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धूप, पानी और हवा का अध्ययन कर, बनातीं हैं सस्टेनेबल भवन, जानिए कैसे

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अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद, आर्किटेक्ट अनघा जोशी और मधुरा जोशी ने आम लोगों की आर्किटेक्चर से संबंधित परेशानियों को हल करने के लिए, अपनी कंपनी Lab A+U की शुरुआत की। जिसके तहत वे अभी तक करीब 60 परियोजनाओं पर काम कर चुके हैं।

जलवायु परिवर्तन की उभरती चुनौतियों को देखते हुए, आज भारत में ‘ग्रीन बिल्डिंग’ का चलन काफी बढ़ गया है। लेकिन, इस तकनीक की सबसे बड़ी खामी यह है कि इसमें घर पहले बनाया जाता है और ऊर्जा की खपत को कम करने के लिए इंतजाम बाद में किये जाते हैं।

इन्हीं चुनौतियों को देखते हुए दो दोस्तों ने, अपनी पढ़ाई पूरी होने के बाद कुछ अलग करने का प्रयास किया।

यह कहानी है, गुजरात के बड़ौदा की रहने वाली आर्किटेक्ट अनघा जोशी और महाराष्ट्र के औरंगाबाद की रहने वाली मुधरा जोशी की। एक ओर जहाँ अनघा ने दिल्ली स्थित ‘स्कूल ऑफ प्लानिंग एंड आर्किटेक्चर’ से अपनी पढ़ाई पूरी की, तो दूसरी ओर मधुरा ने ‘लंदन स्थित ऑक्सफोर्ड ग्रुप’ से अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद, भारत में अपने डिजाइन की बदौलत आम लोगों की परेशानियों को हल करने की दिशा में अपने कदम बढ़ाने शुरू किये।

दोनों ने मिल कर साल 2017 में Lab A+U स्टूडियो की शुरुआत की। उनकी टीम में फिलहाल अशफाक राणा, रितु सिंह, पाहिनी शाह जैसे कुशल आर्किटेक्ट भी हैं। 

अपने इस वेंचर के तहत वे अभी तक करीब 60 परियोजनाओं पर काम कर चुके हैं। आज हम आपको उनकी कुछ चुनिंदा परियोजनाओं के बारे में बताने जा रहे हैं।

पांढरी स्कूल, औरंगाबाद

औरंगाबाद शहर से 30 किमी दूर बसा है पांढरी गाँव। Lab A+U स्टूडियो ने हाल ही में इस गाँव में, एक स्कूल बनाने का काम पूरा किया है।

पूर्व मे ‘पांढरी स्कूल’ की स्थिति काफी खराब थी। इसके रेनोवेशन की जिम्मेदारी उनके कंधों पर थी।

इस कड़ी में मधुरा बताती हैं, “इस स्कूल को ‘नभांगन’ नाम की एक गैर सरकारी संस्था के साथ मिलकर बनाया जा रहा है। इसके तहत दो चरणों में काम होने वाला है, तथा पहले चरण का काम पूरा हो चुका है।”

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पंधारी स्कूल

वह बताती हैं, “हमने इस स्कूल को बनाने के लिए लोगों को एकजुट करने का काम 2018 में शुरू किया था। इसके बाद हमने यह तय किया कि हमें इसे कैसे अंजाम देना है। अंततः स्कूल बनाने का काम 2019 में शुरू हुआ और यह स्कूल पिछले महीने से शुरू भी हो चुका है।”

स्कूल परिसर में करीब 12000 वर्ग फीट जगह है। लेकिन स्कूल बनाने के लिए महज 35 फीसदी जमीन का इस्तेमाल किया गया है। बाकी 65 फीसदी जमीन पर एक ‘मिनी फॉरेस्ट’ विकसित किया जायेगा।

परियोजना को लेकर अनघा कहती हैं, “यह एक सूखा प्रभावित गाँव है, जिसकी आबादी 3000 है। इसे देखते हुए हमने इस स्कूल को कुछ ऐसे विकसित करने का फैसला किया कि यहाँ बच्चों को पढ़ाई और खेल-कूद के साथ-साथ, स्थानीय लोगों को पर्माकल्चर से संबंधित सुविधा भी मिले।”

यह परियोजना उनके लिए काफी कठिन थी। अनघा बताती हैं कि उन्हें इस स्कूल को बनाने के लिए गाँव से 30 किमी दूर औरंगाबाद शहर से कंटेनरों से पानी मंगाना पड़ता था।

स्कूल में खेलते बच्चे

इस स्कूल को बनाने में काफी कम पानी के इस्तेमाल के साथ ही, सीमेंट और स्टील को भी काफी कम इस्तेमाल में लाया गया है।

मधुरा बताती हैं, “इस स्कूल को बनाने के लिए स्थानीय स्तर पर उपलब्ध ईंट और रेडीमेड स्ट्रक्चर का इस्तेमाल किया गया है। जिससे इस स्कूल को बनाने में 40 फीसदी तक कम खर्च आया।”

पहले चरण का काम पूरा हो चुका है। जिसके तहत कुल चार क्लास और दो शौचालय बनाए जा चुके हैं। इस स्कूल की सभी सात कक्षाएं अभी बनाई जानी हैं। जैसे-जैसे उन्हें फंड्स मिलते जायेंगे, वे आगे का काम बढ़ाते जाएंगे।

