बेबाक इस्मत आपा की कहानी ‘लिहाफ़’, जिसकी वजह से उनपर मुकदमा चला!

lihaf by ismat chugtai

लिहाफ कहानी है एक हताश गृहिणी की जिसके पति के पास समय नहीं है और यह औरत अपनी महिला नौकरानी के साथ में सुख पाती है। इस्मत की कहानी लिहाफ़ के लिए लाहौर हाईकोर्ट में उनपर मुक़दमा चला। जो बाद में ख़ारिज हो गया।

भारत से उर्दू की एक लेखिका थीं, जिन्हें ‘इस्मत आपा’ के नाम से भी जाना जाता है। वे उर्दू साहित्य की सर्वाधिक विवादास्पद और सर्वप्रमुख लेखिका थीं, जिन्होंने महिलाओं के सवालों को नए सिरे से उठाया। उन्होंने निम्न मध्यवर्गीय  तबक़ें की दबी-कुचली सकुचाई और कुम्हलाई लेकिन जवान होती लड़कियों की मनोदशा को उर्दू कहानियों व उपन्यासों में पूरी सच्चाई से बयान किया है।

उर्दू साहित्य में सआदत हसन मंटो, इस्मत, कृष्ण चंदर और राजेन्दर सिंह बेदी को कहानी के चार स्तंभ माना जाता है। इनमें भी आलोचक मंटो और चुगताई को ऊंचे स्थानों पर रखते हैं, क्योंकि इनकी लेखनी से निकलने वाली भाषा, पात्रों, मुद्दों और स्थितियों ने उर्दू साहित्य को नई पहचान और ताकत दी है।

सआदत हसन मंटो और इस्मत चुगताई को लीक से हटकर जीने वाले लोगों में शुमार किया जाता है. दोनों अपनी तरह के एक ही थे। बहुत से लोग मंटो और इस्मत को एक सिक्के के दो पहलू की तरह देखते हैं।

मंटो ने भी एक बार कहा था, “अगर मैं औरत होता तो इस्मत होता या इस्मत अगर मर्द होती तो वह मंटो होती।”

इस्मत चुगताई का जन्म 21 अगस्त, 1915 में बदायूं के एक उच्च मध्यवर्गीय परिवार में हुआ। वे दस भाई बहन थे, जिनमें इस्मत आपा का नौवां नंबर था। छह भाई और चार बहनें! सारी बहनें उम्र में बड़ी थीं, तो जब तक इस्मत बड़ी होतीं बाकी बहनों की शादी हो गई। ऐसे में बहनों का साथ कम और भाइयों का साथ उन्हें ज्यादा मिला। अब लड़कों के साथ रहना तो उनकी जैसी हरकतें और आदतें सीखना भी लाजिमी था। इस तरह इस्मत आपा बिंदास हो गईं, और हर वह काम करतीं जो उनके भाई करते, जैसे फुटबॉल से लेकर गिल्ली डंडा तक खेलना। इस तरह उनके बिंदास व्यक्तित्व का निर्माण हुआ, जिसकी झलक उनकी लेखनी में देखने को मिली।

इस्मत आपा बी.ए. और बी.टी (बैचलर्स इन एजुकेशन) करने वाली पहली मुस्लिम महिला थीं। उन्होंने 1942 में शाहिद लतीफ (फिल्म डायरेक्टर और स्क्रिप्टराइटर) से निकाह कर लिया। लेकिन शादी से दो महीने पहले ही उन्होंने अपनी सबसे विवादास्पद कहानी ‘लिहाफ़’ लिख ली थी। कहानी लिखने के दो साल बाद इस पर अश्लीलता के आरोप लगे। यह कहानी एक हताश गृहिणी की थी जिसके पति के पास समय नहीं है और यह औरत अपनी महिला नौकरानी के साथ में सुख पाती है। इस्मत की कहानी लिहाफ़ के लिए लाहौर हाईकोर्ट में उनपर मुक़दमा चला। जो बाद में ख़ारिज हो गया।

आईये आज इस्मत आपा को याद करते हुए इसी कहानी को पढ़े –

लिहाफ़

जब मैं जाड़ों में लिहाफ ओढ़ती हूं, तो पास की दीवार पर उसकी परछाई हाथी की तरह झूमती हुई मालूम होती है और एकदम से मेरा दिमाग बीती हुई दुनिया के पर्दों में दौडने-भागने लगता है. न जाने क्या कुछ याद आने लगता है.

