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मुफ्त में सिखाते हैं बांस के कूड़ेदान और बर्तन बनाना, ताकि प्रकृति रहे सुरक्षित

Assam Man makes bamboo dustbin

दीपेन का मानना है कि यदि लोग यह काम सीखते हैं और शिल्प को आगे ले जाते हैं तो वही सबसे अच्छा शुल्क होगा। वह अपने छात्रों को हर दिन मुफ्त भोजन भी प्रदान करते है।

न्य जीवन, चाय के बगान और विभिन्न संस्कृतियों से परिपक्व जनजातियों के लिए जाना जाने वाला असम सच में अद्भुत है। असम में गुज़ारे 20 दिनों में मैंने गुवाहाटी समेत हर छोटे-बड़े शहर और गांवों में आमतौर पर इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक के कूड़ेदानों के बजाय एक अनोखे, पारंपरिक तरह के कूड़ेदान देखे। वह थे बांस के कूड़ेदान।

बांस का प्रयोग समस्त पूर्वोत्तर भारत में काफी देखने को मिलता है। फिर चाहे वो नागालैंड हो, मेघालय या असम। यदि हम मुख्य शहरों को हटा दें तो अभी भी कई घरों में इस्तेमाल होने वाले बक्से, टोकरियां, सूप, बर्तन, मछली पकड़ने के उपकरण बांस के बने दिखाई देंगे। यहां तक की कई जनजातीयों के घर मुख्यतः बांस के ही बने होते हैं। उनमे से एक है, मिशिंग जनजातीय समुदाय।

पर्यावरण के प्रति जागरूक प्रदेश असम

Assam Man makes bamboo dustbin
Bamboo Dustbins (Assam Man Makes Bamboo Dustbin)

असम में लोग पर्यावरण के प्रति जागरूक और सजग तो दिखे ही पर अंदाज़ा नहीं था कि यह भी ऐसे क्रिएटिव अंदाज़ में संभव हो सकता है। लखनऊ से गुवाहाटी पहुंचने पर जैसे ही मैं अपने बगपैकेर हॉस्टल पहुंची, रिसेप्शन के बाहर एक बांस की टोकरीनुमा चीज़ दिखाई दी। एक खम्भे के सहारे लटकी हुई। पूछने पर मालूम हुआ कि यहां का पारम्परिक कूड़ादान है। यहां इसे ही इस्तेमाल में लाया जाता है। स्थानीय कारीगर बनाते हैं जो शहर के बाहर रहते हैं।

उसी रात मैं मजूली के लिए निकली। गुवाहाटी से 350 किलोमीटर दूर स्थित है मजूली, जो अपने सत्रों और मुखौटों के लिए जाना जाता है। 2016 में मजूली भारत में जिला बनने वाला पहला द्वीप बना था। ब्रह्मपुत्र नदी के द्वीप पर बसे होने के कारण यहाँ फ़ेरी से जाना पड़ता है। पहले गुवाहाटी से जोरहाट तक करीब 10 घंटे की रेल या बस यात्रा फ़िर जोरहाट से निमाती घाट तक टैक्सी। तब जाकर मिलती है फ़ेरी जो घंटे भर में मजूली पहुंचाती है।

हर जगह कलात्मक कूड़ेदान

Assam Man makes bamboo dustbin
Bamboo bin at MajuliChauraha (Assam Man Makes Bamboo Dustbin)

मजूली घाट से लेकर सरकारी दफ़्तरों और मुख्य चौराहे पर भी ये कलात्मक कूड़ेदान दिखाई पड़े। हाँ, कुछ जगहों पर इनके बांस की बुनाई में फ़र्क ज़रूर नज़र आता है।

विश्व के सबसे बड़े आवासीय नदी वाले द्वीप, मजूली में रहने वाले दीपेन पीढ़ियों से ऐसे कूड़ेदान बनाते आए हैं। 20 वीं शताब्दी की शुरुआत में 880 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र का वाला मजुली अब मिट्टी के क्षरण/ कटाव के कारण 352 वर्ग किलोमीटर में ही सिमट के रह गया है। दीपेन मजगाँव में अपने माता-पिता, पत्नी और दो बेटियों के साथ रहते हैं और बांस की वस्तुएं बनाते हैं।

