गिरिजा देवी : 15 साल में विवाहित, बनारस की एक साधारण गृहणी से ‘ठुमरी की रानी’ बनने का सफ़र

'ठुमरी की रानी' कही जाने वाली गिरिजा देवी का जन्म 8 मई, 1929 को कला और संस्कृति की प्राचीन नगरी वाराणसी (तत्कालीन बनारस) में हुआ था। ठुमरी गायन को संवारकर उसे लोकप्रिय बनाने में इनका बहुत बड़ा योगदान है। वे बनारस घराने की गायिका थीं। 24 अक्टूबर 2017 को उन्होंने दुनिया से विदा ली।

‘ठुमरी की रानी’ के नाम से मशहूर गिरिजा देवी संगीत की दुनिया का जाना-माना चेहरा थीं। उनके चाहने वाले उन्हें प्यार से अप्पा जी कहकर बुलाते थे। वे बनारस घराने की एक प्रसिद्ध भारतीय शास्त्रीय गायिका रहीं। ठुमरी गायन को संवारकर उसे लोकप्रिय बनाने में इनका बहुत बड़ा योगदान है।

गिरिजा देवी का जन्म 8 मई, 1929 को कला और संस्कृति की प्राचीन नगरी वाराणसी (तत्कालीन बनारस) में हुआ था। उनके पिता रामदेव राय एक ज़मींदार थे, जो एक संगीत प्रेमी व्यक्ति थे। उन्होंने पाँच वर्ष की आयु में ही गिरिजा देवी के लिए संगीत की शिक्षा की व्यवस्था कर दी थी। उनके सबसे पहले संगीत गुरु पंडित सरयू प्रसाद मिश्र थे। नौ वर्ष की आयु में पंडित श्रीचन्द्र मिश्र से उन्होंने संगीत की विभिन्न शैलियों की शिक्षा प्राप्त की।

इस छोटी सी उम्र में ही एक हिन्दी फ़िल्म ‘याद रहे’ में गिरिजा देवी ने अभिनय भी किया था। उन्हें संगीत के लिए जितना उनके पिता ने हौंसला दिया, उनकी माँ उतना ही उनके खिलाफ़ रहीं।

उनकी माँ और दादी को कभी भी उनका संगीत पर समय गंवाना पसंद नहीं था।

युवा गिरिजा की कुछ तस्वीरें

पर फिर भी अपने गुरु की शिक्षा और अपने पिता के समर्थन से वे आगे बढ़तीं रहीं। गिरिजा देवी ने एक बार बताया कि आठ साल की उम्र आते-आते संगीत मेरा सबकुछ बन चूका था। उन्होंने न केवल ठुमरी, टप्पा, ख्याल आदि का गायन सीखा बल्कि बनारस के आस-पास के क्षेत्रीय गायन चैती, होरी, बारामासा आदि भी सीखा और उन्हें अपना ही एक अलग रंग दिया।

15 साल की कच्ची उम्र में गिरिजा की शादी एक बिजनेसमैन मधुसुदन जैन से हुई। वैसे तो मधुसुदन की पहले भी एक बार शादी हो चुकी थी लेकिन फिर भी गिरिजा के पिता ने उन्हें ही उनके लिए चुना, क्योंकि उन्हें पता था कि मधुसुदन कला-प्रेमी है और उन्होंने वादा भी किया कि वे कभी भी गिरिजा को गायन से नहीं रोकेंगे।

एक साक्षात्कार में गिरिजा देवी ने अपने पति के बारे में बताया, “उन्होंने कहा कि तुम गाओ, कोई समस्या नहीं है। लेकिन किसी बड़े घर या फिर निजी महफ़िल में गाने की जरूरत नहीं है। उसकी जगह किसी बड़ी कांफ्रेंस, कॉन्सर्ट या फिर रेडियो पर गाना बेहतर है। मेरे पहले गुरु भी दुनिया में नहीं रहे थे इसलिए उन्होंने एक दुसरे गुरु श्रीचंद मिश्रा से मुझे शिक्षा दिलवाई।”

पर उनका सीखना और गाना सिर्फ घर में चल रहा था। उस वक़्त तक वे केवल एक साधारण गृहणी, गिरिजा देवी थीं, जो अपने गाने का शौक घर पर ही पूरा कर रही थी।

तो आखिर कैसे बनी वे एक आम गृहणी और शौकिया गायिका से ‘ठुमरी की रानी’?