माफ कीजिएगा, मैं आपको खुद अपने लिहाफ का रूमानअंगेज जिक्र बताने नहीं जा रही हूं. न लिहाफ से किसी किस्म का रूमान जोड़ा ही जा सकता है. मेरे ख़याल में कम्बल कम आरामदेह सही, मगर उसकी परछाई इतनी भयानक नहीं होती जितनी, जब लिहाफ की परछाई दीवार पर डगमगा रही हो. यह जब का जिक्र है, जब मैं छोटी-सी थी और दिन-भर भाइयों और उनके दोस्तों के साथ मार-कुटाई में गुज़ार दिया करती थी. कभी-कभी मुझे ख्याल आता कि मैं कमबख्त इतनी लड़ाका क्यों थी? उस उम्र में जबकि मेरी और बहनें आशिक जमा कर रही थीं. मैं अपने-पराये हर लड़के और लड़की से जूतम-पैजार में मशगूल थी.

यही वजह थी कि अम्मा जब आगरा जाने लगीं तो हफ्ता-भर के लिए मुझे अपनी एक मुंहबोली बहन के पास छोड़ गईं. उनके यहां अम्मा खूब जानती थीं कि चूहे का बच्चा भी नहीं और मैं किसी से भी लड़-भिड़ न सकूंगी. सजा तो खूब थी मेरी! हां, तो अम्मा मुझे बेगम जान के पास छोड़ गईं. वही बेगम जान जिनका लिहाफ अब तक मेरे जहन में गर्म लोहे के दाग की तरह महफूज है. ये वो बेगम जान थीं जिनके गरीब मां-बाप ने नवाब साहब को इसलिए दामाद बना लिया कि वह पकी उम्र के थे मगर निहायत नेक. कभी कोई रण्डी या बाजारी औरत उनके यहां नजर न आई. खुद हाजी थे और बहुतों को हज करा चुके थे.

मगर उन्हें एक निहायत अजीबो-गरीब शौक था. लोगों को कबूतर पालने का जुनून होता है, बटेरें लड़ाते हैं, मुर्गबाजी करते हैं, इस किस्म के वाहियात खेलों से नवाब साहब को नफरत थी. उनके यहां तो बस तालिब इल्म रहते थे. नौजवान, गोरे-गोरे, पतली कमरों के लड़के, जिनका खर्च वे खुद बर्दाश्त करते थे. मगर बेगम जान से शादी करके तो वे उन्हें कुल साजो-सामान के साथ ही घर में रखकर भूल गए और वह बेचारी दुबली-पतली नाजुक-सी बेगम तन्हाई के गम में घुलने लगीं. न जाने उनकी जिन्दगी कहां से शुरू होती है? वहां से जब वह पैदा होने की गलती कर चुकी थीं, या वहां से जब एक नवाब की बेगम बनकर आयीं और छपरखट पर जिन्दगी गुजारने लगीं या जब से नवाब साहब के यहां लड़कों का जोर बंधा. उनके लिए मुरग्गन हलवे और लजीज खाने जाने लगे और बेगम जान दीवानखाने की दरारों में से उनकी लचकती कमरोंवाले लड़कों की चुस्त पिण्डलियां और मोअत्तर बारीक शबनम के कुर्ते देख-देखकर अंगारों पर लोटने लगीं.

या जब से वह मन्नतों-मुरादों से हार गईं. चिल्ले बंधे और टोटके और रातों की वजीफाख्वानी भी चित हो गई. कहीं पत्थर में जोंक लगती है! नवाब साहब अपनी जगह से टस-से-मस न हुए. फिर बेगम जान का दिल टूट गया और वह इल्म की तरफ मोतवज्जो हुई. लेकिन यहां भी उन्हें कुछ न मिला. इश्किया नावेल और जज्बाती अशआर पढ़कर और भी पस्ती छा गई. रात की नींद भी हाथ से गई और बेगम जान जी-जान छोड़कर बिल्कुल ही यासो-हसरत की पोट बन गईं. चूल्हे में डाला था ऐसा कपड़ा-लत्ता. कपड़ा पहना जाता है किसी पर रोब गांठने के लिए. अब न तो नवाब साहब को फुर्सत कि शबनमी कुर्तों को छोड़कर जरा इधर तवज्जो करें और न वे उन्हें कहीं आने-जाने देते. जब से बेगम जान ब्याहकर आई थीं, रिश्तेदार आकर महीनों रहते और चले जाते, मगर वह बेचारी कैद की कैद रहतीं.

