Placeholder canvas

चित्रकूट के ये कारीगर मुफ्त में बच्चों को सीखा रहें हैं लकड़ी से खिलौने बनाना

“हमें लगा हमारी पीढ़ी के जाने के बाद कोई जानेगा ही नहीं इन खिलौनों के बारे में। हम चाहे जितना भी कम कमा रहे हैं, यह कला है हमारी, ऐसे कैसे ख़त्म होने दें।"

दो राज्यों की सीमा पर बसा जिला चित्रकूट, प्रयागराज (उत्तर प्रदेश) से 130 किलोमीटर और सतना (मध्य प्रदेश) से 90 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। प्रान्त भर से यात्री यहाँ तीर्थयात्रा के लिए आते हैं और मन्दाकिनी नदी में स्नान-ध्यान करते हैं। इस शहर को एक और चीज खास बनाती है, और वो है – हाथ से बने हुए लकड़ी के रंग-बिरंगे खिलौने।

बढ़ती मंहगाई और पलायन से 80% कारीगरों ने यह काम छोड़ दिया है लेकिन चित्रकूट में अभी भी ऐसे कुछ कारीगर हैं जो अंतिम समय तक अपनी हस्तकला को छोड़ना नहीं चाहते। एक बार में ही सालभर के लिए लकड़ी खरीद कर पूरा परिवार लकड़ी के खिलौने बनाता है।

खिलौने बनाने वाले गोरेलाल प्रजापति कहते हैं, “अभी तो बस 30 ही फिरंगी बनी हैं, उनमें रंग भी भरना है। दिन भर में लगभग 50 पीस बना लेते हैं। अगर बत्ती न कटी तो कुछ रह जाते हैं। यहां बिजली कटौती भी तो होती है।”

फिरंगी या लट्टू एक प्रकार के खिलौने का नाम है। सूरज की पहली किरणों के साथ ही गोरेलाल लकड़ियों के टुकड़े करते हुए अपना काम शुरू कर देते हैं।

बीते दस सालों में चित्रकूट में लकड़ी का सामान बनाने और बेचने वाले 200 परिवारों की संख्या घटकर करीब 30 रह गई है। इस बात पर गोरेलाल कहते हैं, “ज़्यादातर ठाकुर और ब्राह्मण ही इस कला का पीढ़ियों से अभ्यास करते आये हैं। अन्य जातियां यह नहीं करतीं।”

एक और हस्तशिल्पकार भगवती सिंह के पिता बिहारी सिंह भी जाने-माने शिल्प गुरु थे। भगवती बताते हैं, “पिताजी ने ही हमको यह काम सिखाया। हमने चाचा और पिता जी के साथ करीब दस साल की उम्र से ही रंग भरना शुरू कर दिया था। वो लोग कटिंग कर के देते थे, हम रंग भर दिया करते थे खिलौनों में। इसमें लाह की पट्टियों से, मशीन द्वारा रंग भरा जाता है।”

भगवती सिंह

चित्रकूट में अब गिने चुने घरों में ही लकड़ी के खिलौनों की मशीन चलने के आवाज़ सुनाई देती है। वहाँ, अब शायद ही कोई घर ऐसा बचा है जहां लोग अपनी अगली पीढ़ी को इस काम में लाना चाहते हैं। खिलौने बनाने के साथ-साथ भगवती आसपास के बच्चों को भी मुफ्त में ये कला सिखाते हैं।

“हमें लगा हमारी पीढ़ी के जाने के बाद कोई जानेगा नहीं इन खिलौनों के बारे में। जितना भी कम कमा रहे हों हम, यह कला है हमारी, ऐसे कैसे ख़त्म होने दें! यही सब सोचकर मैंने अपने परिवार वालों की मदद से आसपास के कुछ लड़कों को अपने घर पर ही बुलाकर प्रशिक्षण देने की कोशिश शुरू की है। हालांकि अभी तीन ही लोग हैं जो काम सीखने आते हैं, वो भी अपने स्कूल, कॉलेज के बाद। लेकिन हम खुश हैं कि कोई तो है।” – भगवती

