाओं में जहाँ एक ओर स्त्री जीवन की विविध समस्याओं को उठाया हैं, वही दूसरी ओर

हि न्दी भाषा की लब्ध प्रतिष्ठित उपन्यासकार, कवयित्री तथा नारीवादी चिंतक प्रभा खेतान ने अपनी रचनाओं में जहाँ एक ओर स्त्री जीवन की विविध समस्याओं को उठाया हैं, वही दूसरी ओर उन्होंने इन समस्याओं से स्त्री को रोज दो-चार कराने वाली सामाजिक व्यवस्था की सच्चाई से रु-ब-रू भी कराया है। उन्होंने अपने उपन्यासों में पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था के बीच स्वतन्त्रता तथा समानता के अधिकार के लिए संघर्षरत विविध चरित्रों को गढ़ा। ये स्त्री-पात्र जहाँ एक ओर पितृसतात्मक समाज व्यवस्था की सड़ी-गली मान्यताओं को मानने से इन्कार करती हैं, वहीं दूसरी ओर अपने लिए अलग राह बनाने की ओर अग्रसर हैं।

प्रभा खेतान ने व्यवसाय से साहित्य, घर से सामाजिक कार्यों तथा देश से विदेशों तक के सफर में अनेक मंजिलें तय कीं। धरातल से शुरू किए अपने जीवन को खुले आकाश की ऊंचाईयों तक पहुंचाने के प्रभा के साहस और क्षमता को कई पुरस्कार व सम्मानों से भी नवाजा गया।

उनका चर्चित उपन्यास ‘छिन्नमस्ता’ स्त्री के शोषण, उत्पीड़न और संघर्ष का जीवन्त दस्तावेज है। सम्पन्न मारवाड़ी समाज की पृष्ठभूमि में रची गई इस औपन्यासिक कृति की नायिका प्रिया परत-दर परद स्त्री जीवन के उन पक्षों को उघाड़ती चलती है जिनको पुरुष समाज औरत की स्वाभाविक नियति मानता रहा है और इस प्रक्रिया में वह हमें स्त्री की युगों-युगों से संचित पीड़ा से रू-ब-रू कराती है।बचपन से ही भेदभाव और उपेक्षा की शिकार साधारण शक्ल-सूरत और सामान्य बुद्धि की प्रिया परिवार की ‘सुरक्षित’ चौहद्दी के भीतर ही यौन शोषण की शिकार भी होती है और तदुपरांत प्रेम और भावनात्मक सुरक्षा की तलाश में उन तमाम आघातों से दो-चार होती है जिनसे सम्भवतः हर स्त्री को गुजरना होता है। अपने जड़ संस्कारों में जकड़ा पति भी उसे मानवोचित सम्मान नहीं दे पाता।

इस सबके बावजूद प्रिया अपनी एक पहचान अर्जित करती है। मनुष्य के रूप में अपनी जिजीविषा और स्त्री के रूप में अपनी संवेदनशीलता को जीती हुई वह अपना स्वतंत्र तथा सफल व्यवसाय स्थापित करती है। घर के सीमित दायरे से मुक्त करके अपने सपनों को सुदूर क्षितिज तक विस्तृत करती है।

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश –

छिन्नमस्ता

‘प्लेन में बैठे-बैठे कमर अकड़ गई। सर दर्द से फटा जा रहा है। गलती मेरी है। इतनी लम्बी फ्लाइट नहीं लेनी चाहिए थी।’ प्रिया ने दोनों हाथों से सर को दबाते हुए सोचा। बगल में, लगता है, कोई पूर्वी यूरोपियन है…शायद हंगेरियन होगा…प्रिया के नथुनों से हंगेरियन गोलाश सूप की महक टकराई। ‘उफ्, कुछ लोग कितने आराम से सो लेते हैं…मुह खुला हुआ और नाक बजती हुई। इसकी इस घर-घर बजती शहनाई से तो आती हुई नींद भी उचट जाए। लेकिन यह एयरलाइन नहीं लेनी चाहिए थी। अब यह विमान बेलग्रेड उतरेगा। फिर घंटे-डेढ़ घंटे का ट्रांजिट…इसके बाद सीधे कलकत्ता। सीधे कलकत्ता पहुँचने का ही ज्यादा बड़ा आकर्षण था…नहीं तो पूरा एक दिन दिल्ली या बम्बई में खराब करो। आधी रात को हमारे ही देश में, बारह से दो-ढाई के बीच ही, सारी फ्लाइट्स क्यों रुकती हैं ? फिर या तो वहीं एयरपोर्ट पर बैठो और नहीं तो एयरपोर्ट होटल में चार-छह घंटे के लिए पन्द्रह सौ रुपए फूँको। एक्सपोर्ट के काम में इतनी रईसी तो चलती नहीं। यों ही ये यात्राएँ क्या कम महँगी होती जा रही हैं ?…’ दोस्तों को आधी रात को उठाना प्रिया को कभी अच्छा नहीं लगता, पर तबीयत ठीक नहीं लग रही। कैसे तो जी मिचला रहा है ? प्रिया ने एयरहोस्टेस की बत्ती जलाई और खुद से ही मानो पूछा, ‘प्रिया ! इन यात्राओं का कभी अन्त होगा ?…’ ‘‘यस मदाम !’’ मुस्कुराती हुई एयरहोस्टेस थी।