उन रिश्तेदारों को देखकर और भी उनका खून जलता था कि सबके-सब मज़े से माल उड़ाने, उम्दा घी निगलने, जाड़े का साज़ो-सामान बनवाने आन मरते और वह बावजूद नई रूई के लिहाफ के पड़ी सर्दी में अकड़ा करतीं. हर करवट पर लिहाफ नईं-नईं सूरतें बनाकर दीवार पर साया डालता. मगर कोई भी साया ऐसा न था जो उन्हें जिन्दा रखने लिए काफी हो. मगर क्यों जिये फिर कोई? ज़िन्दगी! बेगम जान की ज़िन्दगी जो थी! जीना बंदा था नसीबों में, वह फिर जीने लगीं और खूब जीं. रब्बो ने उन्हें नीचे गिरते-गिरते संभाल लिया. चटपट देखते-देखते उनका सूखा जिस्म भरना शुरू हुआ. गाल चमक उठे और हुस्न फूट निकला. एक अजीबो-गरीब तेल की मालिश से बेगम जान में जिन्दगी की झलक आई. माफ कीजिएगा, उस तेल का नुस्खा आपको बेहतरीन-से-बेहतरीन रिसाले में भी न मिलेगा.

जब मैंने बेगम जान को देखा तो वह चालीस-बयालीस की होंगी. ओफ्फोह! किस शान से वह मसनद पर नीमदराज थीं और रब्बो उनकी पीठ से लगी बैठी कमर दबा रही थी. एक ऊदे रंग का दुशाला उनके पैरों पर पड़ा था और वह महारानी की तरह शानदार मालूम हो रही थीं. मुझे उनकी शक्ल बेइन्तहा पसन्द थी. मेरा जी चाहता था, घण्टों बिल्कुल पास से उनकी सूरत देखा करूं. उनकी रंगत बिल्कुल सफेद थी. नाम को सुर्खी का जिक्र नहीं और बाल स्याह और तेल में डूबे रहते थे. मैंने आज तक उनकी मांग ही बिगड़ी न देखी. क्या मजाल जो एक बाल इधर-उधर हो जाए. उनकी आंखें काली थीं और अबरू पर के ज़ायद बाल अलहदा कर देने से कमानें-सीं खिंची होती थीं. आंखें जरा तनी हुई रहती थीं. भारी-भारी फूले हुए पपोटे, मोटी-मोटी पलकें. सबसे जियाद जो उनके चेहरे पर हैरतअंगेज जाजिबे-नजर चीज थी. वह उनके होंठ थे. अमूमन वह सुर्खी से रंगे रहते थे. ऊपर के होंठ पर हल्की-हल्की मूंछें-सी थीं और कनपटियों पर लम्बे-लम्बे बाल. कभी-कभी उनका चेहरा देखते-देखते अजीब-सा लगने लगता था, कम उम्र लड़कों जैसा.

उनके जिस्म की जिल्द भी सफेद और चिकनी थी. मालूम होता था किसी ने कसकर टांके लगा दिए हों. अमूमन वह अपनी पिण्डलियां खुजाने के लिए किसोलतीं तो मैं चुपके-चुपके उनकी चमक देखा करती. उनका कद बहुत लम्बा था और फिर गोश्त होने की वजह से वह बहुत ही लम्बी-चौड़ी मालूम होतीं थीं. लेकिन बहुत मुतनासिब और ढला हुआ जिस्म था. बड़े-बड़े चिकने और सफेद हाथ और सुडौल कमर तो रब्बो उनकी पीठ खुजाया करती थी. यानी घण्टों उनकी पीठ खुजाती, पीठ खुजाना भी जिन्दगी की जरूरियात में से था, बल्कि शायद जरूरियाते-जिंदगी से भी ज्यादा.

