नेली सेनगुप्ता : एक ब्रिटिश महिला, जिसने आज़ादी की लड़ाई के दौरान घर-घर जाकर बेची थी खादी!

नेली सेनगुप्ता उन प्रमुख ब्रिटिश महिलाओं में से एक थीं, जिन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए लड़ाई लड़ी। नेली का जन्म इंग्लैंड में हुआ और वे वहीं पली-बढ़ी थीं। पर उन्होंने शादी की एक भारतीय वकील, जतिंद्र मोहन सेनगुप्ता से और हमेशा के लिए भारत की हो गयीं।

नेली सेनगुप्ता उन प्रमुख़ ब्रिटिश महिलाओं में से एक थीं, जिन्होंने विदेशी होते हुए भी भारत को आज़ाद कराने के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। नेली का जन्म इंग्लैंड में हुआ और वे वहीं पली-बढ़ी थीं। पर उन्होंने एक भारतीय वकील से शादी की, और फिर हमेशा के लिए भारत की हो गयीं।

भारत के स्वतंत्रता संग्राम में उनके महान योगदान के बावजूद, उनका नाम इतिहास के पन्नों से आज ओझल है। आज द बेटर इंडिया के साथ पढ़िये इस ब्रिटिश महिला की कहानी; जिसने आजीवन भारत की आज़ादी की लड़ाई लड़ी!

नेली सेनगुप्ता का जन्म 12 जनवरी, 1886 को कैंब्रिज में हुआ। उनका वास्तविक नाम ‘एडिथ एलेन ग्रे’ था। कॉलेज के दिनों में एडिथ की मुलाक़ात इंग्लैंड में कानून की पढ़ाई कर रहे एक बंगाली युवक, जतिंद्र मोहन सेनगुप्ता से हुई। जतिंद्र, एक भारतीय वकील और बंगाल विधान परिषद के सदस्य, जात्रा मोहन सेनगुप्ता के बेटे थे और मूलतः चटगाँव (अब बांग्लादेश में है) से ताल्लुक रखते थे।

नेली सेनगुप्ता

एडिथ और जतिंद्र, दोनों ही अलग-अलग परिवेश से थे। लेकिन एडिथ को विश्वास था कि वे इस रिश्ते को निभा सकती हैं। इसलिए साल 1909 में उन्होंने अपने माता-पिता के खिलाफ़ जाकर जतिंद्र सेनगुप्ता से शादी कर, वे बन गयीं नेली सेनगुप्ता। शादी के बाद वे कोलकाता आयीं और यहाँ जतिंद्र के संयुक्त परिवार में रहीं। नेली और जतिंद्र को दो बेटे भी हुए- सिशिर और अनिल।

विदेश में कानून की पढ़ाई करने के बाद, जतिंद्र एक सफ़ल वकील बन गए। उन्होंने साल 1911 में फ़रीदपुर में बंगाल प्रांतीय सम्मेलन के प्रतिनिधि के रूप में कार्य किया।

जब गाँधी जी ने साल 1921 में असहयोग आंदोलन शुरू किया, तो इसकी छाप नेली और जतिंद्र के जीवन पर भी पड़ी। इस आंदोलन में स्वतंत्रता सेनानियों के साथ आम लोगों का सहयोग भी बढ़ने लगा तो गाँधी जी ने जतिंद्र को भी नौकरी छोड़कर आंदोलन में शामिल होने के लिए कहा।

गाँधी जी के आह्वान पर जतिंद्र ने बिना एक पल भी सोचे अपनी अच्छी-ख़ासी वकालत की नौकरी छोड़ आंदोलन की राह पकड़ ली। जतिंद्र के साथ नेली ने भी स्वतंत्रता आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। उन्होंने न सिर्फ़ अपने पति का साथ दिया बल्कि वे स्वयं एक सच्ची स्वतंत्रता सेनानी बनकर उभरीं।

