आपने बिना सीमेंट के बने घरों के बारे में तो सुना होगा, लेकिन क्या कभी बिना सीमेंट के बने किसी आर्टिफिशियल वॉटर बॉडी के बारे में सुना है? जी हां, यह कर दिखाया है हैदराबाद के धर्मेंद्र दादा ने।
दरअसल, धर्मेंद्र एक फ्रीलांस एजुकेटर और पर्माकल्चर डिजाइनर हैं। बीते साल वह अपने एक दोस्त से मिलने के लिए बिहार के गया स्थित, चौपारी गांव गए थे। इसी दौरान उन्होंने गांव के कुछ बच्चों के साथ मिलकर, एक ऐसा तालाब बनाया, जिसमें सीमेंट के एक कतरे का भी इस्तेमाल नहीं किया गया है।
वैसे तो इस तालाब में सिर्फ 300 लीटर पानी जमा किया जा सकता है। लेकिन धर्मेंद्र इसके जरिए यह संदेश देना चाहते थे कि सीमेंट के बिना भी बड़े तालाब बनाए जा सकते हैं।
कैसे मिली प्रेरणा?
दरअसल, अप्रैल 2021 में धर्मेंद्र,अपने दोस्तों अनिल कुमार और रेखा कुमारी से मिलने के लिए गया गए थे। उनके ये दोनों ही दोस्त, समाज की बेहतरी के लिए ‘सहोदय ट्रस्ट’ नाम से अपनी एक संस्था चलाते हैं।
वह कहते हैं, “जब मैं अपने दोस्त के गांव पहुंचा, तो देखा कि वहां के लोगों को कलहंस (Geese) काफी पसंद है। लेकिन कुछ समय बाद, महसूस किया कि इस खूबसूरत पक्षी के रहने के लिए यहां कोई तालाब नहीं है। इसलिए मैंने इन पक्षियों को आराम देने के लिए कुछ करने का फैसला किया।”
फिर, उन्होंने इसके लिए जगह की तलाश करनी शुरू कर दी। इस दौरान उन्होंने एक हैंड पंप देखा, जहां काफी पानी यूं ही बर्बाद हो जाता था। इसी को देखते हुए, उन्होंने सोचा कि क्यों ने इसके पास ही एक तालाब बना दिया जाए, ताकि पक्षियों को आसरा भी मिल जाए और पानी भी बर्बाद होने से बच जाए।
वह कहते हैं, “गांव की मिट्टी काफी रेतीली थी और यहां तालाब में बिना सीमेंट इस्तेमाल किए, पानी जमा करना आसान नहीं था। लेकिन, मैं लोगों के सामने एक मॉडल पेश करना चाहता था। इसलिए तालाब बनाने के लिए सिर्फ प्राकृतिक संसाधनों को अपनाने का फैसला किया।”
क्या है बनाने की तकनीक?
धर्मेंद्र ने इस तालाब को बनाने के लिए ईंटों के बेकार टुकड़ों, बालू और चूना पत्थर का इस्तेमाल किया है, जिसके लिए सिर्फ 500 रुपये खर्च हुए हैं। उन्हें इस तालाब को बनाने में गांव के बच्चों का पूरा साथ मिला।
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वह कहते हैं, “तालाब बनाने में सीमेंट की जगह, सुरखी (ईंट का पाउडर) और चूना का इस्तेमाल किया गया है। इसमें हमें सिर्फ चूना खरीदने के लिए 500 रुपए खर्च हुए।”
वह बताते हैं कि तालाब में पानी भरने के दौरान काफी मिट्टी जमा हो जाती है, जिससे बचने के लिए उन्होंने इसे एक पाइप से जोड़ दिया है। उनके अनुसार, अगर इस तालाब को बनाने के लिए सीमेंट का इस्तेमाल किया जाता, तो कम से कम 4000 रुपये का खर्च जरूर आता।
और भी हैं फायदे
धर्मेंद्र के अनुसार, “वॉटर बॉडी में सीमेंट का इस्तेमाल करने से उसका इको-सिस्टम काफी खराब हो जाता है और मछली, मेंढक जैसे जलीय जीवों को रहने में काफी दिक्कत आती है। लेकिन नेचुरल मटेरियल से बने तालाबों में ऐसी कोई दिक्कत नहीं होती और इसमें जलीय जीवों को सांस लेना काफी आसान होता है।”
सॉफ्टवेयर की नौकरी छोड़ बने पर्माकल्चर डिजाइनर
धर्मेंद्र, 8 साल पहले आंध्र यूनिवर्सिटी से एमसीए करने के बाद एक सॉफ्टवेयर कंपनी में काम कर रहे थे। लेकिन, उन्हें घूमने और वालंटियरिंग का काफी शौक था। इसलिए 2017 में उन्होंने नौकरी छोड़, एक फ्रीलांस एजुकेटर और पर्माकल्चर डिजाइन के रूप में काम करना शुरू कर दिया।
इसके बाद, 2020 के अंत में उन्होंने तमिल नाडु के जाने-माने आर्किटेक्ट, बिजू भास्कर से नैचुरल बिल्डिंग की ट्रेनिंग भी ली। अभी तक वह करीब 12 आर्किटेक्चरल प्रोजेक्ट को अंजाम दे चुके हैं।
कितनी है संभावनाएं?
आज किसान बेहतर कमाई के लिए बड़े पैमाने पर मछली और बत्तख पालन को अपना रहे हैं। लेकिन, तालाब को सुरक्षा देने के लिए उन्हें सीमेंट के पीछे काफी खर्च करना पड़ता है।
धर्मेंद्र की इस तकनीक को इस्तेमाल कर खर्च से बचा जा सकता है।
वह कहते हैं, “ऐसा नहीं है कि तालाबों में सीमेंट देना कोई अनिवार्यता है। आज गांवों में कई ऐसे तालाब देखने को मिलते हैं, जिसमें न कोई ईंट होता है और न ही सीमेंट। लेकिन ऐसे तालाबों में पानी को अधिक समय के लिए जमा करना, काफी मुश्किल होता है। ऐसे में सुरखी और चूने का इस्तेमाल कर, खर्च से भी बच सकते हैं और बांधों को मजबूत भी बनाया जा सकता है।”
धर्मेंद्र इस बात पर जोर देते हैं कि भारत में किसी संरचना को बनाने के लिए इन तरीकों का इस्तेमाल सदियों से होता आ रहा है। लेकिन, बीते चार-पांच दशकों में सीमेंट के अत्यधिक चलन के कारण, हम अपने नॉलेज सिस्टम को भूलते जा रहे हैं।
वह अंत में कहते हैं, “नेचुरल बिल्डिंग की राह मुश्किल है, लेकिन अगर हम इसे करना चाहें, तो जरूर कर सकते हैं। हमें सिर्फ जरूरत है एक ईमानदार प्रयास की।”
संपादनः अर्चना दुबे
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