इस महिला आईएएस अफ़सर ने अंबिकापुर को बनाया भारत का ‘सबसे स्वच्छ छोटा शहर’!

ऋतू साल 2003-बैच की आइएएस अफसर हैं। जिले की राजधानी अंबिकापुर में घुसते ही उन्होंने इस पर काम करना शुरू किया।

स्वतंत्र भारत में स्वच्छता को लेकर बहुत से प्रोग्राम, अभियान और योजनायें समय-समय पर बनती रही हैं। 2 अक्टूबर, 2014 को नरेंद्र मोदी ने भी स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत की थी। लाल किले से लोगों को संबोधित करते हुए मोदी जी ने कहा था “साल 2019 में महात्मा गाँधी के 150वें जन्मदिन पर एक स्वच्छ भारत उनके लिए सबसे बड़ी श्रद्धांजलि होगी।”

अब से लगभग 8 महीने पहले, छत्तीसगढ़ के सुरगुजा जिले की कलेक्टर ऋतू सैन ने अपना स्वच्छता अभियान शुरू किया था। ऋतू साल 2003-बैच की आइएएस अफसर हैं।

जिले की राजधानी अंबिकापुर में घुसते ही उन्होंने इस पर काम करना शुरू किया। लगभग 140, 000 लोगों की जनसंख्या वाला अंबिकापुर एक छोटा शहर है। उन्होंने हिंदुस्तान टाइम्स को बताया कि कैसे उन्हें शहर में घुसते ही बहुत गन्दी बदबू आई, क्योंकि ‘वेलकम टू अंबिकापुर’ बिलबोर्ड के बिल्कुल सामने कचरे का एक बड़ा ढेर पड़ा था।

ऋतू नहीं चाहती थी कि किसी के भी मन पर अंबिकापुर की पहली छाप ऐसी पड़े। खासकर कि तब जब ये शहर उनके अधिकार क्षेत्र में है।

उनका पहला आदेश था शहर की साफ़-सफाई। “यह एक चुनौती थी। डेढ़ लाख की जनसंख्या वाला शहर, जिसके पास बस चंद ही साधन थे और इस सफाई अभियान को शुरू करने के लिए शायद ही कोई क्षमता। मुझे पता था कि जो भी मैंने किया, उसे भागीदारी में करना होगा, ताकि यह लोगों के व्यवहार में आये और धीरे-धीरे सभी इसे अपनाना शुरू करें,” सैन ने बताया, जो कि अब दिल्ली में छत्तीसगढ़ की अतिरिक्त निवासी आयुक्त हैं।

दो महीनों के भीतर ही, शहर के सभी स्टेकहोल्डर के साथ विचार-विमर्श करने के बाद सैन ने आगे की कार्यवाही की एक स्पष्ट योजना बनाई। किसी भी सफल स्वच्छता अभियान की तरह, सैन भी अपने इस ठोस (सॉलिड) और तरल (लिक्विड) संसाधन प्रबंधन (एसएलआरएम) मॉडल में तीन महत्वपूर्ण पहलुओं- भागीदारी, व्यवहार्यता और प्रतिकृति को शामिल करना चाहती थीं।

स्त्रोत: नगर निगम अंबिकापुर

भागीदारी में वे कर्मचारियों के साथ-साथ नागरिकों से भी मदद चाहती थीं। ताकि, स्वच्छता लोगों के व्यवहार में आ जाये और फिर धीरे-धीरे बाकी लोग भी इसका अनुसरण करें।

एक पायलट प्रोजेक्ट के लिए उन्होंने इस पहल को एक वार्ड में शुरू किया। सेल्फ-हेल्प ग्रुप से महिलायों को इसके लिए नियुक्त किया गया। इन महिलायों को तीन-तीन की टीम में बांटा गया। हर एक टीम लगभग 100 घरों में जाकर कचरा इकट्ठा करती और फिर इसे अलग-अलग कर आगे के प्रबन्धन के लिए भेजा जाता।

आईईसी (सूचना, संचार और शिक्षा) के सिद्धांतों पर काम करते हुए जिला प्रशासन ने इन स्वयं-सेवा समूहों से इस काम के लिए महिलायों को चुना और फिर उन्हें ट्रेनिंग दी गयी ताकि वे जागरूकता अभियान कर सकें और लोगों को इसके बारे में बता सकें।

अपने स्वच्छता अभियान के तहत, प्रशासन ने एक वार्ड में जहाँ से पायलट प्रोजेक्ट शुरू हुआ था, कचरा अलग-अलग करने का केंद्र खोला। शुरूआत में इकट्ठा और अलग करने के बाद, ये महिलायें इसे फिर से इस कचरे को 24 अलग-अलग जैविक और अजैविक केटेगरी के हिसाब से अलग करती हैं। आप इस कचरे को अलग-अलग करने की प्रक्रिया के बारे में स्वच्छ भारत अभियान की वेबसाइट पर पढ़ सकते हैं।

