कहानी खादी की: हजारों वर्षों की वह परंपरा, जिसने तय किया सभ्यता से फैशन तक का सफर

Story of Khadi

भारतीय समाज में खादी का इस्तेमाल सभ्यता के आरंभ से ही रहा है। इसने आजादी की लड़ाई में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यही कारण है कि खादी केवल कोई कपड़ा नहीं, बल्कि एक विचार है।

भारत में खादी को सभ्यता के आरंभ से ही व्यवहार में लाया जा रहा है। आजादी की लड़ाई में, महात्मा गांधी ने ग्रामीण स्वरोजगार और आत्मनिर्भरता के लिए खादी को बढ़ावा देना शुरू किया। इस प्रकार, यह स्वदेशी आंदोलन का अभिन्न अंग बन गया। यही कारण है कि आजादी के सात दशकों के बाद भी, भारतीय समाज में खादी की एक खास स्वीकृति है।

वास्तव में, खादी भारतीय वस्त्र विरासत का प्रतीक है। यही वजह है कि इस अत्याधुनिक दौर में भी, भारतीयों के बीच खादी वस्त्रों का चलन और जलवा कम नहीं हुआ है।

खादी का मूल शब्द “खद्दर” है। यह भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान में हाथ से बने कपड़ों के लिए प्रयुक्त होता है। खादी कपड़े सूती, रेशम, या ऊन से बने हो सकते हैं।

क्या है इतिहास

भारत में हाथ से धागों की कताई और बुनाई प्राचीन काल से चली आ रही है। सिंधु घाटी सभ्यता में भी इसके प्रमाण मिलते हैं। प्राचीन काल में, खादी के व्यवहार का सबसे बड़ा साक्ष्य मोहनजोदड़ो के पुजारी की मूर्ति है, जिसे कंधे पर लबादे पहने हुए दिखाया गया है। इसमें प्रयोग की गई आकृतियों को सिंध, गुजरात और राजस्थान में आज भी देखी जा सकती है।

खादी की जीवंतता के कई और उल्लेख भी हैं, जैसे – अलेक्जेंडर ने भारत पर अपने आक्रमण के दौरान मुद्रित और चित्रित कपास की खोज की। बाद में, व्यापार मार्गों की स्थापना के फलस्वरूप एशिया और यूरोप के कई हिस्सों में कपास का परिचय हुआ।

मध्यकाल तक, भारत में हाथ से बुने हुए मलमल पूरी दुनिया में अपनी एक अभूतपूर्व छाप छोड़ चुका था। खासकर, ढाका का मलमल जो उस वक्त भारत का ही अंग था। यह मलमल शाही घरानों का प्रतीक बन गया था।

मुगल शासक भी इस कपड़े की खूबसूरती से अछूता न रह सके। मुगलों के साथ देश में कपड़ों पर होने वाली कई कढ़ाई का प्रवेश हुआ। आज इस कढ़ाई के पाश्‍नी, बखिया, खताओ, गिट्टी, जंगीरा जैसे कई रूप देखने को मिलते हैं। 

मलमल के कपड़े में 18वीं सदी की एक तस्वीर

बाद में, 17वीं सदी के अंत तक, भारतीय सूती वस्त्रों का विस्तार यूरोप में बड़े पैमाने पर हो चुका था।

जबकि, अंग्रेजों ने अपना स्वार्थ साधने के लिए यहाँ के बुनकरों का कारोबार ही नष्ट कर दिया, ताकि वे अपना पैर यहाँ पसार सकें।

इसके जवाब में, महात्मा गाँधी ने खादी को आजादी के लड़ाई में एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया।

1915 में, गांधी जी जब दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे, तो उन्होंने देखा कि यहाँ अंग्रेजों का कपड़ा उद्योग अपने चरम पर था। वे यहाँ से कच्चा माल ले जाकर कपड़े तैयार करते थे। फिर, वे इन तैयार कपड़ों को यहीं बेचते थे। इससे स्थानीय कारोबार पूरी तरह से खत्म हो चुका था। 

वैसे तो स्वदेशी आन्दोलन काफी वर्षों से चल रहा था। लेकिन, गांधी जी ने इसकी गंभीरता को पूरी तरह से आजादी की लड़ाई में उतरने के बाद हुआ। 

देशवासियों की दुर्दशा को देखकर, गांधी जी को खादी ही वह अस्त्र नजर आया, जिससे वे लोगों को एक सूत्र में पिरो सकते थे। 

