जयशंकर प्रसाद : वह कवि जो साहित्य के किसी एक विधा से संतुष्ट न था

jayshankar prasad

हिंदी काव्य में छायावाद के चार उन्नायकों में एक, जयशंकर प्रसाद किसी एक विधा से संतुष्ट होने वाले साहित्यिकों में से नहीं थे। कविता, नाटक, कहानी या फिर उपन्यास - साहित्य का ऐसा कोई पटल नहीं है जिसपर उन्होंने अपने शब्दों की छाप न छोड़ी हो।

हिंदी काव्य में छायावाद के चार उन्नायकों में एक, जयशंकर प्रसाद (Jayshankar Prasad) किसी एक विधा से संतुष्ट होने वाले साहित्यिकों में से नहीं थे। कविता, नाटक, कहानी या फिर उपन्यास – साहित्य का ऐसा कोई पटल नहीं है, जिसपर उन्होंने अपने शब्दों की छाप न छोड़ी हो।

भारतेंदु के बाद जयशंकर प्रसाद ने ही नाटक को एक नया आयाम दिया। हिन्दी साहित्य जगत में उपन्‍यास के क्षेत्र में जो स्‍थान प्रेमचंद का है, वही स्‍थान हिंदी नाटक साहित्‍य में प्रसाद का है। उनका कहना था कि रंगमंच नाटक के अनुकूल होना चाहिए, न कि नाटक रंगमंच के अनुकूल। वहीं उनकी कहानियों का अपना पृथक शिल्प रहा है। साथ ही उनके काव्य का कलापक्ष भी पूर्ण सशक्त और संतुलित है। उनकी भाषा, शैली, अलंकरण, छन्द-योजना, सभी कुछ एक महाकवि के स्तरानुकूल हैं।

आईये पढ़ते है इस महाकवि की कुछ प्रतिनिधि कविताएँ –

दो बूंदे

शरद का सुंदर नीलाकाश

निशा निखरी, था निर्मल हास

बह रही छाया पथ में स्वच्छ

सुधा सरिता लेती उच्छ्वास

पुलक कर लगी देखने धरा

प्रकृति भी सकी न आँखें मूंद

सु शीतलकारी शशि आया

सुधा की मनो बड़ी सी बूँद !

सब जीवन बीता जाता है

सब जीवन बीता जाता है
धूप छाँह के खेल सदॄश
सब जीवन बीता जाता है

समय भागता है प्रतिक्षण में,
नव-अतीत के तुषार-कण में,
हमें लगा कर भविष्य-रण में,
आप कहाँ छिप जाता है
सब जीवन बीता जाता है

बुल्ले, नहर, हवा के झोंके,
मेघ और बिजली के टोंके,
किसका साहस है कुछ रोके,
जीवन का वह नाता है
सब जीवन बीता जाता है

वंशी को बस बज जाने दो,
मीठी मीड़ों को आने दो,
आँख बंद करके गाने दो
जो कुछ हमको आता है

सब जीवन बीता जाता है.

चिंता (भाग 1 – कामायनी)

हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छाँह
एक पुरुष, भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह।

नीचे जल था ऊपर हिम था, एक तरल था एक सघन,
एक तत्व की ही प्रधानता, कहो उसे जड़ या चेतन।

दूर दूर तक विस्तृत था हिम, स्तब्ध उसी के हृदय समान,
नीरवता-सी शिला-चरण से, टकराता फिरता पवमान।

तरूण तपस्वी-सा वह बैठा, साधन करता सुर-श्मशान,
नीचे प्रलय सिंधु लहरों का, होता था सकरूण अवसान।

उसी तपस्वी-से लंबे थे, देवदारु दो चार खड़े,
हुए हिम-धवल, जैसे पत्थर, बनकर ठिठुरे रहे अड़े।

अवयव की दृढ माँस-पेशियाँ, ऊर्जस्वित था वीर्य्य अपार,
स्फीत शिरायें, स्वस्थ रक्त का, होता था जिनमें संचार।