जतिंद्र, गाँधी जी के करीबी सहयोगियों में से एक थे और अंग्रेज़ी सरकार की नज़र उन पर हमेशा रहती थी। इसलिए जब जतिंद्र ने असम-बंगाल रेलवे कर्मचारियों की भूख-हड़ताल का नेतृत्व किया, तो ब्रिटिश सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया।

अपने पति की गिरफ्तारी के बाद नेली ने खुद मोर्चा संभाला और जिला अधिकारियों के आदेश के विरोध में कई सभाएँ और बैठकें आयोजित की। इसके साथ ही ब्रिटिश सरकार के तमाम अत्याचारों के बावजूद, वे खादी बेचने के लिए घर-घर जाती रहीं। ये नेली और उनके जैसी अनगिनत साहसी महिलाओं की ही मेहनत थी कि इस आंदोलन ने ब्रिटिश सरकार को हिला कर रख दिया।

साल 1931 में नेली को दिल्ली विधानसभा में गैर-कानूनी तरीके से बोलने के लिए चार महीने की जेल हुई। इस दौरान उन्हें ब्रिटिश जेलों में भारतीय लोगों के साथ हो रही बदसुलूकी के बारे में पता चला। इससे उनके मन में विद्रोह की भावना और भी प्रबल हो गयी।

जतिंद्र को रांची के जेल में रखा गया था, जहाँ साल 1933 में उनकी मृत्यु हो गयी। जतिंद्र की मृत्यु के बाद बहुत से लोगों को लगा कि यह नेली के संग्राम का भी अंत है। क्योंकि शायद अब उनके लिए इस स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने की कोई वजह नहीं बची।

जतिंद्र मोहन सेनगुप्ता की प्रतिमा (विकिपीडिया)

पर लोग इस बात से अनजान थे, कि नेली सिर्फ़ अपने पति की वजह से इस संग्राम का हिस्सा नहीं थीं। वे ग़लत के खिलाफ़ थीं; उन्हें पता था कि भारत पर ब्रिटिश सरकार के अत्याचार और जुल्मों का अंत होना ज़रूरी हैं। और इसलिए, जतिंद्र की मौत के बाद नेली ने भारत की स्वतंत्रता को ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया।

नमक सत्याग्रह के दौरान कांग्रेस पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं को गिरफ्तार किए जाने पर नेली को कांग्रेस का अध्यक्ष नियुक्त किया गया था। वह इस पद पर चुनी जाने वाली तीसरी महिला थीं। उन्होंने साल 1940 में और 1946 में बंगाल विधान सभा के लिए भी अपनी सेवाएँ दीं।

साल 1947 में भारत को आज़ादी मिली और साथ ही, बँटवारा भी। विभाजन के समय, नेली ने अपने पति के पैतृक गाँव, चटगाँव (तब पूर्वी पाकिस्तान) में ही रहने का फ़ैसला किया।

फोटो साभार: विकीमीडिया कॉमन्स

और वहाँ भी; एक सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता और अल्पसंख्यक बोर्ड के सदस्य के रूप में, उन्होंने अल्पसंख्यकों के लिए काम करना जारी रखा।

स्वतंत्रता के लगभग दो दशक बाद, साल 1972 में नेली भारत आयीं। एक दुर्घटना के दौरान उनके कुल्हे की हड्डी टूट गयी थी। तब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने उनकी भारत लाकर इलाज करवाने की व्यवस्था करवाई। उस समय भी नेली का देश में बहुत ही भव्य स्वागत हुआ।

साल 1973 में भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्म विभूषण’ से सम्मानित किया और उसी साल 23 अक्टूबर को उन्होंने अपनी आख़िरी सांस ली।

नेली की कहानी हमें उन सभी महिलाओं की याद दिलाती है, जिन्होंने भारत की आज़ादी के लिए खुद को कुर्बान किया। इस #अनमोल_इंडियन को शत-शत नमन!

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मूल लेख: जोविटा अरान्हा

(संपादन – मानबी कटोच)

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