रब्बो को घर का और कोई काम न था. बस वह सारे वक्त उनके छपरखट पर चढ़ी कभी पैर, कभी सिर और कभी जिस्म के और दूसरे हिस्से को दबाया करती थी. कभी तो मेरा दिल बोल उठता था, जब देखो रब्बो कुछ-न-कुछ दबा रही है या मालिश कर रही है. कोई दूसरा होता तो न जाने क्या होता? मैं अपना कहती हूं. कोई इतना करे तो मेरा जिस्म तो सड़-गल के खत्म हो जाए. और फिर यह रोज-रोज की मालिश काफी नहीं थीं. जिस रोज बेगम जान नहातीं, या अल्लाह! बस दो घण्टा पहले से तेल और खुशबुदार उबटनों की मालिश शुरू हो जाती. और इतनी होती कि मेरा तो तखय्युल से ही दिल लोट जाता. कमरे के दरवाजे बन्द करके अंगीठियां सुलगती और चलता मालिश का दौर. अमूमन सिर्फ रब्बो ही रही. बाकी की नौकरानियां बड़बड़ातीं दरवाजे पर से ही, जरूरियात की चीजें देती जातीं.

बात यह थी कि बेगम जान को खुजली का मर्ज था. बिचारी को ऐसी खुजली होती थी कि हजारों तेल और उबटने मले जाते थे. मगर खुजली थी कि कायम. डॉक्टर, हकीम कहते, ”कुछ भी नहीं, जिस्म साफ चट पड़ा है. हां, कोई जिल्द के अन्दर बीमारी हो तो खैर.” ‘नहीं भी, ये डाक्टर तो मुये हैं पागल! कोई आपके दुश्मनों को मर्ज़ है? अल्लाह रखे, खून में गर्मी है! रब्बो मुस्कराकर कहती, महीन-महीन नजरों से बेगम जान को घूरती! ओह यह रब्बो! जितनी यह बेगम जान गोरी थीं उतनी ही यह काली. जितनी बेगम जान सफेद थीं, उतनी ही यह सुर्ख. बस जैसे तपाया हुआ लोहा. हल्के-हल्के चेचक के दाग. गठा हुआ ठोस जिस्म. फुर्तीले छोटे-छोटे हाथ. कसी हुई छोटी-सी तोंद. बड़े-बड़े फूले हुए होंठ, जो हमेशा नमी में डूबे रहते और जिस्म में से अजीब घबरानेवाली बू के शरारे निकलते रहते थे. और ये नन्हें-नन्हें फूले हुए हाथ किस कदर फूर्तीले थे! अभी कमर पर, तो वह लीजिए फिसलकर गए कूल्हों पर! वहां से रपटे रानों पर और फिर दौड़े टखनों की तरफ! मैं तो जब कभी बेगम जान के पास बैठती, यही देखती कि अब उसके हाथ कहां हैं और क्या कर रहें हैं?

गर्मी-जाड़े बेगम जान हैदराबादी जाली कारगे के कुर्ते पहनतीं. गहरे रंग के पाजामे और सफेद झाग-से कुर्ते. और पंखा भी चलता हो, फिर भी वह हल्की दुलाई ज़रूर जिस्म पर ढके रहती थीं. उन्हें जाड़ा बहुत पसन्द था. जाड़े में मुझे उनके यहाँ अच्छा मालूम होता. वह हिलती-डुलती बहुत कम थीं. कालीन पर लेटी हैं, पीठ खुज रही हैं, खुश्क मेवे चबा रही हैं और बस! रब्बो से दूसरी सारी नौकरियां खार खाती थीं. चुड़ैल बेगम जान के साथ खाती, साथ उठती-बैठती और माशा अल्लाह! साथ ही सोती थी! रब्बो और बेगम जान आम जलसों और मजमूओं की दिलचस्प गुफ्तगू का मौजूं थीं. जहां उन दोनों का जिक्र आया और कहकहे उठे. लोग न जाने क्या-क्या चुटकुले गरीब पर उड़ाते, मगर वह दुनिया में किसी से मिलती ही न थी. वहां तो बस वह थीं और उनकी खुजली!