चिंता-कातर वदन हो रहा, पौरूष जिसमें ओत-प्रोत,
उधर उपेक्षामय यौवन का, बहता भीतर मधुमय स्रोत।

बँधी महावट से नौका थी, सूखे में अब पड़ी रही,
उतर चला था वह जल-प्लावन, और निकलने लगी मही।

निकल रही थी मर्म वेदना, करूणा विकल कहानी सी,
वहाँ अकेली प्रकृति सुन रही, हँसती-सी पहचानी-सी।

“ओ चिंता की पहली रेखा, अरी विश्व-वन की व्याली,
ज्वालामुखी स्फोट के भीषण, प्रथम कंप-सी मतवाली।

हे अभाव की चपल बालिके, री ललाट की खलखेला
हरी-भरी-सी दौड़-धूप, ओ जल-माया की चल-रेखा।

इस ग्रहकक्षा की हलचल- री तरल गरल की लघु-लहरी,
जरा अमर-जीवन की, और न कुछ सुनने वाली, बहरी।

अरी व्याधि की सूत्र-धारिणी- अरी आधि, मधुमय अभिशाप
हृदय-गगन में धूमकेतु-सी, पुण्य-सृष्टि में सुंदर पाप।

मनन करावेगी तू कितना? उस निश्चित जाति का जीव
अमर मरेगा क्या? तू कितनी गहरी डाल रही है नींव।

आह घिरेगी हृदय-लहलहे, खेतों पर करका-घन-सी,
छिपी रहेगी अंतरतम में, सब के तू निगूढ धन-सी।

बुद्धि, मनीषा, मति, आशा, चिंता तेरे हैं कितने नाम
अरी पाप है तू, जा, चल जा, यहाँ नहीं कुछ तेरा काम।

विस्मृति आ, अवसाद घेर ले, नीरवते बस चुप कर दे,
चेतनता चल जा, जड़ता से, आज शून्य मेरा भर दे।”

“चिंता करता हूँ मैं जितनी, उस अतीत की, उस सुख की,
उतनी ही अनंत में बनती जात, रेखायें दुख की।

आह सर्ग के अग्रदूत, तुम असफल हुए, विलीन हुए,
भक्षक या रक्षक जो समझो, केवल अपने मीन हुए।

अरी आँधियों ओ बिजली की, दिवा-रात्रि तेरा नर्तन,
उसी वासना की उपासना, वह तेरा प्रत्यावर्तन।

मणि-दीपों के अंधकारमय, अरे निराशा पूर्ण भविष्य
देव-दंभ के महामेध में, सब कुछ ही बन गया हविष्य।

अरे अमरता के चमकीले पुतलो, तेरे ये जयनाद
काँप रहे हैं आज प्रतिध्वनि, बन कर मानो दीन विषाद।

प्रकृति रही दुर्जेय, पराजित, हम सब थे भूले मद में,
भोले थे, हाँ तिरते केवल सब, विलासिता के नद में।

वे सब डूबे, डूबा उनका विभव, बन गया पारावार
उमड़ रहा था देव-सुखों पर, दुख-जलधि का नाद अपार।”

“वह उन्मुक्त विलास हुआ क्या, स्वप्न रहा या छलना थी
देवसृष्टि की सुख-विभावरी, ताराओं की कलना थी।

चलते थे सुरभित अंचल से, जीवन के मधुमय निश्वास,
कोलाहल में मुखरित होता, देव जाति का सुख-विश्वास।

सुख, केवल सुख का वह संग्रह, केंद्रीभूत हुआ इतना,
छायापथ में नव तुषार का, सघन मिलन होता जितना।

सब कुछ थे स्वायत्त,विश्व के-बल, वैभव, आनंद अपार,
उद्वेलित लहरों-सा होता, उस समृद्धि का सुख संचार।