‘‘क्या आप मुझे कोकाकोला दे सकती हैं ?’’
‘‘जरूर।’’
कोकाकोला का स्वाद न जाने कैसा लग रहा है। अब की तो कलकत्ता जाकर बिस्तर पर दो दिन पड़े रहना होगा। दो बार डिस्प्रिन खा चुकी। सर का दर्द कम ही नहीं होता।

विमान धीरे-धीरे उतर रहा था। प्रिया की आँखें खिड़की से बाहर सुबह की रोशनी में दिखते हुए बेलग्रेड विमानपत्तन पर ठहर गईं। पश्चिमी यूरोप पार करते ही गरीबी की बखिया उधड़ने लगती है। क्या हुआ यदि बीच में दुबई या कुवैत के एयरपोर्ट चमकते हुए नजर आएँ। न्यूयार्क, लन्दन या फ्रैंकफर्ट के एयरपोर्ट का मुकाबला तो नहीं कर सकते ?…‘‘ट्रांजिट के पैसेंजर पहले उतर जाएँ, अपना-अपना सामान प्लेन में ही छोड़ सकते हैं। हाँ, पासपोर्ट लेना न भूलें।’’ एयरहोस्टेस की आवाज थी।

प्रिया ने अपने हाथवाली अटैची उठा ली। ट्रांजिट में घंटे-भर का समय लगेगा। शायद हाथ-मुँह धोने से कुछ ताजगी मिले। पता नहीं तबीयत इतनी क्यों गिरी जा रही है ? ट्रांजिट लाउंज में बाएँ घूमना था। एक बार कदम लड़खड़ाए। प्रिया ने हिम्मत करके दो-चार गहरी साँसें लीं, दीवार के सहारे पीठ टेककर खड़ी रही…दो कदम और बढ़ाए। चक्कर आ रहा है। वह कुछ और सोचे, इसके पहले आँखों के सामने काला अँधेरा था। दीवार का सहारा लेते-लेते वह वहीं बेहोश होकर गिर पड़ी।

इस बार होश आने पर सफेद दीवारों और सामने सफेद पोशाक पहने नर्स को देखकर प्रिया ने समझ लिया कि वह अस्पताल में है। हाथ जकड़े हुए लगे। हाथ खींचने की कोशिश की। नर्स का प्यारा-सा चेहरा झुक आया। शुद्ध अंग्रेजी में उसने कहा, ‘‘आप बेलग्रेड सरकारी अस्पताल में हैं। अपने हाथों को वही रहने दीजिए। आपको ग्लूकोज चढ़ाया जा रहा है।’’

‘‘मुझे क्या हुआ है ?’’
‘‘अभी डॉक्टर आकर बताएँगे। वैसे आप चिन्ता मत कीजिए।’’
‘‘मुझे खबर करनी है कलकत्ता, अपने घर।’’

‘‘मदान का पासपोर्ट देखकर फोन कर दिया गया है।’’
‘‘ओह ! वह तो ससुराल…क्या आप इस नम्बर से मुझे बात करवा सकती हैं ?’’ प्रिया ने उसे हालैंड में फिलिप का नम्बर दिया।

फिलिप सात घंटे में बेलग्रेड गया था। फिलिप को देखते ही प्रिया के मुर्झाए होंठों पर हल्की मुस्कान दौड़ गई। आगे बढ़कर प्रिया का माथा चूमते हुए फिलिप ने कहा, ‘‘प्रिया ! तुम बिलकुल ठीक हो। मैंने डॉक्टर से बात कर ली है, चिन्ता की कोई बात नहीं। और अब मैं हूँ न यहाँ…!’’

‘‘धन्यवाद फिलिप ! पर मुझे हुआ क्या है ?’’
‘‘कुछ नहीं…थकान, कुछ ज्यादा ही। शियर एक्जॉशन। प्रिया ! सुनो, तुमने सच में अपने आपको काम के चक्कर में तोड़कर रख दिया है।’’
‘‘फिर भी साफ बताओ, कहीं हार्ट की तकलीफ…?’’

