1978 में जब 16 साल के एक युवा ने पहली बार हल चलाया, तो उसने सोचा भी नहीं था कि वह कभी ऐसे मुक़ाम पर पहुँच जाएगा, कि देश के प्रधानमंत्री उसका ज़िक्र उदाहरण के तौर पर करेंगे। यह कहानी है हरियाणा के सोनीपत जिले के रहनेवाले कंवल सिंह की, जिनकी मेहनत और लगन का नतीजा है कि वह बेबी कॉर्न की खेती करनेवाले एक साधारण किसान से पद्मश्री की उपाधि तक पहुँचे।
अटेरना गांव के रहने वाले कंवल सिंह चौहान आज किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। पूरा हिंदुस्तान उन्हें एक सक्षम और प्रगतिशील किसान के रूप में जानता है। कंवल सिंह चौहान ने बताया कि 1998 में कुछ लोग उनके पास बेबी कॉर्न की खेती के लिए ज़मीन लेने आए थे जिसके बाद उन्होंने खुद भी बेबी कॉर्न की खेती शुरू की।
उस दौरान वह धान की खेती से हुए नुक़सान से जूझ रहे थे और उसी से निकलने के लिए उन्होंने बेबी कॉर्न को चुना। कंवल सिंह बताते हैं कि शुरुआत में उन्हें देखकर उनके आस-पास के किसानों ने भी इसे अपने खेतों में बोया। ऐसे करते-करते आज 15 से 20 गाँवों के बीच बेबी कॉर्न की खेती की जाती है।
किसानी से लेकर पद्मश्री पुरस्कार तक का सफ़र

कंवल सिंह चौहान बताते हैं, “जब पहली बार बेबी कॉर्न की खेती हुई, तो उसे बेचने के लिए मैं दिल्ली के एनआईए मार्केट, खान मार्केट, सरोजनी मार्केट और फाइव स्टार होटलों में पहुँचा। उपज ज़्यादा होने की वजह से मार्केट में माल कम बिकने लगा था। उसके बाद मैंने आज़ादपुर मार्केट में इसको बेचना शुरू कर दिया।”
1999 में एक समय ऐसा आया, जब कोई बेबी कॉर्न ख़रीदना नहीं चाहता था। तब कंवल सिंह ने अपनी खुद की इंडस्ट्री बनाई। 2009 में उन्होंने पहली प्रॉसेसिंग इंडस्ट्रीज़ यूनिट तैयार की। इसके बाद दूसरी यूनिट 2012 में, तीसरी यूनिट 2016 में और चौथी यूनिट 2019 में लगाने का काम किया। इन सभी यूनिट्स में बेबीकॉर्न प्रॉसेसिंग का काम किया जाता है। इनमें स्वीट कॉर्न, मशरूम, टमाटर और मक्का चाप भी प्रोसेस किए जाते हैं।
साल 1998 में जब बेबीकॉर्न की खेती शुरू की थी, तब कंवल सिंह काम करने वाले अकेले किसान थे, लेकिन आज लगभग 400 मज़दूर उनके खेतों में काम करते हैं। इनमें ज़्यादातर महिलाएं और कुछ पुरुष भी हैं। वह आज हज़ारों लोगों को रोज़गार दे रहे हैं।
सेहत के लिए बेहद फ़ायदेमंद

आज-कल देश की शहरी आबादी में सेहतमंद और पौष्टिक खाने की खूब माँग है। इसलिए बेबी कॉर्न की खपत भी बढ़ रही है। इसके अलावा, बेबी कॉर्न से कई खाने की चीज़ें बनाई जा सकती हैं, इसलिए भी इसकी खेती से काफ़ी उम्मीदें रखी जा रही हैं। स्वादिष्ट और पौष्टिक आहार होने की वजह से बेबीकॉर्न को सेहत के लिए फ़ायदेमंद और सुरक्षित पाया गया है। इसका इस्तेमाल सलाद, सूप, सब्जी, अचार, कैंडी, पकौड़ा, कोफ्ता, टिक्की, बर्फी, लड्डू, हलवा, खीर वग़ैरह में किया जाता है।
बेबी कॉर्न, मक्के के अविकसित या अनफर्टीलाइज़्ड पौधे से मिलता है। इसे मक्के की फ़सल में रेशमी बाल यानी ‘सिल्क’ के उगने के 2-3 दिनों के अंदर ही तोड़ लिया जाता है, इसलिए यह काफ़ी मुलायम होता है। इसको तोड़ने में अगर देरी हो जाए तो वक़्त के साथ इसकी गुणवत्ता भी कम होने लगती है।
बेबीकॉर्न कॉलेस्ट्रॉल रहित और बेहद कम कैलोरी वाला आहार है, इसीलिए यह दिल के मरीज़ों के लिए काफ़ी अच्छा माना जाता है। इसमें भरपूर फॉस्फोरस पाया जाता है और कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, कैल्शियम, आयरन और विटामिन भी खूब होता है। यह आसानी से पचने वाला चीज़ है।
कैसे करें बेबी कॉर्न की खेती?