मैंने कहा कि उस वक्त मैं काफी छोटी थी और बेगम जान पर फिदा. वह भी मुझे बहुत प्यार करती थीं. इत्तेफाक से अम्मां आगरे गईं. उन्हें मालूम था कि अकेले घर में भाइयों से मार-कुटाई होगी, मारी-मारी फिरूंगी, इसलिए वह हफ्ता-भर के लिए बेगम जान के पास छोड़ गईं. मैं भी खुश और बेगम जान भी खुश. आखिर को अम्मां की भाभी बनी हुई थीं. सवाल यह उठा कि मैं सोऊं कहां? कुदरती तौर पर बेगम जान के कमरे में. लिहाजा मेरे लिए भी उनके छपरखट से लगाकर छोटी-सी पलंगड़ी डाल दी गई. दस-ग्यारह बजे तक तो बातें करते रहे. मैं और बेगम जान चांस खेलते रहे और फिर मैं सोने के लिए अपने पलंग पर चली गई. और जब मैं सोयी तो रब्बो वैसी ही बैठी उनकी पीठ खुजा रही थी. ‘भंगन कहीं की!’ मैंने सोचा. रात को मेरी एकदम से आंख खुली तो मुझे अजीब तरह का डर लगने लगा. कमरे में घुप अंधेरा. और उस अंधेरे में बेगम जान का लिहाफ ऐसे हिल रहा था, जैसे उसमें हाथी बन्द हो!

”बेगम जान!” मैंने डरी हुई आवाज निकाली. हाथी हिलना बन्द हो गया. लिहाफ नीचे दब गया.
”क्या है? सो जाओ.”
बेगम जान ने कहीं से आवाज दी.
”डर लग रहा है.”
मैंने चूहे की-सी आवाज़ से कहा.
”सो जाओ. डर की क्या बात है? आयतलकुर्सी पढ़ लो.”
”अच्छा.”
मैंने जल्दी-जल्दी आयतलकुर्सी पढ़ी. मगर ‘यालमू मा बीन’ पर हर दफा आकर अटक गई. हालांकि मुझे वक्त पूरी आयत याद है.
”तुम्हारे पास आ जाऊं बेगम जान?”
”नहीं बेटी, सो रहो.” जरा सख्ती से कहा.
और फिर दो आदमियों के घुसुर-फुसुर करने की आवाज सुनायी देने लगी. हाय रे! यह दूसरा कौन? मैं और भी डरी.
”बेगम जान, चोर-वोर तो नहीं?”
”सो जाओ बेटा, कैसा चोर?”
रब्बो की आवाज आई. मैं जल्दी से लिहाफ में मुंह डालकर सो गई.

सुबह मेरे जहन में रात के खौफनाक नज्जारे का खयाल भी न रहा. मैं हमेशा की वहमी हूं. रात को डरना, उठ-उठकर भागना और बड़बड़ाना तो बचपन में रोज ही होता था. सब तो कहते थे, मुझ पर भूतों का साया हो गया है. लिहाज़ा मुझे खयाल भी न रहा. सुबह को लिहाफ बिल्कुल मासूम नजर आ रहा था. मगर दूसरी रात मेरी आँख खुली तो रब्बो और बेगम जान में कुछ झगड़ा बड़ी खामोशी से छपरखट पर ही तय हो रहा था. और मेरी खाक समझ में न आया कि क्या फैसला हुआ? रब्बो हिचकियां लेकर रोयी, फिर बिल्ली की तरह सपड़-सपड़ रकाबी चाटने-जैसी आवाज़ें आने लगीं, ऊंह! मैं तो घबराकर सो गई.

आज रब्बो अपने बेटे से मिलने गई हुई थी. वह बड़ा झगड़ालू था. बहुत कुछ बेगम जान ने किया, उसे दुकान करायी, गांव में लगाया. मगर वह किसी तरह मानता ही नहीं था. नवाब साहब के यहाँ कुछ दिन रहा, खूब जोड़े-बागे भी बने, पर न जाने क्यों ऐसा भागा कि रब्बो से मिलने भी न आता. लिहाजा रब्बो ही अपने किसी रिश्तेदार के यहां उससे मिलने गई थीं. बेगम जान न जाने देतीं, मगर रब्बो भी मजबूर हो गई. सारा दिन बेगम जान परेशान रहीं. उनका जोड़-जोड़ टूटता रहा. किसी का छूना भी उन्हें न भाता था. उन्होंने खाना भी न खाया और सारा दिन उदास पड़ी रहीं.