‘‘ओ…नो…जैट लैग (हवाई यात्रा में बैठे-बैठे पैरों का अकड़ जाना) में…और वह भी कोई खाए-पीए बिना उड़ता ही रहे…तो बहुत बार ‘वैसोवैगल-एटैक’ हो जाता है। अच्छा, सच बताओ, तुमने आखिरी बार खाना कब खाया था ?’’

‘‘शिकागो में।’’
‘‘यानी दो दिन से तुम भूखी हो और प्लेन में कोकाकोला के अलावा तुमने कुछ पिया ही नहीं होगा, मुझे पता है। पिछले पन्द्रह वर्षों से देख रहा हूँ। पागल औरत हो, बिलकुल पागल !’’

‘‘फिलिप ! प्लीज !’’
‘‘नहीं प्रिया ! मेरा मन करता है तुम्हें डाँटूँ, ठीक उसी तरह जैसे मुझे इलोना को डाँटना पड़ता है।’’
‘‘इलोना कैसी है ? पढ़ाई कैसी चल रही है ? और जूड़ी ?’’

‘‘जूड़ी तुम्हारे लिए चिन्तित है। इलोना कॉलेज में जोरों से पढ़ाई कर रही है। ऐसा वह मुझसे कहती है।’’
‘‘नीना से बात कर लेना फिलिप…और कहना परेशान न हो। और कहीं वह यहाँ चली न आए।’’
‘‘तुम चिन्ता मत करो। ये सारे काम मैं जूड़ी के जिम्मे लगा चुका हूँ। वह शाम को तुमसे फोन पर बातें करेगी। जूड़ी आना चाह रही थी। एक बार तो खबर सुनकर हम दोनों सन्नाटें में आ गए।’’

फिलिप शाम को फिर आने के लिए कहकर वापस जा चुका है, और मैं सोना चाह रही हूँ। हालाँकि नींद से पलकें बोझिल हैं, पर बहुत चाहने पर भी मैं सो नहीं पा रही।

नर्स ने एक दवा दी और हॉट चाकलेट। मैंने दिमाग पर जोर डालने की कोशिश की। पर अब मैं ज्यादा सोच नहीं पा रही थी। दिमाग में छोटे-छोटे बादलों के टुकड़े तैर रहे थे। मैं सचमुच पिछले दिनों से बहुत ज्यादा काम कर रही थी और शिकागो की इस प्रदर्शनी के लिए तो पिछले पन्द्रह दिनों से मैं शायद चार-छह घंटे ही रात को सो पाती थी। नीना रोज कहा करती थी–भाभी ! आप थोड़ा आराम कीजिए। वहाँ शिकागो में तो इससे ज्यादा खटनी होगी।’

‘नहीं नीना। ऐसा मौका कब मिलता है ? स्पिलवर्ग ने स्टाल का ऑफर खुद दिया है।’
‘हाँ, नीना भी तो तीस से ऊपर की हो गई; मेरा दाहिना हाथ, मेरा सबसे बड़ा सहारा। पर नीना शादी क्यों नहीं कर लेती ? शायद अब कर ले।’

प्रिया की आँखें धीरे-धीरे बन्द हो गईं। एक गहरी नींद थी। सुबह जब नींद खुली, नजर सामने के कैलेंडर पर पड़ी। आज अट्ठाईस अप्रैल है। गुड मार्निंग कहते हुए नर्स भीतर कमरे में आई।
‘‘क्या मैं बहुत देर तक सोती रही ?’’
‘‘हाँ। आप पहले नाश्ता करेंगी या नहाएँगी ?’’

‘‘क्या मैं पहले नहा सकती हूँ ?’’
‘‘हाँ, हाँ, क्यों नहीं ? आपको कमजोरी तो नहीं लग रही ?’’
‘‘नहीं, बिलकुल नहीं।’’

