सतपुड़ा के जंगलों से निकालते हैं दुर्लभ शहद, अमेरिका-सिंगापुर जैसे देशों में भी हैं ग्राहक

Tribe Grown

महाराष्ट्र में अमरावती के रहनेवाले भावेश वानखेड़े, अपनी कंपनी “ट्राइब ग्रोन” के तहत कई तरह के दुर्लभ शहद, हल्दी, चावल जैसे उत्पादों का कारोबार करते हैं। इससे 1200 से अधिक आदिवासी किसानों के जीवन में नया सवेरा आया है।

महाराष्ट्र में हर साल हजारों किसान परिस्थितियों से हारकर अपनी जिंदगी को खत्म कर लेते हैं। तमाम सरकारी कवायदों के बावजूद, यह सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है और साल दर साल मामले बढ़ते ही जा रहे हैं। लेकिन आज हम आपको महाराष्ट्र के अमरावती के रहनेवाले एक ऐसे युवा की कहानी बताने जा रहे हैं, जो अपने बिजनेस Tribe Grown के जरिए, महाराष्ट्र के साथ-साथ, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के सैकड़ों आदिवासी किसानों को आमदनी का एक बेहतर जरिया देकर उनकी जिंदगी में बड़े बदलाव ला रहे हैं।

यह कहानी है भावेश वानखेड़े की। भावेश “ट्राइब ग्रोन” (Tribe Grown) नाम से अपनी एक कंपनी चलाते हैं। वह जंगली शहद, गाय का घी, हल्दी जैसे कई उत्पादों का कारोबार करते हैं और फिलहाल उनसे 1200 से अधिक आदिवासी किसान जुड़े हुए हैं। इस बिजनेस को उन्होंने साल 2017 में सिर्फ 20 हजार रुपये से शुरू किया था और आज उनका टर्न ओवर 30 लाख रुपये से भी अधिक है। 

इतना ही नहीं, पहले जहां किसानों को हर महीने मुश्किल से 2500-3000 रुपये कमाई होती थी, वहीं भावेश से जुड़ने के बाद उन्हें हर महीने 7000-8000 रुपये की स्थिर कमाई हो रही है और उनकी जीवनशैली में बदलाव भी आ रहा है।

कैसे लिखी बदलाव की यह गाथा?

भावेश ने बताया, “हम अपने आस-पास किसानों की आत्महत्या की खबरें अक्सर सुनते थे। मेरे पिता जी ने बचपन से ही मुझे इसे लेकर जागरूक करना शुरू कर दिया और वह चाहते थे कि मैं लोगों के बीच जाकर उनकी मदद करूं। फिर, मैंने मुंबई के टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज में मास्टर्स के लिए दाखिला ले लिया। यहां मैंने सोशल ऑन्त्रप्रेन्योरशिप की पढ़ाई की और साल 2017 में पढ़ाई पूरी होने के बाद, अपना स्टार्टअप शुरू कर दिया।”

Tribe Grown Founder Bhavesh Wankhade
भावेश वानखेड़े

29 वर्षीय भावेश बताते हैं कि उनके पिता एक मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव थे। वह कहते हैं, “ट्राइब ग्रोन (Tribe Grown) का चेहरा भले ही मैं हूं, लेकिन इसके पीछे का पूरा आइडिया मेरे पिता जी का था। उन्हें काम से जब भी समय मिलता था, वह जंगलों में घूमने के लिए निकल जाते थे। वह आदिवासी समुदायों से बात करते थे और उनकी परेशानियों को हल करने की कोशिश करते थे। लेकिन फरवरी 2020 में उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। इसके बाद, हमें काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा।” 

वह कहते हैं, “मैं पहले चीजों को काफी कमर्शियल तरीके से देखता था। लेकिन मेरे पिता की सोच अलग थी। उनका मानना था कि अगर किसी समाज में सांस्कृतिक और मानसिक विकास हो, तो आर्थिक विकास आसान है। उनकी ये बातें हमें अब समझ में आती हैं।”

Tribe Grown से तीन गुना बढ़ी किसानों की आमदनी

भावेश कहते हैं, “जब मैं टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज में पढ़ने गया, तो देखा कि वहां ऑर्गेनिक उत्पादों को काफी फैन्सी माना जाता है। जो चीज़ गांव में 10 रुपये में मिलती है, बाजार में उसी को 150 रुपये में बेचा जाता है। इससे मुझे काफी एक्सपोज़र मिला।”