कीर्ति, दीप्ति, शोभा थी नचती, अरुण-किरण-सी चारों ओर,
सप्तसिंधु के तरल कणों में, द्रुम-दल में, आनन्द-विभोर।

शक्ति रही हाँ शक्ति-प्रकृति थी, पद-तल में विनम्र विश्रांत,
कँपती धरणी उन चरणों से होकर, प्रतिदिन ही आक्रांत।

स्वयं देव थे हम सब, तो फिर क्यों न विश्रृंखल होती सृष्टि?
अरे अचानक हुई इसी से, कड़ी आपदाओं की वृष्टि।

गया, सभी कुछ गया,मधुर तम, सुर-बालाओं का श्रृंगार,
ऊषा ज्योत्स्ना-सा यौवन-स्मित, मधुप-सदृश निश्चित विहार।

भरी वासना-सरिता का वह, कैसा था मदमत्त प्रवाह,
प्रलय-जलधि में संगम जिसका, देख हृदय था उठा कराह।”

“चिर-किशोर-वय, नित्य विलासी, सुरभित जिससे रहा दिगंत,
आज तिरोहित हुआ कहाँ वह, मधु से पूर्ण अनंत वसंत?

कुसुमित कुंजों में वे पुलकित, प्रेमालिंगन हुए विलीन,
मौन हुई हैं मूर्छित तानें, और न सुन पडती अब बीन।

अब न कपोलों पर छाया-सी, पडती मुख की सुरभित भाप
भुज-मूलों में शिथिल वसन की, व्यस्त न होती है अब माप।

कंकण क्वणित, रणित नूपुर थे, हिलते थे छाती पर हार,
मुखरित था कलरव, गीतों में, स्वर लय का होता अभिसार।

सौरभ से दिगंत पूरित था, अंतरिक्ष आलोक-अधीर,
सब में एक अचेतन गति थी, जिसमें पिछड़ा रहे समीर।

वह अनंग-पीड़ा-अनुभव-सा, अंग-भंगियों का नर्तन,
मधुकर के मरंद-उत्सव-सा, मदिर भाव से आवर्तन।

आँसू

‘आँसू’ ने उनके हृदय की उस पीड़ा को शब्द दिए जो उनके जीवन में अचानक मेहमान बनकर आई और हिन्दी भाषा को समृद्ध कर गई।

इस करुणा कलित हृदय में
अब विकल रागिनी बजती
क्यों हाहाकार स्वरों में
वेदना असीम गरजती?

मानस सागर के तट पर
क्यों लोल लहर की घातें
कल कल ध्वनि से हैं कहती
कुछ विस्मृत बीती बातें?

आती हैं शून्य क्षितिज से
क्यों लौट प्रतिध्वनि मेरी
टकराती बिलखाती-सी
पगली-सी देती फेरी?

क्यों व्यथित व्योम गंगा-सी
छिटका कर दोनों छोरें
चेतना तरंगिनी मेरी
लेती हैं मृदल हिलोरें?

बस गई एक बस्ती हैं
स्मृतियों की इसी हृदय में
नक्षत्र लोक फैला है
जैसे इस नील निलय में।

ये सब स्फुर्लिंग हैं मेरी
इस ज्वालामयी जलन के
कुछ शेष चिह्न हैं केवल
मेरे उस महामिलन के।

शीतल ज्वाला जलती हैं
ईधन होता दृग जल का
यह व्यर्थ साँस चल-चल कर
करती हैं काम अनल का।

बाड़व ज्वाला सोती थी
इस प्रणय सिन्धु के तल में
प्यासी मछली-सी आँखें
थी विकल रूप के जल में।

बुलबुले सिन्धु के फूटे
नक्षत्र मालिका टूटी
नभ मुक्त कुन्तला धरणी
दिखलाई देती लूटी।

छिल-छिल कर छाले फोड़े
मल-मल कर मृदुल चरण से
धुल-धुल कर वह रह जाते
आँसू करुणा के जल से।