सबकी ‘अप्पा जी’ गिरिजा देवी

इस सफर में उन्होंने बहुत संघर्ष किया। समाज के साथ-साथ परिवार में माँ और दादी का विरोध। फिर शादी के बाद पति और बच्चों की ज़िम्मेदारी। पर कहते हैं न कि हमारी किस्मत पहले से तय होती है इसलिए चाहे कोई कितना भी जोर लगा ले आप अपनी मंजिल तक पहुंच ही जाते हैं। ऐसा ही कुछ गिरिजा देवी के साथ हुआ।

रेडियो पर उनका गायन साल 1949 में शुरू हो गया था। पर पब्लिक में लोगों के सामने उन्होंने कभी भी नहीं गाया था। साल 1951 में वे बिहार में आरा कांफ्रेंस में गयीं। यहाँ पर गायन के लिए पंडित ओंकारनाथ जी को बुलाया गया था। लेकिन पता चला कि उनकी गाड़ी खराब हो गयी और वे समय पर नही पहुँच पायेंगें। ऐसे में जब आयोजकों को कोई भी उनकी जगह गाने के लिए नहीं मिला तो उन्होंने गिरिजा देवी को उनके स्थान पर गाने के लिए कहा।

गिरिजा देवी पूर्व प्रधानमन्त्री इंदिरा गाँधी और वहीदा रहमान के साथ

हिन्दुस्तान अखबार में 19 मार्च, 2016 से 16 अप्रैल, 2016 के बीच हर रविवार प्रकाशित हाने वाले कॉलम ‘मेरी कहानी’ में पांच क​ड़ियों में गिरिजा देवी से बातचीत पर आधारित उनके जीवन से जुड़े कुछ अनछुए पहलू प्रकाशित हुए थे। जिसमें एक कड़ी में उन्होंने इस घटना के बारे में बताया,

“हमारा कार्यक्रम दोपहर एक बजे शुरू हुआ और करीब ढाई बजे खत्म। हमने पहले राग देसी गाया और फिर बाबुल मोरा नैहर छूटो जाए। वह कार्यक्रम बड़े पंडाल में हो रहा था। हमने आंखें मूंदी और गाना शुरू कर दिया, इस बात की फिक्र किए बिना कि सामने सौ लोग हैं या हज़ार। बाद में आंखें खोलीं, तो देखा कि पंडाल में करीब दो-ढाई हजार लोग थे। “

बनारस कांफ्रेंस में उन्हें रविशंकर, अली अकबर भैया, विलायत खान साहब ने सुना। रविशंकर के कहने पर गिरिजा को दिल्ली भी गाने के लिए बुलाया गया। 1952 में ही दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और बाकी मंत्रियों के लिए एक कार्यक्रम था। यहाँ वे काफी देर तक गाती रहीं और यहीं से ‘ठुमरी गायन की मल्लिका’ बनने का उनका सफ़र शुरू हुआ।

एक समारोह के दौरान गायन करते हुए

लोगों द्वारा उन्हें ‘अप्पा जी’ बुलाये जाने की कहानी भी मजेदार है। दरअसल, उन्हें अपनी बहन के बेटे से बहुत लगाव था। और उनकी बहन के बेटे ने जब बोलना शुरू किया तो सबसे पहले उन्हें ही अप्पा कहकर बुलाया। इसके बाद उनके घर-परिवार में भी सबने उन्हें अप्पा कहना शुरू कर दिया और इस तरह से वे बन गयी ‘अप्पा जी’!

गिरिजा ने रेडियो के लिए भी बहुत कार्यक्रम किये। लोग अगर उन्हें सुनते तो सुनते ही रह जाते थे। उनके सुर लोगों का मन मोह लेते थे। उनके जीवन और संगीत के उपर डॉक्युमेंट्री भी बनी- गिरिजा: अ लाइफटाइम इन म्यूजिक! इसे उनके ही छात्रों ने बनाया।

उन्होंने अपने जीवन के अंतिम वर्ष कोलकाता में संगीत रिसर्च अकादमी में बिताये। उन्हें संगीत में उनके योगदान के लिए बहुत से सम्मान और पुरस्कारों से भी नवाज़ा गया। उन्हें भारत सरकार ने तीनों विशिष्ट सम्मानों से सम्मानित किया। साल 1972 में पद्मश्री, साल 1989 में पद्मभूषण तो साल 2016 में उन्हें पद्मविभूषण की उपाधि मिली। इसके अलावा उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार और महान संगीत सम्मान अवार्ड भी मिला।

24 अक्टूबर, 2017 को कोलकाता में दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया। वे स्वयं तो इस दुनिया से चली गयी लेकिन पीछे छोड़ गयी संगीत की अमूल्य विरासत, जो भारत की हर एक पीढ़ी के लिए उनका आशीर्वाद है।

आप गिरिजा देवी के कुछ बेहतरीन गायन इस विडियो में सुन सकते हैं

संपादन – मानबी कटोच


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