”मैं खुजा दूं बेगम जान?”
मैंने बड़े शौक से ताश के पत्ते बाँटते हुए कहा. बेगम जान मुझे गौर से देखने लगीं.
”मैं खुजा दूं? सच कहती हूं!”
मैंने ताश रख दिए.
मैं थोड़ी देर तक खुजाती रही और बेगम जान चुपकी लेटी रहीं. दूसरे दिन रब्बो को आना था, मगर वह आज भी गायब थी. बेगम जान का मिज़ाज चिड़चिड़ा होता गया. चाय पी-पीकर उन्होंने सिर में दर्द कर लिया. मैं फिर खुजाने लगी उनकी पीठ-चिकनी मेज़ की तख्ती-जैसी पीठ. मैं हौले-हौले खुजाती रही. उनका काम करके कैसी खुशी होती थी!
”जरा जोर से खुजाओ. बन्द खोल दो.” बेगम जान बोलीं, ”इधर ऐ है, जरा शाने से नीचे हाँ वाह भइ वाह! हा!हा!” वह सुरूर में ठण्डी-ठण्डी सांसें लेकर इत्मीनान ज़ाहिर करने लगीं.
”और इधर…” हालांकि बेगम जान का हाथ खूब जा सकता था, मगर वह मुझसे ही खुजवा रही थीं और मुझे उल्टा फख्र हो रहा था. ”यहां ओई! तुम तो गुदगुदी करती हो वाह!” वह हंसी. मैं बातें भी कर रही थी और खुजा भी रही थी.
”तुम्हें कल बाजार भेजूंगी. क्या लोगी? वही सोती-जागती गुड़िया?”
”नहीं बेगम जान, मैं तो गुड़िया नहीं लेती. क्या बच्चा हूं अब मैं?”
”बच्चा नहीं तो क्या बूढ़ी हो गई?” वह हंसी ”गुड़िया नहीं तो बनवा लेना कपड़े, पहनना खुद. मैं दूंगी तुम्हें बहुत-से कपड़े. सुना?” उन्होंने करवट ली.
”अच्छा.” मैंने जवाब दिया.
”इधर…” उन्होंने मेरा हाथ पकड़कर जहाँ खुजली हो रही थी, रख दिया. जहां उन्हें खुजली मालूम होती, वहां मेरा हाथ रख देतीं. और मैं बेखयाली में, बबुए के ध्यान में डूबी मशीन की तरह खुजाती रही और वह मुतवातिर बातें करती रहीं.
”सुनो तो तुम्हारी फ्राकें कम हो गई हैं. कल दर्जी को दे दूंगी, कि नई-सी लाए. तुम्हारी अम्मां कपड़ा दे गई हैं.”
”वह लाल कपड़े की नहीं बनवाऊंगी. चमारों-जैसा है!” मैं बकवास कर रही थी और हाथ न जाने कहां-से-कहां पहुंचा. बातों-बातों में मुझे मालूम भी न हुआ.
बेगम जान तो चुप लेटी थीं. ”अरे!” मैंने जल्दी से हाथ खींच लिया.
”ओई लड़की! देखकर नहीं खुजाती! मेरी पसलियां नोचे डालती है!”
बेगम जान शरारत से मुस्करायीं और मैं झेंप गई.
”इधर आकर मेरे पास लेट जा.”
”उन्होंने मुझे बाजू पर सिर रखकर लिटा लिया.
”अब है, कितनी सूख रही है. पसलियां निकल रही हैं.” उन्होंने मेरी पसलियां गिनना शुरू कीं.
”ऊं!” मैं भुनभुनायी.
”ओइ! तो क्या मैं खा जाऊँगी? कैसा तंग स्वेटर बना है! गरम बनियान भी नहीं पहना तुमने!”
मैं कुलबुलाने लगी.
”कितनी पसलियां होती हैं?” उन्होंने बात बदली.
”एक तरफ नौ और दूसरी तरफ दस.”
मैंने स्कूल में याद की हुई हाइजिन की मदद ली. वह भी ऊटपटांग.
”हटाओ तो हाथ हां, एक दो तीन…”
मेरा दिल चाहा किसी तरह भागूँ और उन्होंने जोर से भींचा.
”ऊं!” मैं मचल गई.
बेगम जान जोर-जोर से हंसने लगीं.