काबिल-ए-गौर है कि यहाँ पहले से मौजूद पेड़ों को स्कूल बनाने के दौरान काटा नहीं गया। साथ ही, स्कूल को इस तरीके से बनाया गया है कि मल से बनने वाली खाद का इस्तेमाल बागवानी के लिए किया जा सके।

स्कूल में पौधे लगाते स्थानीय

इस कड़ी में, गाँव के सरपंच दीपक मोरे कहते हैं, “इस स्कूल की स्थिति पहले काफी खराब थी। बदहाल क्लासरूम के अलावा, यहाँ पानी और शौचालय की कोई व्यवस्था नहीं थी। इस वजह से, बच्चों को पढ़ाई में काफी दिक्कत आती थी।”

वह आगे कहते हैं, “लेकिन, अब इस स्कूल का चेहरा पूरी तरह से बदल गया है। यहाँ बच्चों के लिए एक बेहतर क्लासरूम के साथ ही, एक अच्छा खेल का मैदान है। इस स्कूल को बनाने में स्थानीय लोगों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिससे उनमें इसके प्रति एक स्वामित्व की भावना है। हमें उम्मीद है कि इस प्रयास से स्कूल में बच्चों की उपस्थिति बढ़ेगी और वे अपनी शिक्षा पूरी करेंगे।”

इंद्र कॉम्पलेक्स, बड़ौदा

अनघा बताती हैं कि यह एक कमर्शियल बिल्डिंग प्रोजेक्ट था। यहाँ बारिश के दिनों में पानी जमा हो जाता था। जिससे 40 ऑफिसों के लिए यहाँ काम करना काफी मुश्किल हो जाता था। इसे देखते हुए उन्होंने बारिश के पानी को रीयूज, रीसायकल और रीस्टोर करने का फैसला किया।

बरगद के पेड़ को बिना काटे विकसित किया गया अंडर ग्राउंड वाटर रिचार्ज सिस्टम

अनघा कहती हैं, “हमने कुछ अलग निर्माण करने के बजाय ‘रेनवाटर रीसायकल सिस्टम’ और ‘अंडर ग्राउंड वाटर रिचार्ज सिस्टम’ विकसित करने का फैसला किया। जिसके फलस्वरूप यहाँ 40 फीसदी पानी स्टोर होने लगा। जिसका इस्तेमाल लोग अपने वाहन धोने के लिए कर सकते हैं। साथ ही, सोखते (व्यर्थ बहते पानी को जमा करने के लिए गड्ढा) की वजह से ग्राउंडवाटर रिचार्ज भी 60% बढ़ गया है।”

इसके अलावा, वे छत्तीसगढ़ में एक ऐसा ‘वुडन हाउस’ बनाने की योजना बना रहे हैं, जहाँ छत पर सोलर पैनल की व्यवस्था से लेकर बेकार पानी को फिल्टर कर उसे दैनिक कार्यों में इस्तेमाल में लाये जाने तक का इंतजाम है। यह एक मॉडल हाउस होगा। जिसे ज्यादा रखरखाव की जरूरत नहीं होगी। इसे एक जगह से दूसरी जगह तक शिफ्ट किया जा सकता है।

वुडन हाउस की सांकेतिक तस्वीर

किस उद्देश्य के साथ करती हैं काम

अनघा कहती हैं, “हम क्लाइंट की जरूरतों को समझते हुए, ‘रीजनरेटिव आर्किटेक्चर’ के सिद्धांत पर काम करते हैं। इसका अर्थ है, साइट पर जहाँ तक संभव हो पुरानी संरचनाओं को बचा कर अपनी परियोजनाओं को अंजाम देना।”

मधुरा कहती हैं, “आज ‘ग्रीन बिल्डिंग’ का काफी चलन है। इसमें घर को पहले बनाकर, बाद में उर्जा की खपत को कम करने का प्रयास किया जाता है। यहाँ तक कि ग्लास बिल्डिंग होने के बावजूद, ‘ग्रीन सर्टिफिकेट’ मिल जाता है। आज दिल्ली में घर बनाने के लिए दूसरी जगहों से संसाधनों को उपलब्ध करवाया जाता है। ऐसे में, देश के आम लोगों में ‘सस्टेनेबल आर्किटेक्चर’ को बढ़ावा देने के लिए धूप, पानी और हवा का विश्लेषण कर, स्थानीय संसाधनों से घरों को बनाना जरूरी है।”

अनघा अंत में कहती हैं कि उनके सभी प्रोजेक्ट ऐसे थे, जिनसे लाभ कमाने के बजाय उन्होंने समुदायिक स्तर पर लोगों को ‘स्टेनेबल आर्किटेक्चर’ से जोड़ने का कार्य किया। 

हमें आशा है कि जागरूक आर्किटेक्ट की इस नयी पीढ़ी के साथ, हम एक बेहतर कल की नींव रख पाएंगे। पर इसके लिए ज़रूरी है, हम सभी का इस क्षेत्र में जागरूक होना और अपने घर, ऑफिस या किसी भी भवन के निर्माण के समय, कम से कम साधनों का उपयोग करते हुए पर्यावरण की रक्षा करना!

आप Lab A+U स्टूडियो से फेसबुक पर संपर्क कर सकते हैं।

संपादन – प्रीति महावर

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