साल 2018 में केरल सरकार ने कटहल को अपना ‘राजकीय फल’ घोषित किया था। कटहल को मलयालम में ‘प्लावु’ कहते हैं। पोषण से भरपूर कटहल को फल और सब्ज़ी, दोनों रूप में उपयोग कर सकते हैं। साथ ही, इसे प्रोसेस करके इससे अलग-अलग उत्पाद भी बनाये जाते हैं।
केरल में आपको हर एक घर में कटहल का पेड़ दिख जाएगा। लेकिन गुणों से भरपूर इस फल के प्रति लोगों के रवैये के चलते आज इसकी बहुत-सी किस्में खो चुकी हैं। इन खोई हुई किस्मों को फिर से उगाने और सहेजने का प्रयास कर रहे हैं त्रिशुर के रहने वाले 55 वर्षीय केआर जयन, जिन्हें ‘प्लावु जयन’ के नाम से भी जाना जाता है।
पिछले कई सालों से कटहल की प्रजातियों को सहेज रहे जयन ने द बेटर इंडिया को बताया कि कटहल के साथ उनकी कहानी उनके बचपन से शुरू होती है। उनके घर में कटहल के पेड़ हुआ करते थे और उनका वक़्त उन्हीं पेड़ों पर खेलते हुए बीता है।

जयन अपने बचपन के दिनों को याद कर बताते हैं, “स्कूल के एक कार्यक्रम में कटहल लेकर गया था। मुझे याद है कि दोस्तों ने मेरा खूब मजाक उड़ाया था और तभी से मुझे ‘प्लावु’ जयन कहकर बुलाने लगे थे। सच कहूं तो यह नाम मेरे दिल में बस गया था।”
गाँव-गाँव घुमकर सहेजी किस्में:
साल 1995 में जयन नौकरी के लिए दुबई भी गए। दुबई में उन्हें किसी बात की कमी खली तो वह थे कटहल के पेड़। साल 2006 में, वह अपने वतन, अपने घर लौट आए और यहाँ आकर उन्होंने कटहल के पेड़ लगाना शुरू किया। उनकी दिलचस्पी इस पेड़ में इस कदर थी कि उन्होंने इस पर रिसर्च करना शुरू किया।
“मैं गाँव-गाँव गया और हर एक गाँव में कटहल के पेड़ों को समझने की कोशिश की। केरल के गांवों में आपको अलग-अलग किस्म के कटहल के पेड़ मिलेंगे। लोगों को इन किस्मों के नाम नहीं पता, उनके लिए तो कोई मोटा, कोई छोटा और कोई गोल कटहल है। लेकिन इस बात में दिलचस्पी किसी को नहीं कि अलग-अलग मिट्टी में कटहल की अलग-अलग किस्में होती हैं। ये सभी किस्में हमारी देशी और पारंपरिक किस्में हैं, जिन्हें सहेजना हमारी ज़िम्मेदारी है,” उन्होंने कहा।
जयन के मुताबिक उन्होंने अब तक 20 हज़ार से भी ज्यादा कटहल के पेड़ लगाए हैं। दिलचस्प बात यह है कि यह पेड़ एक ही किस्म के नहीं हैं बल्कि 44 अलग-अलग किस्मों के हैं। बरसों की मेहनत से उन्होंने इन किस्मों को सहेजा है और इन्हें जगह-जगह उगाने के प्रयासों में लगे हैं। इन किस्मों में, रुद्राक्षी, बलून वरिक्का, कशुमंगा चक्का, पदावालम वरिक्का, वाकथानाम वरिक्का, फूटबॉल वरिक्का जैसे किस्में शामिल हैं।

वह आगे कहते हैं कि बडिंग या फिर ग्राफ्टिंग की बजाय, वह बीज पर आधारित खेती करने में विश्वास रखते हैं। वह पहले मिट्टी में बीज लगाते हैं और फिर इसकी पूरी देखभाल करते हैं। लगभग 5 साल में कटहल का पेड़ फल देने लगता है और इसे किसी तरह की देख-रेख की आवश्यकता नहीं होती। बीज से पेड़ बनने वाले कटहल की उम्र लगभग 150 साल होती है जबकि दूसरे तरीकों से लगाए गए कटहल इतना नहीं जी पाते हैं।
जयन, कटहल के बीज खुद तैयार करते हैं। अपने इतने सालों के अनुभव से उन्होंने फलों में से उन बीजों को निकालना सीखा है, जिनके सभी गुण अपने ‘मदरप्लांट’ से मिलते हैं।
खुद के पास नहीं है ज़मीन, फिर भी बना रहे ‘कटहल गाँव’:

उन्होंने आज तक जहां भी कटहल के पेड़ लगाए हैं, उनमें से कोई भी ज़मीन उनकी अपनी नहीं। अपनी ज़मीन और अपने पेड़ों के नाम पर उनके घर में सिर्फ 12 कटहल हैं। वह कहते हैं कि उनके पास अपनी कोई पुश्तैनी ज़मीन नहीं है, जहां वह कटहल का फार्म तैयार कर पाएं। लेकिन ज़मीन न होने का मतलब यह नहीं कि वह पेड़ नहीं लगा सकते।
पौधरोपण की उनकी शुरुआत, अपने गाँव के बाहर सड़कों के किनारे बीज लगाने से हुई। पहले वह बीज लगाकर आते और फिर हर दिन उनमें जाकर पानी देते। यह काम हमें और आपको भले ही थकान भरा और बेमतलब का लगे लेकिन जयन के लिए आत्म-संतुष्टि का ज़रिया है। उन्हें यह सब करता हुआ देखकर लोग अक्सर पागल कहते थे। लेकिन जयन को इस सबसे कोई फर्क नहीं पड़ता था। धीरे-धीरे उन्होंने स्कूल-कॉलेज में पेड़ लगाना शुरू किया और वहां भी कटहल के बागान खड़े कर दिए।

जयन के लगाए हुए बीज आज बड़े-फलदार वृक्ष बन चुके हैं। उनके कार्यों के देखकर उन्हें राज्य सरकार और कृषि विभाग द्वारा ढ़ेरों सम्मानों से नवाज़ा गया है। उन्हें कृषि के सर्वोच्च सम्मान- जीनोम सेवियर से भी सम्मानित किया गया है। सरकार द्वारा जब जयन को पुरस्कार मिले तब लोगों को उनके काम की महत्वता समझ में आई। अब बहुत से विदेशों में रहने वाले मलयाली लोग उन्हें अपनी ज़मीन कटहल की प्रजातियाँ लगाने के लिए दे रहे हैं। इन ज़मीनों पर उन्होंने ‘कटहल गाँव’ बनाने की पहल शुरू की है।
“मैंने अब तक चित्तूर के सरकारी कॉलेज में, त्रिशुर सरकारी मेडिकल कॉलेज में और शोरनुर रेलवे स्टेशन के सामने खाली पड़ी ज़मीन पर ‘प्लावु ग्राम’ यानी कि कटहल गाँव विकसित किए हैं। इन सभी जगहों पर अलग-अलग प्रजातियों के 500 से लेकर हज़ार कटहल के पेड़ लगाए गए हैं,” उन्होंने बताया।

अब वह मुरियाद गाँव के पास वेलुकारा में चौथा ‘प्लावु ग्राम’ उगा रहे हैं। यहाँ पर उन्होंने 500 बीज लगाए हैं, जो आने वाले 4-5 सालों में तैयार हो जाएगा। केरल के अलावा, उन्होंने महाराष्ट्र के वर्धा में सेवाग्राम आश्रम में भी कटहल के पेड़ लगाए हैं। पेड़ लगाने के साथ-साथ उन्होंने कटहल पर अपनी रिसर्च को किताब का रूप भी दिया है। उन्होंने ‘प्लावु,’ ‘प्लावु और मैं,’ जैसे शीर्षकों से अब तक 5 किताबें लिखी हैं। उनकी किताबों को स्कूल में बच्चों को पढ़ाया जा रहा है ताकि उन्हें कटहल के महत्व के बारे में समझाया जा सके।
कटहल फल और सब्ज़ी के तौर पर इस्तेमाल होता है और इसके अलावा, कुछ किस्में औषधीय पौधों की तरह भी उपयोग में आती हैं। कटहल की लकड़ी का उपयोग नाव और घर बनाने के लिए किया जा सकता है। इसके पत्ते, आपके पशुओं के लिए चारा बन सकते हैं। इसके अलावा, आप इसके बीजों को भी भुनकर खा सकते हैं। कई जगह पर लोग कटहल के जूस से लेकर बर्फी जैसे उत्पाद भी बना रहे हैं। इतनी खूबियों वाला कटहल ग्रामीण केरल की अर्थव्यवस्था को संभाल सकता है, बस ज़रूरत है तो इसे सही तरीकों से उगाने और मार्किट करने की।

उनके इन्हीं प्रयासों से प्रेरित होकर केरल कृषि विभाग ने कटहल को राजकीय फल बनाया है और अब इसके संरक्षण पर ठोस कदम उठा रह है।
जयन अंत में सिर्फ इतना कहते हैं, “मेरा उद्देश्य है कि मैं केरल में लगभग 1 लाख कटहल के पेड़ लगाऊं और साथ ही, और प्रजातियों को सहेज सकूं क्योंकि अभी तक मैं आधी किस्मों को भी नहीं सहेज पाया हूँ।”
अगर आप जयन से संपर्क करना चाहते हैं तो उन्हें 9847763813 पर मैसेज कर सकते हैं!
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