अब भी जब कभी मैं उनका उस वक्त का चेहरा याद करती हूं, तो दिल घबराने लगता है. उनकी आंखों के पपोटे और वजनी हो गए. ऊपर के होंठ पर सियाही घिरी हुई थी. बावजूद सर्दी के, पसीने की नन्हीं-नन्हीं बूंदें होंठों और नाक पर चमक रहीं थीं. उनके हाथ ठण्डे थे, मगर नरम-नरम जैसे उन पर की खाल उतर गई हो. उन्होंने शाल उतार दी थी और कारगे के महीन कुर्तो में उनका जिस्म आटे की लोई की तरह चमक रहा था. भारी जड़ाऊ सोने के बटन गरेबान के एक तरफ झूल रहे थे. शाम हो गई थी और कमरे में अंधेरा घुप हो रहा था. मुझे एक नामालूम डर से दहशत-सी होने लगी. बेगम जान की गहरी-गहरी आंखें!

मैं रोने लगी दिल में. वह मुझे एक मिट्टी के खिलौने की तरह भींच रही थीं. उनके गरम-गरम जिस्म से मेरा दिल बौलाने लगा. मगर उन पर तो जैसे कोई भूतना सवार था और मेरे दिमाग का यह हाल कि न चीखा जाए और न रो सकूं. थोड़ी देर के बाद वह पस्त होकर निढाल लेट गईं. उनका चेहरा फीका और बदरौनक हो गया और लम्बी-लम्बी सांसें लेने लगीं. मैं समझी कि अब मरीं यह. और वहां से उठकर सरपट भागी बाहर.

शुक्र है कि रब्बो रात को आ गई और मैं डरी हुई जल्दी से लिहाफ ओढ़ सो गई. मगर नींद कहां? चुप घण्टों पड़ी रही. अम्मा किसी तरह आ ही नहीं रही थीं. बेगम जान से मुझे ऐसा डर लगता था कि मैं सारा दिन मामाओं के पास बैठी रहती. मगर उनके कमरे में कदम रखते दम निकलता था. और कहती किससे, और कहती ही क्या, कि बेगम जान से डर लगता है? तो यह बेगम जान मेरे ऊपर जान छिड़कती थीं. आज रब्बो में और बेगम जान में फिर अनबन हो गई. मेरी किस्मत की खराबी कहिए या कुछ और, मुझे उन दोनों की अनबन से डर लगा. क्योंकि फौरन ही बेगम जान को खयाल आया कि मैं बाहर सर्दी में घूम रही हूं और मरूंगी निमोनिया में!
”लड़की क्या मेरी सिर मुंडवाएगी? जो कुछ हो-हवा गया और आफत आएगी.”
उन्होंने मुझे पास बिठा लिया. वह खुद मुँह-हाथ सिलप्ची में धो रही थीं. चाय तिपाई पर रखी थी. ”चाय तो बनाओ. एक प्याली मुझे भी देना.” वह तौलिया से मुंह खुश्क करके बोली, ”मैं ज़रा कपड़े बदल लूं.”

वह कपड़े बदलती रहीं और मैं चाय पीती रही. बेगम जान नाइन से पीठ मलवाते वक्त अगर मुझे किसी काम से बुलाती तो मैं गर्दन मोड़े-मोड़े जाती और वापस भाग आती. अब जो उन्होंने कपड़े बदले तो मेरा दिल उलटने लगा. मुंह मोड़े मैं चाय पीती रही. ”हाय अम्मां!” मेरे दिल ने बेकसी से पुकारा, ”आखिर ऐसा मैं भाइयों से क्या लड़ती हूं जो तुम मेरी मुसीबत…”

अम्मा को हमेशा से मेरा लड़कों के साथ खेलना नापसन्द है. कहो भला लड़के क्या शेर-चीते हैं जो निगल जाएंगे उनकी लाड़ली को? और लड़के भी कौन, खुद भाई और दो-चार सड़े-सड़ाये ज़रा-ज़रा-से उनके दोस्त! मगर नहीं, वह तो औरत जात को सात तालों में रखने की कायल और यहां बेगम जान की वह दहशत, कि दुनिया-भर के गुण्डों से नहीं. बस चलता तो उस वक्त सड़क पर भाग जाती, पर वहां न टिकती. मगर लाचार थी. मजबूरन कलेजे पर पत्थर रखे बैठी रही. कपड़े बदल, सोलह सिंगार हुए, और गरम-गरम खुशबुओं के अतर ने और भी उन्हें अंगार बना दिया. और वह चलीं मुझ पर लाड उतारने.