‘‘बहुत अच्छा।’’ कहते हुए नर्स ने प्रिया को पलँग से उतारा। गरम पानी से नहाकर एकदम से ताजगी आ गई। फिर गरम क्रोसा, मक्खन, जैम और दूध के साथ ब्लैक कॉफी, सन्तरे का रस। पश्चिम का यह नाश्ता…प्रिया को हर होटल में इसी तरह खाने की आदत थी। वह सोचने लगी–कितने वर्ष हो गए चमड़े का यह व्यवसाय शुरू किए हुए ? और यह यायावरी की जिन्दगी ? देश-विदेश घूमते रहना। आखिर यह एक्सपोर्ट का काम मैंने शुरू क्यों किया ? किस दुख को भूलने के लिए ? मगर सुख ? क्या कभी सुख था ? कहीं कुछ खो गया ? याद नहीं आ रहा। मन में कहीं बड़ी कोमलता है, प्यार है, किसी खास व्यक्ति से नहीं, रिश्तों से नहीं, पर इन सबसे अधिक नीना। छोटी माँ। मेरा स्टाफ जो रात-दिन मेरे साथ जहाज पर माल चढ़ाने के लिए मेरे हाथों को मजबूत करने में लगा रहता है, जो न दिन देखता है, न रात। कहाँ हैं वे सब ? मेरी बीमारी की खबर से सब कितने चिन्तित हो जाएँगे ? और भी कुछ लोग हैं, खबर उन लोगों तक पहुँची जरूर होगी। छोटी माँ का स्वभाव मैं जानती हूँ। उनका पारम्परिक मानस ? उन्होंने जरूर नरेन्द्र को फोन किया होगा। संजू और निधि को भेजने का आग्रह भी और एक ठंडी मनाही सुनकर अपनी ठाकुरबाड़ी में बैठी रोती रही होगी। यहाँ, विदेश की इस जमीन पर मेरे दोस्त हैं, बड़े निजी और मेरे अगल-बगल चलनेवाले–फिलिप और जूड़ी।

अस्पताल में यह मेरा दूसरा दिन है, लेकिन भीतर कुछ है बिलकुल अछूता, मेरी अपनी संवेदनाओं की स्मृतियाँ…स्मृतियों के वे क्षण जिन्हें मैंने हमेशा के लिए दफना दिया था, आज क्यों बार-बार सतह पर तैरते नजर आ रहे हैं ? मैंने तो भूल जाना चाहा था, ठीक उसी तरह जैसे अजनबी शहर में अजनबी लोगों के चेहरे बस चेहरे लगते हैं…हम उन्हें देखते हैं, उनके साथ ट्यूब रेल में सफर करते हैं और स्टेशन के अँधेरे से बाहर निकलकर साफ रोशनी में अपनी-अपनी दिशाओं में दौड़ जाते हैं। हमारे सामने फैला होता है दिन का उजाला। उजाले में चमक रही होती है एक और दुनिया…हमें उस दुनिया में पहुँच जाने की जल्दी होती है। अँधेरी सुरंगों में धड़घड़ाती हुई ट्यूब रेल में हिलते हुए चेहरे। सब चुप। एक दूसरे से असम्पृक्त। मेरी स्मृतियाँ भी ऐसी ही सुरंगों में दिन-रात दर्द का बोझ लिए दौड़ती रही हैं…मैंने समझ लिया था। यह बिलकुल निश्चित था कि ये चाहे कितनी भी दौड़ लगाएँ, पर पाताल के अँधेरे में कैद रहेंगी, बाहर नहीं निकल सकतीं। नहीं, कभी नहीं।

फिर यह क्या हुआ है मुझे ? यह सब मुझे क्यों याद आ रहा है ? वह भी एक साथ नहीं, टुकड़ा-टुकड़ा। कमरे में दवा की गन्ध, फिलिप के लाए हुए ट्यूलिप की महक के साथ घुलकर एक अजीब-सी गन्ध…सफेद झक कमरे में ये रंग-बिरंगे ट्यूलिप। फिलिप कह रहा था, ‘मौसम के पहले ट्यूलिप है। यूरोप में अभी पूरी तरह बर्फ पिघली नहीं है, इसलिए अप्रैल के मौसम में ट्यूलिप के रंग हल्के होते हैं…बिलकुल हल्के, दूधिया गुलाबी, पीले और नए रंगों में फूटने को आतुर सफेदी…हरे पत्ते।’’

मैंने दुख झेला है। पीड़ा और त्रासदी में झुलसी हूँ। जिस दिन मैंने त्रासदी को ही अपने होने की शर्त समझ लिया, उसी दिन, उस स्वीकृति के बाद, मैंने खुद को एक बड़ी गैर-जरूरी लड़ाई से बचा लिया। कुछ के प्रति यह मेरा समर्पण था। सारे जुल्मों के सामने…सलीब पर लटकते मैंने पाया कि मैं अब पूरी तरह जिन्दगी की चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार हूँ।

स्मृतियाँ हल्के से मेरे कन्धों पर हाथ रखती हैं और मेरे सामने मेरा मैं खड़ा होता है, पूरा-का-पूरा साबुत…मैं, बिलकुल शान्त और निर्विकार। पिछली यादें वापस लौट आती हैं।

साभार – pustak.org


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