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इस स्वतंत्रता सेनानी के प्रयासों के कारण बना था काकोरी शहीद स्मारक!

भारतीय स्वतंत्रता सेनानी रामकृष्ण खत्री का जन्म वर्तमान महाराष्ट्र के जिला बरार के चिखली गाँव में 3 मार्च 1902 को हुआ था। उन्हें 'हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन' संगठन का दायित्व सौंपा गया। काकोरी कांड में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। 18 अक्टूबर 1996 को उनका देहांत लखनऊ में हुआ।

साल 1927 की बसंत ऋतू और लखनऊ सेंट्रल जेल की बेरक नंबर 11 में 19 युवा स्वतंत्रता सेनानी एक साथ बैठे हुए थे। लेकिन उनके चेहरे पर कोई परेशानी या फिर शिकन नहीं थी। बल्कि किसी ने बहुत ही उत्साह के साथ कहा कि पंडित जी हम बसंत के लिए कोई गीत लिखते हैं!

पंडित जी और उनके साथियों ने वह गाना लिखा जो स्वतंत्रता युग के सबसे ज्यादा मशहूर गीतों में से एक बन गया। यह गीत था ‘मेरा रंग दे बसंती चोल था’, जिसे पंडित राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ ने उनके साथी, अशफाकुल्ला खान, ठाकुर रोशन सिंह, सचिंद्र नाथ बख्शी, राम कृष्ण खत्री और 14 अन्य लोगों के साथ मिलकर लिखा था।

इस गीत की कुछ पंक्तियाँ हैं,

“इसी रंग में रँग के शिवा ने माँ का बन्धन खोला,
यही रंग हल्दीघाटी में था प्रताप ने घोला;
नव बसन्त में भारत के हित वीरों का यह टोला,
किस मस्ती से पहन के निकला यह बासन्ती चोला।
मेरा रँग दे बसन्ती चोला….
हो मेरा रँग दे बसन्ती चोला!”

(बाद में इसी गीत में सरदार भगत सिंह ने भी अपनी पंक्तियाँ जोड़ी थीं)

6 नंबर पर हैं रामकृष्ण खत्री/स्त्रोत: inkhabar.com

उन्हें 9 अगस्त, 1925 को काकोरी कांड (काकोरी ट्रेन डकैती) के लिए गिरफ्तार किया गया था, जब बिस्मिल और उनके साथियों ने शाहजहांपुर-लखनऊ ट्रेन में लूट की थी। दो महीने बाद, उन्हें लखनऊ सेंट्रल जेल में बराक नंबर 11 में भेजा गया, जिसे अब लखनऊ डिस्ट्रिक्ट जेल कहा जाता है।

इन्हीं स्वतंत्रता सेनानियों में से एक थे रामकृष्ण खत्री, जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उन्हीं के प्रयत्नों के चलते लखनऊ से 20 मील दूर काकोरी शहीद स्मारक बन पाया।

रामकृष्ण खत्री का जन्म वर्तमान महाराष्ट्र के जिला बरार के चिखली गाँव में 3 मार्च 1902 को हुआ था। उनके पिता का नाम शिवलाल चोपड़ा व माँ का नाम कृष्णाबाई था। छात्र जीवन में ही वे लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक से काफी प्रभावित थे और उन्होंने साधु समाज को संगठित करने का संकल्प किया। बाद में उन्होंने उदासीन मण्डल के नाम से एक संस्था भी बनाई।

इस संस्था में वे महंत गोविन्द प्रकाश के नाम से जाने जाते थे। कुछ समय बाद वे पंडित राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ जैसे क्रांतिकारियों के सम्पर्क में आये और उन्हें ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन’ संगठन का दायित्व सौंपा गया और उन्होंने पूरी ज़िम्मेदारी के साथ इसे स्वीकार किया।

काकोरी स्टेशन/स्त्रोत: इंडिया टुडे

खत्री को हिंदी और मराठी के साथ-साथ गुरुमुखी और अंग्रेजी भाषा भी अच्छे से आती थी। मराठी भाषा पर उनकी पकड़ होने के कारण ही राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ ने उन्हें उत्तर प्रदेश से मध्य प्रदेश भेज दिया। दरअसल, उन्हें यूनियन का प्रचारक बनाया गया था।

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के क्रान्तिकारियों ने ब्रिटिश राज के विरुद्ध भयंकर जंग छेड़ने की मंशा से हथियार खरीदने के लिये ब्रिटिश सरकार के ही खजाने को लुटने की योजना बनाई। इस काम का ज़िम्मा हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन ने अपने कंधो पर उठाया। 9 अगस्त 1925 को राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ और रामकृष्ण खत्री समेत हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के कुछ अन्य सदस्यों ने सहारनपुर-लखनऊ ट्रेन में इस घटना को अंजाम दिया।

इस घटना ने ब्रिटिश सरकार की नींव हिला दी। ब्रिटिश पुलिस ने चोरों को पकड़ने के लिए अपनी जान लगा दी। और उन्होंने अपनी कार्यवाई के दौरान शाहजहाँपुर के बनारसी लाल (जो कि बिस्मिल की योजना के बारे में जानते थे) से सच उगलवाया। काकोरी कांड को अंजाम देने वाले सभी क्रांतिकारियों को अलग-अलग स्थानों से पकड़ लिया गया।

पुलिस ने रामकृष्ण को भी पूना (अभी पुणे) से पकड़ा और लखनऊ जेल में लाकर अन्य क्रान्तिकारियों के साथ उन पर भी मुकदमा चला। उन्हें 10 साल कारावास की सजा सुनाई गयी।

वह जापानी माउजर जो डकैती के दौरान इन क्रांतिकारियों ने इस्तेमाल की थी/स्त्रोत (विकिपीडिया)

बताया जाता है कि अपने कारावास के दौरान ये सभी साथी आपस में ही कोर्ट का झूठा-मुठा ट्रायल किया करते थे। जिसमें रामकृष्ण खत्री अक्सर न्यायधीश बना करते थे और बाकी सभी अपराधी। और इसी दौरान ठाकुर रोशन सिंह और रामकृष्ण खत्री में दिलचस्प बहस हुआ करती थी।

अपनी सजा पूरी करने के बाद जब खत्री रिहा हुए तो वे एक बार फिर देश की सेवा में लग गये। उन्होंने अन्य क्रन्तिकारी योगेश चन्द्र चटर्जी की रिहाई के लिये प्रयास किया। उसके बाद सभी राजनीतिक कैदियों को जेल से छुड़ाने के लिये आन्दोलन किया।

काकोरी शहीद स्मारक

स्वतंत्रता के बाद भी वे देश के नागरिकों की सेवा में जुटे रहे। उन्होंने सरकार के साथ मिलकर स्वतन्त्रता संग्राम के सेनानियों की सहायता के लिये कई योजनायें भी बनवायीं। देश उन्हें न केवल एक प्रमुख क्रांतिकारी बल्कि एक लेखक के रूप में भी याद कर सकता है। उन्होंने अपने जीवनकाल में दो किताबें लिखीं- शहीदों की छाया और काकोरी शहीद स्मृति!

‘शहीदों की छाया’ का प्रकाशन नागपुर से हुआ और इसका विमोचल साल 1984 में खुद इंदिरा गाँधी ने दिल्ली में किया था।

अपने जीवन की आखिरी सांस तक वे लखनऊ के केसरबाग में स्थित अपने घर में ही रहे। 18 अक्टूबर 1996 को 94 साल की उम्र में उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कहा।

कवर फोटो : शिवनाथ झा


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