”घर जाऊंगी.”
मैं उनकी हर राय के जवाब में कहा और रोने लगी. ”मेरे पास तो आओ, मैं तुम्हें बाजार ले चलूंगी, सुनो तो.”
मगर मैं खली की तरह फैल गई. सारे खिलौने, मिठाइयाँ एक तरफ और घर जाने की रट एक तरफ.
”वहां भैया मारेंगे चुड़ैल!” उन्होंने प्यार से मुझे थप्पड़ लगाया.
”पड़े मारे भैया,” मैंने दिल में सोचा और रूठी, अकड़ी बैठी रही.
”कच्ची अमियां खट्टी होती हैं बेगम जान!”
जली-कटी रब्बों ने राय दी. और फिर उसके बाद बेगम जान को दौरा पड़ गया. सोने का हार, जो वह थोड़ी देर पहले मुझे पहना रही थीं, टुकड़े-टुकड़े हो गया. महीन जाली का दुपट्टा तार-तार. और वह मांग, जो मैंने कभी बिगड़ी न देखी थी, झाड़-झंखाड हो गई. ”ओह! ओह! ओह! ओह!” वह झटके ले-लेकर चिल्लाने लगीं. मैं रपटी बाहर.

बड़े जतनों से बेगम जान को होश आया. जब मैं सोने के लिए कमरे में दबे पैर जाकर झांकी तो रब्बो उनकी कमर से लगी जिस्म दबा रही थी. ”जूती उतार दो.” उसने उनकी पसलियां खुजाते हुए कहा और मैं चुहिया की तरह लिहाफ में दुबक गई. सर सर फट खच!

बेगम जान का लिहाफ अंधेरे में फिर हाथी की तरह झूम रहा था. ”अल्लाह! आं!” मैंने मरी हुई आवाज निकाली. लिहाफ में हाथी फुदका और बैठ गया. मैं भी चुप हो गई. हाथी ने फिर लोट मचाई. मेरा रोआं-रोआं कांपा. आज मैंने दिल में ठान लिया कि जरूर हिम्मत करके सिरहाने का लगा हुआ बल्ब जला दूं. हाथी फिर फड़फड़ा रहा था और जैसे उकडूं बैठने की कोशिश कर रहा था. चपड़-चपड़ कुछ खाने की आवाजें आ रही थीं, जैसे कोई मजेदार चटनी चख रहा हो. अब मैं समझी! यह बेगम जान ने आज कुछ नहीं खाया.

और रब्बो मुई तो है सदा की चट्टू! जरूर यह तर माल उड़ा रही है. मैंने नथुने फुलाकर सूं-सूं हवा को सूंघा. मगर सिवाय अतर, सन्दल और हिना की गरम-गरम खुशबू के और कुछ न महसूस हुआ.

लिहाफ फिर उमड़ना शुरू हुआ. मैंने बहुतेरा चाहा कि चुपकी पड़ी रहूं. मगर उस लिहाफ ने तो ऐसी अजीब-अजीब शक्लें बनानी शुरू कीं.. कि मैं लरज गई. मालूम होता था, गों-गों करके कोई बड़ा-सा मेंढक फूल रहा है और अब उछलकर मेरे ऊपर आया!
”आ न अम्मा!” मैं हिम्मत करके गुनगुनायी, मगर वहां कुछ सुनवाई न हुई और लिहाफ मेरे दिमाग में घुसकर फूलना शुरू हुआ. मैंने डरते-डरते पलंग के दूसरी तरफ पैर उतारे और टटोलकर बिजली का बटन दबाया. हाथी ने लिहाफ के नीचे एक कलाबाज़ी लगायी और पिचक गया. कलाबाजी लगाने मे लिहाफ का कोना फुट-भर उठा, अल्लाह! मैं गड़ाप से अपने बिछौने में!!!

यह भी पढ़ें – इस्मत चुग़ताई : साहित्य का वह बेबाक चेहरा जिसे कोई लिहाफ़ छिपा न सका!


यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ बांटना चाहते हो तो हमें hindi@thebetterindia.com पर लिखे, या Facebook और Twitter पर संपर्क करे। आप हमें किसी भी प्रेरणात्मक ख़बर का वीडियो 7337854222 पर भेज सकते हैं।

We at The Better India want to showcase everything that is working in this country. By using the power of constructive journalism, we want to change India – one story at a time. If you read us, like us and want this positive movement to grow, then do consider supporting us via the following buttons:

X