जर्मी दोमट मिट्टी, बेबी कॉर्न की खेती के लिए सबसे अच्छी होती है। इसकी बोआई के लिए सबसे पहले खेत को तैयार करना होता है। इसके लिए पहली जोताई मिट्टी पलटने वाले हल से, और बाक़ी जोताई देसी हल या रोटावेटर या कल्टीवेटर से की जाती है।
बोआई के समय खेत में पर्याप्त नमी के साथ-साथ पलेवा करके ही इसे लगाना चाहिए। बेबीकॉर्न की खेती के लिए कम समय में पकने वाली और मध्यम ऊँचाई वाली एकल क्रॉस संकर किस्में ज़्यादा बेहतर होती हैं। क्योंकि रबी की फ़सल में इनमें सिल्क आने की अवधि 70 से 75 दिन की होती है, तो ख़रीफ़ में इसकी मियाद 45 से 50 दिन की होती है। इस तरह से खेती करने पर दो से ढाई महीने के बीच उपज मिलने लगती है।
उत्तर भारत में इसे फरवरी से नवम्बर के बीच किसी भी वक़्त बोया जा सकता है। इसे मेड़ों पर बोना फ़ायदेमंद रहता है। इसके लिए एक मेड़ से दूसरे मेड़ की दूरी क़रीब 2 फ़ीट और एक पौधे से दूसरे पौधे के बीच की दूरी लगभग 6 इंच रखनी चाहिए। बेबीकॉर्न की सबसे अच्छी फ़सल के लिए, बीजों के आकार के हिसाब से ही बीज दर रखा जाता है, लेकिन मोटे तौर पर 22-25 किग्रा प्रति हेक्टेयर का बीज दर सही होता है।
कब दें खाद और कैसे करें फसल की सुरक्षा?
बेबीकॉर्न की बढ़िया उपज पाने के लिए बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के कृषि विशेषज्ञों की ओर से खाद के इस्तेमाल को उपयोगी और ज़रूरी बताया गया है। इसके लिए बोआई के समय फॉस्फोरस, पोटाश, ज़िंक सल्फेट और नाइट्रोजन का एक तिहाई इस्तेमाल करना चाहिए। बाक़ी बचे दो तिहाई भाग में से एक तिहाई का इस्तेमाल बोआई के 25 दिनों के बाद और बचे एक तिहाई हिस्से को 40 दिनों की फ़सल होने पर डालना चाहिए।
अगर इसकी रबी मौसम वाली फ़सल हो, तो खाद को तीन हिस्से की जगह चार भाग में करके डालना चाहिए। इस चौथाई मात्रा में से पहला हिस्सा बोआई के समय, दूसरा बोआई के 25 दिन बाद, तीसरा हिस्सा 60 से 80 दिनों के बीच और चौथा 80 से 110 दिनों पर देना चाहिए।
साथ ही बोआई के 15-20 दिनों बाद पहली बार, और 30-35 दिनों बाद दूसरी बार निराई-गुड़ाई ज़रूर करनी चाहिए। इससे जड़ों को हवा के साथ-साथ, दूर तक फैलकर पौधों के लिए पोषक तत्व जुटाने में मदद मिलती है। खरपतवार नियंत्रण के लिए सीमाजीन की 105 किग्रा प्रति हेक्टेयर को 500-600 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए।
यह छिड़काव खेत में बेबी कॉर्न के बीजों के अंकुरित होने से पहले करना चाहिए। इससे जहाँ खरपतवार नहीं जमते, वहीं फ़सल तेज़ी से बढ़ती है। फ़सल की सुरक्षा के लिहाज़ से इसकी खेती में किसी ख़ास चुनौती का सामना नहीं करना पड़ता, क्योंकि इसमें आसानी से किसी रोग या कीट का हमला नहीं होता है। पत्तियों में लिपटी रहने की वजह से बेबीकॉर्न की फ़सल काफ़ी सुरक्षित रहती है।
बेबी कॉर्न की तुड़ाई, पैदावार और बिक्री

उस वक़्त बेबी कॉर्न की गुल्ली को ज़रूर तोड़ लेना चाहिए, जब इसके सिल्क की लंबाई 3-4 सेमी हो जाए। गुल्ली की तुड़ाई के वक़्त उसके ऊपर की पत्तियों को हटाना नहीं चाहिए, वरना मुलायम बेबी कॉर्न बहुत जल्दी ख़राब हो जाएंगे। रबी के मौसम में एक से दो दिन के बीच गुल्ली की तुड़ाई करनी चाहिए।
एकल क्रॉस संकर मक्का में 3 से 4 बार तुड़ाई करना ज़रूरी है। अभी तक की प्रक्रिया से छिलकेदार बेबी कॉर्न मिलेगा। इसके बाद इसका छिलका उतारने और उन्हें प्लास्टिक की टोकरी, थैले या कंटेनर में रखने का काम अलग से करना चाहिए। फिर उपज को जल्दी से जल्दी मंडी ले जाकर बेच देना चाहिए।
इस तरह खेती करने से प्रति हेक्टेयर 15 से 20 क्विंटल बेबी कॉर्न की छिल्का-रहित उपज मिलती है। इसके अलावा, 200 से 250 क्विंटल प्रति हेक्टेयर के हिसाब से पशुओं के लिए हरा चारा भी मिल जाता है।
संपादन – भावना श्रीवास्तव
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