वह कहते हैं, “कॉलेज में पढ़ाई के दौरान मुझे 2015 से 2017 तक फिल्ड में काम करने का मौका मिला। उन दो वर्षों में मैंने जाना कि आखिर आदिवासी समुदाय की समस्या क्या है और इसका समाधान कैसे निकाला जा सकता है? ‘ट्राइब ग्रोन’ (Tribe Grown) की शुरुआत तो तभी से हो गई थी।”

भावेश ने बताया, “हमने देखा कि आदिवासी किसानों के पास खेती के संसाधनों की कोई कमी नहीं है। उनकी जमीन पर कभी केमिकल का इस्तेमाल नहीं हुआ है और सैकड़ों किलोमीटर के दायरे में न कोई वायु प्रदूषण है और न ही जल प्रदूषण।”

Bhavesh with his Tribe Grown team
अपनी टीम के साथ भावेश

वह बताते हैं कि पहले, आदिवासी समुदाय के लोगों के उत्पाद चार-पांच चरणों में ग्राहक तक पहुंचते थे। लेकिन उन्होंने धीरे-धीरे उनके उत्पादों को खरीदकर सीधा ग्राहक को बेचना शुरू कर दिया। इससे उन्हें तीन गुना अधिक कमाई होने लगी।

राह नहीं थी आसान

भावेश कहते हैं कि देश में आदिवासी समुदाय, मुख्यधारा के समाज से आज भी काफी दूर हैं। वे सदियों से एक ही तरीके से खेती कर रहे हैं। ऐसे में, वहां बदलाव लाना काफी चुनौतीपूर्ण था। 

उन्होंने बताया, “पहले वे शहद के लिए मधुमक्खी के पूरे छत्ते को काट देते थे। जिससे एक छत्ते में ही सैकड़ों मधुमक्खियां मर जाती थीं। यहां तक कि उनके बच्चे भी खत्म हो जाते थे। फिर, हमने उन्हें बताया कि मधुमक्खियों का छत्ता एक घर की तरह होता है, उसमें बच्चे अलग रहते हैं, तो वयस्क अलग।”

वह कहते हैं, “हमने उनके प्रॉसेस में बदलाव किया। पहले वे चेहरे पर कपड़ा लपेटकर, धुंआ कर देते थे और छत्ते को काट लेते थे। हमने उन्हें शूट का इस्तेमाल करना सिखाया और बताया कि कैसे सिर्फ 10-15 फीसदी छत्ता काटने से भी पूरा शहद निकाला जा सकता है।”

Products of tribe grown
ट्राइब ग्रोन के उत्पाद

भावेश कहते हैं कि उन्होंने किसानों को मधुमक्खी पालन का तरीका बताया। इस प्रक्रिया में पूरा छत्ता बेकार नहीं होता था और 10-15 दिनों में उसमें से फिर से शहद निकाला जा सकता था। 

उठाने पड़े कुछ सख्त कदम

वह बताते हैं कि आदिवासी, सदियों से धुआं करके ही शहद निकाल रहे थे। इसलिए कोई नया तरीका अपनाना उनके लिए आसान नहीं थी। इसलिए उन्होंने आदिवासियों को सही दिशा दिखाने के लिए कुछ सख्त रास्ते अपनाए।

उनका कहना है, “हमने सूट न पहनने वाले और पूरा छत्ता काटने वाले किसानों को सही राह दिखाने के लिए, उनसे शहद खरीदना बंद कर दिया। इससे उन्हें अनुभव हुआ कि अगर वह शहद को सड़क किनारे बेच रहे हैं, तो उन्हें प्रति किलो सिर्फ 100 रुपये मिल रहे हैं, लेकिन मैं उनसे 300 रुपये प्रति किलो खरीद रहा था। इस तरह अधिक फायदे के लोभ में वे खुद को बदलने के लिए प्रेरित हुए।”

भावेश के अनुसार, आदिवासी किसानों को पहले एक छत्ते से मुश्किल से चार-पांच किलो शहद ही मिलता था। लेकिन, अब उन्हें 10-15 किलो शहद आसानी से मिल जाता है। साथ ही, मधुमक्खियां भी नहीं मरती हैं। 

सामने थीं कई चुनौतियां

आदिवासी किसानों के व्यवहार में बदलाव लाने के अलावा, भावेश के सामने एक और चुनौती थी। वह बताते हैं, “हम फिलहाल सतपुड़ा फॉरेस्ट रेंज में काम करते हैं। इसमें महाराष्ट्र के विदर्भ, वर्धा, मेलघाट, ताडोबा के अलावा, मध्य प्रदेश के सावन मेढा, हरदा जैसे इलाके भी शामिल हैं। हम अलग-अलग शहद को घने जंगलों से निकालने की कोशिश करते हैं। लेकिन वन विभाग के नियम के अनुसार, हम जंगल के अंदर काम नहीं कर सकते हैं। यह हमारे सामने बड़ी चुनौती थी।”