परंपरागत रूप से महिलाएँ भी इस हस्तशिल्प को बनाने में हिस्सा लेती आयीं हैं। भगवती ने बताया कि कैसे उनकी मां और चाची घरेलू काम खत्म कर लकड़ियों को आकार देने के लिए पुरुषों का साथ देतीं थीं। भगवती की मां, कंचनलता ने कहा, “मैं रंग का काम भी करती हूँ। महिलाओं को रंग की अच्छी समझ होती है।”

चार पीढ़ियों से लकड़ी के खिलौने बना रहीं प्रेमा और उनके पति अपने घर के बाहर ही छोटी सी दुकान लगाकर सामान बेचते हैं। प्रेमा कहतीं हैं, “इस कारीगरी में हम लोग चौथी पीढ़ी हैं। हमारे बच्चे इस काम को शायद ही आगे ले जाएं, कुछ कहना मुश्किल है। हालांकि त्यौहारों के समय जब ज़्यादा खिलौने बनाने होते हैं तो वे हमारी मदद करते हैं।”

चित्रकूट में बनाये जाने वाले यह खिलौने किसी भी चीनी खिलौने की अपेक्षा प्राकृतिक हैं। यह खिलौने मुख्य रूप से दूधी, कौरैया और सुंदरी लकड़ी से बनाये जाते हैं और इसमें लगा रंग भी हानिकारक नहीं होता।


शिल्पकारों को सरकार साल में सिर्फ एक बार 500 रुपये प्रति क्विंटल की सब्सिडी वाली दर से लकड़ी उपलब्ध कराती है। हालांकि यह मात्रा वार्षिक आवश्यकता के लिए पर्याप्त नहीं होती है, और रख-रखाव की कमी के कारण भी कारीगर पूरे साल के लिए एक साथ स्टॉक खरीद कर नहीं रख पाते हैं। इसके अलावा जो लकड़ी इन्हें मिलती है वह काफ़ी लंबे टुकड़ों में होती हैं जिसका बस बाहरी छाल हटा होता है। कारीगरों को इसके बाद लकड़ियों के बाहरी परत को अच्छे से छीलकर, नक्काशी के लिए खुद ही पूरी प्रक्रिया को अंजाम देना होता है।

आकृतियों को आकार देने के आखिरी स्टेप में लकड़ी को मशीन पर घिसना होता है। कारीगर एक छड़ी से चार छोटे खिलौने बनाते हैं। इन वस्तुओं को बेचने के लिए ये प्रदर्शनियों के अलावा, शहर के तीर्थ स्थानों पर दुकान लगाकर बेचते हैं।

गोरेलाल प्रजापति

गोरेलाल की आँखों में खुशी साफ दिखाई देती है जब वह अपने गोदाम में रखी हुई लकड़ी के चूड़ी स्टैंड, मूर्तियों, लट्टू, गाड़ियां, चाभी के छल्ले और अन्य खिलौने दिखाते हैं। अंत में वह यही कहते  हैं,

“अभी तीन बच्चों को सीखा रहे हैं, जल्द ही और बच्चे आएंगे। चाहे कुछ भी हो जाए, हम अपनी इस परंपरा को संजोकर रखेंगे और जारी रखेंगे।”

संपादन – अर्चना गुप्ता


यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है, या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ साझा करना चाहते हो, तो हमें hindi@thebetterindia.com पर लिखें, या Facebook और Twitter पर संपर्क करें। आप हमें किसी भी प्रेरणात्मक ख़बर का वीडियो 7337854222 पर व्हाट्सएप कर सकते हैं।

We at The Better India want to showcase everything that is working in this country. By using the power of constructive journalism, we want to change India – one story at a time. If you read us, like us and want this positive movement to grow, then do consider supporting us via the following buttons:

Let us know how you felt

  • love
  • like
  • inspired
  • support
  • appreciate
X