1999 में स्कूल छोड़ने के बाद ही दीपेन कलिता ने बांस से अपने पहले कुछ कूड़ेदान बनाए। बाज़ार, दफ्तरों आदि में इस्तेमाल होते तो दीपेन ने इन्हें हमेशा देखा था मगर जब दीपेन ने खुद घर के लिए बनाया तो उन्हें बांस का काम करना पसंद आने लगा।आज दीपेन पारम्परिक कूड़ेदान तो बनाते ही हैं पर उसके अलावा बांस की कई और उपयोगी वस्तुएं बनाने में भी कुशल हैं।

दीपेन मजुली के एक छोटे से गाँव माजगाँव में रहते हैं जो कमलाबाड़ी ब्लॉक में आता है। मजूली के पारंपरिक लकड़ी और बांस के घर में अपने माता-पिता और पत्नी के साथ रहने वाले दीपेन चाहते हैं कि उनका हस्तशिल्प उनके गांव के अन्य युवाओं तक पहुंचे और इसलिए उन्हें मुफ्त में पढ़ाने और जिम्मेदार पर्यटन में योगदान करने की दिशा में एक कदम आगे बढ़ाया है।

Dipen Kalita at his workshop
Dipen Kalita at his workshop (Assam Man makes bamboo dustbin)

दीपेन कलिता बांस की पानी की बोतलें, फ्लास्क और पारंपरिक पोशाक बुनाई मशीन भी बनाते हैं। दीपेन की बनायीं बांस की पानी की बोतलें भी ख़ास हैं। उनका मानना है कि जैसे प्लास्टिक के बजाय अभी भी पूरे असम में यह बांस का कूड़ेदान इस्तेमाल होता है, वैसे ही लोग लोग प्लास्टिक के बोतलों की जगह यदि बांस के बोतल इस्तेमाल करें तो स्वास्थ और प्रकृति दोनों के लिए बेहतर होगा।

दीपेन के बनाये हुए बांस के सामान गुवाहाटी, डिब्रूगढ़, बेंगलुरु, हैदराबाद, कोलकाता, दिल्ली और वाराणसी से माजुली आने वाले लोग खरीदते हैं। हालांकि दीपेन की कोई दुकान नहीं है तो व्यापार उन्हीं लोगों तक सीमित है जो घर तक पहुंच पाते हैं।

वर्तमान में दीपेन अपने गांव के सात युवकों को प्रशिक्षण दे रहे हैं और उनसे कुछ शुल्क भी नहीं लेते है। दीपेन का मानना है कि यदि लोग यह काम सीखते हैं और शिल्प को आगे ले जाते हैं तो वही सबसे अच्छा शुल्क होगा।

“मैंने इन लोगों को पिछले दो साल से यह काम सीखा रहा हूँ। मेरे लिए उन्हें यहां लाना और काम सीखाना आसान नहीं था। लेकिन शुक्र है कि ये सात अब आ रहे हैं। एक अस्वस्थ है, इसलिए वह आज नहीं आ सका,” दीपेन बताते हैं। दीपेन इन सभी प्रशिक्षुओं को हर दिन मुफ्त भोजन भी प्रदान करते है।

विपुल दास, उद्धव दास, माधब कलिता और दिव्यज्योति दास उनके नियमित प्रशिक्षु हैं जबकि बाकी लोग सप्ताह में दो बार आते हैं। दीपेन का कहना है कि उनके पास मदद करने वाले लोगों की कमी है।

शिवसागर इलाके के असिस्टेंट टूरिज़्म इन्फॉर्मेशन ऑफिसर माधव दास का कहना है कि इस तरह के सामान की उपयोगिता बढ़े इसके लिए काम करने की जरूरत है।

वे बताते हैं, ” मैं जन्म से ही असम में रहा हूँ और घर-बाहर हमेशा ऐसे ही ईको-फ्रेंडली कूड़ेदान देखे हैं। हम कोशिश कर रहे हैं कि कैसे और भी तरीकों से हम ऐसे सामानों का उपयोग बढ़ा सकें और स्थानीय लोगों को और मौका दे सकें।”

(दीपेन से इस नंबर पर बात की जा सकती है- 9101997849)


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