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केरल के लिए यूएई से 700 करोड़ न लेने की यह है असली वजह!

केरल में भयानक बाढ़ के कारण होने वाले विनाश के बाद, राज्य सरकार को राहत और पुनर्वास के लिए 2600 करोड़ रुपये की जरूरत है। इस बीच, संयुक्त अरब अमीरात ने 700 करोड़ रुपये की मौद्रिक सहायता का वादा किया है। लेकिन केंद्र संयुक्त अरब अमीरात सरकार की सहायता को स्वीकार नहीं कर सकता है।

केरल में भयानक बाढ़ के कारण होने वाले विनाश के बाद, जहां 230 से अधिक लोगों ने अपनी जान गंवा दी है, राज्य सरकार को राहत और पुनर्वास के लिए 2600 करोड़ रुपये की जरूरत है। राज्य सरकार की याचिका का जवाब देते हुए, केंद्र ने 600 करोड़ रुपये की शुरुआती राशि जारी की और राहत सामग्री के आयात पर कस्टम ड्यूटी और जीएसटी हटा दिया है।

इस बीच, संयुक्त अरब अमीरात (जहां केरल के हजारों प्रवासी लोग काम करते हैं) ने 700 करोड़ रुपये की मौद्रिक सहायता का वादा किया है, जो कि केंद्र द्वारा जारी की गयी राशि से 100 करोड़ रुपये अधिक है।

ख़बरों की माने तो केंद्र संयुक्त अरब अमीरात सरकार की सहायता को स्वीकार नहीं कर सकता है। और इस बात के लिए बहुत से लोगों का गुस्सा सोशल मीडिया पर फुट रहा है। ये लोग मानते हैं कि उनकी सरकार केरल के लिए पर्याप्त काम नहीं कर रही है और विदेशी सरकार से धन को खारिज कर दिया गया है, जो कि लाखों लोगों के जीवन के लिए बहुत जरूरी है।

हालांकि, सच थोड़ा मुश्किल है, और अपनी कई खामियों के बावजूद केंद्र सरकार यहां छोटापन नहीं दिखा रही है, बल्कि दिसंबर 2004 में पहली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार द्वारा लंबे समय से चलने वाली नीति का अनुसरण कर रही है। दरअसल, उसी वर्ष विनाशकारी सुनामी के बाद यह नीति शुरू की गई थी। इस सुनामी में तमिलनाडु और अंडमान और निकोबार तट के विशाल इलाके बर्बाद हो गए थे और 12,000 से अधिक लोगों की मौत हुई।

द टेलीग्राफ की रिपोर्ट के अनुसार तत्कालीन प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था, “हमें लगता है कि हम खुद ही इस स्थिति का सामना कर सकते हैं और यदि आवश्यक हुआ तो हम उनकी मदद लेंगे।” इस प्रकार 2013 से विदेशी सरकारों से सहायता स्वीकार नहीं करने की नीति बनी।

द इंडियन एक्सप्रेस से एक उच्च स्तरीय अधिकारी ने कहा, “सबसे पहले, तब से सरकारों ने महसूस किया है कि भारत में इस तरह की आपदाओं को संभालने की क्षमता है। और दूसरी बात, किसी भी सरकार से स्वीकार करने से दूसरों के लिए भी रास्ते खोलने पड़ेंगे, क्योंकि किसी एक देश से स्वीकार करते हुए, दुसरे किसी देश को मना करना मुश्किल होगा।”

किसी से सहायता लेने की बजाय भारत का मानना ​​है कि बढ़ती आर्थिक शक्ति के रूप में, भारत में एक ‘सहायता करने वाले देश’ की छवि बनाये रखने की क्षमता है। भारत ने आपदा ग्रस्त देश जैसे हैती (साल 2010 के भूकंप में 5 मिलियन डॉलर दिए) और पाकिस्तान (2005 भूकंप के बाद 25 मिलियन डॉलर दिए) की मदद कर अपनी इस छवि को साबित किया है।

यहां तक ​​कि 2013 में, जब संयुक्त राज्य सरकार ने उत्तराखंड में बाढ़ पीड़ितों के लिए 150,000 डॉलर (90 लाख रुपये) की अपमानजनक सहायता की पेशकश की, तो तत्कालीन वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने कहा कि व्यक्तिगत विदेशी सरकारों की बजाय राहत के लिए एशियाई विकास बैंक और विश्व बैंक जैसे बहुपक्षीय सहायता एजेंसियों से मदद ली जाएगी।

2013 में, विदेश मामलों के प्रवक्ता सैयद अकबरुद्दीन (अब संयुक्त राष्ट्र के स्थायी प्रतिनिधि) ने कहा:

“बचाव और राहत कार्यों के मामले में एक सामान्य नीति के रूप में, हमने इस का पालन किया है कि हमारे पास आपातकालीन आवश्यकताओं का जवाब देने की पर्याप्त क्षमता है।”

हालांकि, यह अंतरराष्ट्रीय आपदा राहत नीति केवल विदेशी सरकारों तक ही सीमित है, न कि व्यक्तियों और दान का काम करने वाले नॉन-प्रॉफिट संगठनों के लिए।

“विदेशी देशों में आपदा प्रबंधन क्षेत्र में काम कर रहे भारतीयों या गैर सरकारी संगठनों से सहायता के लिए मना करना संभव नहीं है। उनके फंड को प्रेषण मार्ग के माध्यम से स्वीकार किया जा सकता है,” एक उच्च स्तरीय अधिकारी ने द इंडियन एक्सप्रेस को बताया।

साल 2004 से, भारत, उत्तराखंड (2013-बाढ़) और कश्मीर (2005-भूकंप, और 2014-बाढ़) में विनाशकारी प्राकृतिक आपदाओं के लिए रूस, संयुक्त राज्य अमेरिका और जापान समेत कई देशों से राहत सहायता से मना कर चुका है।

मूल लेख: रिनचेन नोरबू वांगचुक

संपादन – मानबी कटोच


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