आदिवासी महिलाओं को ट्रेनिंग देते भावेश
आदिवासी महिलाओं को ट्रेनिंग देते भावेश

वह आगे कहते हैं, “मैं शौकिया तौर पर एक वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफर भी हूं। अपने अनुभव से मैंने अधिकारियों को समझाया कि हमारी वजह से जंगल के इकोसिस्टम को कोई नुकसान नहीं होगा, बल्कि आदिवासियों द्वारा मधुमक्खियों को न मारने के कारण पेड़-पौधों को फायदा होगा। फिर वे मान गए।”

किसानों ने माना Tribe Grown है बेहतर विकल्प

भावेश बताते हैं कि उनके साथ फिलहाल कोरकू, गोंड, भील और भेलवा जैसे आदिवासी समुदायों के 1200 किसान जुड़े हुए हैं, जिसमें 500 उनके साथ सीधे काम करते हैं।

उनके साथ काम करने वाले मध्य प्रदेश के अमरई के 48 वर्षीय गणेश धुर्वे कहते हैं, “मेरा छह लोगों का परिवार है। हम पहले मजदूरी और शहद निकालने का काम करते थे। जिससे महीने में किसी तरह 3.5 से 4 हजार की कमाई होती थी। लेकिन बीते कुछ समय से भावेश के साथ काम कर रहा हूं। हम फिलहाल शहद निकालने के अलावा, पशुपालन और हल्दी की खेती भी करते हैं। जिससे हर महीने 7 से 7.5 हजार रुपये की स्थाई कमाई हो जाती है।”

वहीं, महाराष्ट्र के मेलाघाट के रहनेवाले 39 वर्षीय भोमा कहते हैं, “मैं पहले खेतों और मनरेगा योजनाओं में मजदूरी का काम करता था। जिससे हर महीने करीब तीन हजार की कमाई होती थी। मेरा सात लोगों का परिवार है और इतनी कमाई में घर चलाने में काफी मुश्किल होती थी। जब से मैं ट्राइब ग्रोन (Tribe Grown) के साथ काम कर रहा हूं, मेरी कमाई दोगुनी हो गई है। मैं फिलहाल शहद निकालने के साथ पशुपालन भी करता हूं।”

औषधीय गुणों से भरपूर है जंगली शहद

भावेश बताते हैं कि उनके पास फिलहाल आठ तरह के शहद हैं, जिसमें महुआ के फूल, अर्जुन के फूल और दुतपुड़ा के फूल का शहद सबसे खास है।

वह बताते हैं कि महुआ का शहद कई औषधीय गुणों से भरपूर होता है। यह पेट और हड्डी के रोगों में काम आने के साथ-साथ, गर्भवती महिलाओं के लिए भी काफी फायदेमंद है। इस तरह के शहद को ज्यादातर आयुर्वेदिक डॉक्टर खरीदते हैं।

Bhavesh equips tribal farmers with many modern techniques of honey extraction
भावेश ने आदिवासी किसानों को शहद निकालने के कई आधुनिक तकनीकों से किया लैस

उन्होने बताया कि उनके पास महुआ शहद ज्यादा नहीं होता है, लेकिन उन्हें इसकी कीमत 10 हजार रुपये प्रति किलो मिलती है। अर्जुन फ्लोरा का शहद, हार्ट संबंधित बीमारियों में कारगर है। वहीं, दुतपुड़ा एक जंगली फूल है। इससे तैयार शहद हरा रंग का होता है और यह बच्चों के दिमागी शक्ति को बढ़ाता है। यह एक बेहद ही दुर्लभ शहद है।

वह कहते हैं, “हम फिलहाल अलग-अलग तरह के औषधीय शहद की तलाश में हैं। जंगल में इसकी असीम संभावनाएं हैं। हमें नहीं पता कि कल क्या फ्लोरा मिल जाए। वैसे आने वाले दिनों में हमें 30-35 तरह के शहद मिल सकते हैं।”

उन्होंने बताया कि उनके पास हर साल 12 टन शहद होता है और उनका रेंज 500 रुपये से लेकर 10000 रुपये तक है। उन्होंने कहा कि घर में दाई का काम करने वाली महिलाओं से लेकर आईटी पेशेवर तक, उनके हर वर्ग के ग्राहक हैं।

कितना होता है घी का उत्पादन?