इस विकल वेदना को ले
किसने सुख को ललकारा
वह एक अबोध अकिंचन
बेसुध चैतन्य हमारा।

अभिलाषाओं की करवट
फिर सुप्त व्यथा का जगना
सुख का सपना हो जाना
भींगी पलकों का लगना।

इस हृदय कमल का घिरना
अलि अलकों की उलझन में
आँसू मरन्द का गिरना
मिलना निश्वास पवन में।

मादक थी मोहमयी थी
मन बहलाने की क्रीड़ा
अब हृदय हिला देती है
वह मधुर प्रेम की पीड़ा।

सुख आहत शान्त उमंगें
बेगार साँस ढोने में
यह हृदय समाधि बना हैं
रोती करुणा कोने में।

चातक की चकित पुकारें
श्यामा ध्वनि सरल रसीली
मेरी करुणार्द्र कथा की
टुकड़ी आँसू से गीली।

अवकाश भला हैं किसको,
सुनने को करुण कथाएँ
बेसुध जो अपने सुख से
जिनकी हैं सुप्त व्यथाएँ

जीवन की जटिल समस्या
हैं बढ़ी जटा-सी कैसी
उड़ती हैं धूल हृदय में
किसकी विभूति हैं ऐसी?

जो घनीभूत पीड़ा थी
मस्तक में स्मृति-सी छाई
दुर्दिन में आँसू बनकर
वह आज बरसने आई।

मेरे क्रन्दन में बजती
क्या वीणा, जो सुनते हो
धागों से इन आँसू के
निज करुणापट बुनते हो।

रो-रोकर सिसक-सिसक कर
कहता मैं करुण कहानी
तुम सुमन नोचते सुनते
करते जानी अनजानी।

मैं बल खाता जाता था
मोहित बेसुध बलिहारी
अन्तर के तार खिंचे थे
तीखी थी तान हमारी

झंझा झकोर गर्जन था
बिजली सी थी नीरदमाला,
पाकर इस शून्य हृदय को
सबने आ डेरा डाला।

घिर जाती प्रलय घटाएँ
कुटिया पर आकर मेरी
तम चूर्ण बरस जाता था
छा जाती अधिक अँधेरी।

बिजली माला पहने फिर
मुसक्याता था आँगन में
हाँ, कौन बरस जाता था
रस बूँद हमारे मन में?

तुम सत्य रहे चिर सुन्दर!
मेरे इस मिथ्या जग के
थे केवल जीवन संगी
कल्याण कलित इस मग के।

कितनी निर्जन रजनी में
तारों के दीप जलाये
स्वर्गंगा की धारा में
उज्जवल उपहार चढायें।

गौरव था , नीचे आए
प्रियतम मिलने को मेरे
मै इठला उठा अकिंचन
देखे ज्यों स्वप्न सवेरे।

मधु राका मुसक्याती थी
पहले देखा जब तुमको
परिचित से जाने कब के
तुम लगे उसी क्षण हमको।

परिचय राका जलनिधि का
जैसे होता हिमकर से
ऊपर से किरणें आती
मिलती हैं गले लहर से।

मै अपलक इन नयनों से
निरखा करता उस छवि को
प्रतिभा डाली भर लाता
कर देता दान सुकवि को।

निर्झर-सा झिर झिर करता
माधवी कुँज छाया में
चेतना बही जाती थी
हो मन्त्रमुग्ध माया में।

पतझड़ था, झाड़ खड़े थे
सूखी-सी फूलवारी में
किसलय नव कुसुम बिछा कर
आए तुम इस क्यारी में।

शशि मुख पर घूँघट डाले,
अँचल मे दीप छिपाए।
जीवन की गोधूली में,
कौतूहल से तुम आए।

हिंदी साहित्य के ‘विलियम वर्ड्सवर्थ’ सुमित्रानंदन पंत!


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