घरों पर, नागरिकों को लाल (अजैविक कचरा) और हरे रंग (जैविक कचरा) के डिब्बे कचरा डालने के लिए दिए गये हैं। इस शुरूआती प्रक्रिया के बाद, कचरे को इन ‘गार्बेज क्लीनिक’ में लाया जाता है।

टाइम्स ऑफ़ इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक, “कचरा अलग-अलग करने के बाद रीसायकल होने वाले, जैविक व रीसायकल न होने वले पदार्थों को पैक किया जाता है और फिर से इन्हें प्लास्टिक, धातु और इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं के अलगाव के लिए भेजा जाता है। फिर निर्माताओं को रीसाइक्लिंग के लिए कच्चे माल के रूप में बेचा जाता है, जिनके साथ प्रशासन का अनुबंध है। जैविक कचरे को कई केंद्रों पर मवेशी, बतख और मुर्गियों को खिलाया जाता है जबकि अन्य अवशेष बायोगैस डायजेस्टर और कंपोस्टिंग में उपयोग किए जाते हैं। अजैविक कचरे की 17 श्रेणियां हैं और पेपर, प्लास्टिक, इलेक्ट्रिक सामान इत्यादि सहित कई उपश्रेणियां हैं जिन्हें अंबिकापुर में निर्माताओं को रीसाइक्लिंग के लिए बेचा जाता है।”

स्वच्छ भारत से जुड़े इस प्रयास में ऋतू को वेल्लोर स्थित इंडिया क्लीन सर्विस के संस्थापक सी श्रीनिवासन ने असिस्ट किया है जो कि सॉलिड-लिक्विड रिसोर्स मैनेजमेंट (एसएलआरएम) में माहिर हैं।

मई 2016 तक, प्रशासन ने इस स्वच्छता मिशन के तहत सभी 48 वार्ड को जोड़ लिया था। इस डोर-टू-डोर सेवा के लिए स्थानीय निवासी भी हर महीने 50 रूपये से लेकर 500 रूपये तक का भुगतान करते हैं।

स्त्रोत: नगर निगम अंबिकापुर

आज शहर में 447 महिलायें इन 48 ‘कचरा पृथक्करण केंद्र’ पर सुबह 7 बजे से लेकर शाम के 5 बजे तक काम करती हैं। प्रशासन के अनुसार, वे नियमित रूप से सरकारी प्रायोजित स्वास्थ्य जांच-पड़ताल के अलावा मास्क, दस्ताने, एप्रन और जैकेट जैसे सभी आवश्यक सुरक्षा उपकरणों के साथ काम करती हैं।

“छत्तीसगढ़ में महिलायों का समूह हरी और नारंगी रंग की साडी पहने पुरे शहर में जाकर कचरा इकट्ठा करता है, इसे अलग करता है और इसी सब प्रक्रिया में ये लोग इस छोटे से शहर अंबिकापुर को साफ़-सुथरा बनाते हैं। ‘ग्रीन वोरियर्स’ के नाम से जाने जाने वाली ये महिलायें राज्य की राजधानी से 400 किलोमीटर दूर इस शहर की पहचान बन गयी हैं। अंबिकापुर 2 लाख से कम जनसँख्या वाले शहर की केटेगरी में भारत में सबसे ज्यादा साफ़-सुथरा शहर है,” पिछले साल की बिजनेस स्टैण्डर्ड रिपोर्ट के मुताबिक।

आख़िरकार ये प्रयास सफल हुए, शहर के प्रवेश द्वार पर 16 एकड़ में खुली लैंडफिल अब एक स्वच्छता जागरूकता पार्क है, जबकि प्रशासन ने समुदायिक डस्टबिन की संख्या 200 से घटाकर 5 कर दी है।

“यह एक आत्मनिर्भर मॉडल है। प्रत्येक महिला अपने काम और रीसायकल पदार्थों की बिक्री से लगभग 5 हज़ार रूपये प्रति माह तक कमा लेती है। हमने इस पुरे प्रयास में लगभग 6 करोड़ रूपये खर्च किये थे। जिसमें से 2 करोड़ रूपये हम अभी तक कमा चुके हैं। इस कमाई हुई धनराशी को इन स्वच्छता कर्मचारियों पर खर्च किया जाता है,” सैन ने हिंदुस्तान टाइम्स को बताया।

इसके अलावा गार्बेज क्लिनिक पर कचरा इकट्ठा करने वाली टीम के सुपरवाईजर को एक टेबलेट दिया जाता है, जहाँ पर सभी जानकारी अपलोड की जा सके।

बेशक, ऋतू सैन का यह कदम सराहनीय है और इस मॉडल के भारत के बाकी शहरों में भी लागू किया जा सकता है।

मूल लेख: रिनचेन नोरबू वांगचुक

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