भावेश कहते हैं कि वह हर महीने 300 किलो से अधिक घी का कारोबार करते हैं। जिसकी कीमत 2500 रुपए प्रति किलो है।

वह कहते हैं, “जिस क्वालिटी की घी हम बेचते हैं, बड़ी कंपनियां वैसी ही क्वालिटी के नाम पर 3800 से 4000 रुपए प्रति किलो घी बेचती हैं। हम घी को प्राचीन बिलोना पद्धति से बनाते हैं, जिसमें मक्खन को दही से तैयार किया जाता है। इसमें एक किलो घी, करीब 30 किलो दूध से तैयार होता है।”

It takes 30 kg of milk to make one kg of Bilona Ghee
एक किलो बिलोना घी बनाने में लगते हैं 30 किलो दूध

उन्होंने बताया कि गायों से अधिक दूध के लिए वह कोई वैक्सीनेशन नहीं करते हैं और उनके खान-पान में भी कोई केमिकल इस्तेमाल नहीं होता है। इस वजह से यह घी बिल्कुल शुद्ध है। इस घी के इस्तेमाल से कोलेस्ट्रॉल बढ़ने के बजाय कम होता है और शरीर को मजबूती मिलती है।

वह कहते हैं कि आने वाले समय में वह घी के कारोबार को एक डिसेंट्रलाइज मॉडल के रूप में विकसित करेंगे। जिसमें हर किसान का घी उनके नाम से ही बिकेगा, ताकि ग्राहकों को पता हो कि यह कहां से आ रहा है और उसके पीछे क्या कहानी है। हम किसानों के लिए सिर्फ एक प्लेटफॉर्म के रूप में काम करेंगे।

इसके अलावा भावेश हल्दी, महुआ पाउडर, धान, दाल, तेल के बीज जैसे चीजों में अपना हाथ आजमा रहे हैं।

कोरोना काल में जूझना पड़ा कई मुश्किलों से

भावेश कहते हैं, “फरवरी 2020 में मेरे पिताजी की मौत हुई। इसी बीच मार्च में पूरे देश में कोरोना महामारी के कारण लॉकडाउन लग गया। इस वजह से हमारा पूरा काम रुक गया।”

वह कहते हैं, “उस वक्त उत्पाद सप्लाई नहीं हो रहा था और हमारे पास उसे रखने के लिए जगह नहीं थी। वहीं, किसानों के पास भी पैसा नहीं था। फिर, धीरे-धीरे रोजमर्रा की जरूरतों के लिए आवाजाही की अनुमति मिली तो स्थिति में सुधार आया। इस दौरान हम पूरी सावधानी से और दूरी से आदिवासी किसानों से सामान खरीदते थे, क्योंकि हमें अंदाजा था कि यदि यहां एक को भी कोरोना हुआ, तो स्थिति संभालनी मुश्किल हो जाएगी।”

भावेश बताते हैं कि उनका मकसद अधिक से अधिक हाथों को काम देना है। इसलिए तकनीकों को वह जरूरत भर ही इस्तेमाल करना चाहते हैं। उनका एक छोटा सा प्रोडक्शन यूनिट सिर्फ अमरावती में है।

Tribe Grown कैसे करता है काम?

शूट की मदद से सुरक्षित तरीके से शहद निकाल सकते हैं आदिवासी किसान

भावेश बताते हैं कि वह अपने उत्पादों को सोशल मीडिया के जरिए बेचते हैं। इसके अलावा, उनका सामान देश के 120 से अधिक ऑर्गेनिक स्टोर्स पर भी मिलता है। जल्द ही, उनके सामान अमेजन पर उपलब्ध होंगे।

वह बताते हैं कि उनके उत्पादों की मांग अमेरिका, सिंगापुर, ऑस्ट्रेलिया और दुबई में भी है। वह कहते हैं कि उन्हें ग्राहकों की कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन प्रोडक्शन उतना नहीं हो पाता है। इसलिए वह अपने दायरे को बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं।

भावेश का इरादा आने वाले समय में जंगलों के अंदर बी बॉक्स रखने का भी है और उत्पादन बढ़ाने के लिए वह कई विशेषज्ञों से बात कर रहे हैं। भावेश ने सात लोगों को रोजगार भी दिया है, जो उनका सारा काम देखते हैं। 

अपने स्तर पर किसानों के जीवन में बदलाव लाने की कोशिश करने वाले Tribe Grown संस्थापक भावेश वानखेड़े के जज्बे को हमारा सलाम! 

यदि आप ट्राइब ग्रोन (Tribe Grown) से संपर्क करना चाहते हैं तो 09960131411 पर कॉल कर सकते हैं या फेसबुक पर जुड़ने के लिए यहां क्लिक कर सकते हैं।

संपादन- जी एन झा

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