एक तरफ, गांधी जी को स्थानीय खादी को बढ़ावा देना एक अंग्रेजों को कमजोर करने का अचूक अहिंसात्मक हथियार लगा। तो, वहीं दूसरी ओर, इससे भारतीय जनमानस में जात-पात के भाव को भुला, रोजगार के साधन को पुनः विकसित करने में भी मदद मिली। 

गांधी जी ने 1920 के शुरुआती दिनों में, ग्रामीण स्वरोजगार और आत्मनिर्भरता के लिए खादी को बढ़ावा देना शुरू किया। इस तरह, जल्द ही यह स्वदेशी आंदोलन का एक प्रतीक बन गया।

उन्होंने अपनी किताब यंग इंडिया में उल्लेख किया है कि चरखा, देश की समृद्धि और स्वतंत्रता का प्रतीक है। उन्होंने आह्वान पर आजादी के हर एक नायक चरखे का इस्तेमाल, खुद के कपड़े को बनाने के लिए करने लगे। 

गांधी जी ऐसा इसलिए कर रहे थे, ताकि भारतीय जनमानस में एक नये विमर्श को धार दिया जा सके। खादी का गौरवशाली इतिहास तो था ही। उन्होंने इसकी ताकत को समझा और ऐलान कर दिया कि खादी सिर्फ एक कपड़ा नहीं है, बल्कि यह एक जीवन धारा है। 

उनका मानना था, “खादी के वस्त्र पहनना न सिर्फ अपने देश के प्रति प्रेम और भक्ति-भाव दिखाना है, बल्कि कुछ ऐसा पहनना भी है, जो भारतीयों की एकता दर्शाता है।”

इसी विचार के तहत, 1925 में, असहयोग आंदोलन के बाद, उन्होंने ऑल इंडिया स्पिनर्स एसोसिएशन की स्थापना की, ताकि खादी उद्योग को और बढ़ावा दिया जा सके। इस संस्थान ने अगले कई वर्षों तक बुनकरों की दशा सुधारने में उल्लेखनीय भूमिका निभाई।

आजादी के बाद

आजादी के बाद देश में खादी और ग्रामोद्योग आयोग का गठन किया गया। यह ‘खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग अधिनियम 1956’ के तहत भारत सरकार द्वारा निर्मित एक वैधानिक निकाय है। 

इसका उद्देश्य ग्रामीण इलाकों में खादी और गाँव आधारित उद्योगों की स्थापना और विकास के लिए योजनाएं बनाना, प्रचार करना, सुविधाएं और सहायता प्रदान करना है। इसका मुख्यालय मुंबई में है। जबकि, अन्य कार्यालय दिल्ली, भोपाल, बेंगलुरु, कोलकाता, मुंबई और गुवाहाटी में हैं।

90 के दशक में बदला परिदृश्य

90 का दशक आते-आते खादी ने फैशन का रूप ले लिया था। बता दें कि 1989 में, केवीआईसी द्वारा मुंबई में पहला खादी फैशन शो किया गया था। जहाँ 80 से अधिक तरह के खादी वस्त्रों को प्रदर्शित किया गया था। 

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इसके बाद, 1990 में मशहूर फैशन डिजाइनर, रितु बेरी ने दिल्ली के क्राफ्ट म्यूजियम में प्रतिष्ठित ट्री ऑफ लाइफ शो में अपने खादी कलेक्शन को पेश किया। जिससे फैशन इंडस्ट्री में खादी को एक नई पहचान मिली।

आज सरकार द्वारा खादी को प्रोत्साहित करने के लिए काफी बल दिया जा रहा है। आंध्रप्रदेश, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों से प्राप्त खादी से, पश्चिमी और भारतीय दोनों तरह की परिधानों को तैयार किया जा रहा है। यही कारण है कि इसकी पैठ भारत के साथ-साथ दूसरे देशों में भी बनी हुई है।

उदाहरण के तौर पर, कोलकाता के फैशन डिजाइनर देबरुन मुखर्जी द पायनियर से कहते हैं, “खादी को हमेशा गुजरा हुआ कल मान लिया जाता है; मैं इस मानसिकता को बदलना चाहता था। मैं खादी को ऐसे रूप में देखना चाहता था, जहाँ इसे किसी भी मौके पर पहना जा सके। खादी के कपड़े सिर्फ खूबसूरत नहीं होते हैं, बल्कि इसे पहनने से आपको एक अलग एहसास होता है।”

वह कहते हैं कि इसके अलावा, खादी कपड़ा बिल्कुल प्राकृतिक होता है। जिससे त्वचा को कोई नुकसान नहीं होता है और यह आपको गर्मी के दिनों ठंडक और सर्दियों में गर्मी का एहसास देता है।

यही कारण है कि खादी कपड़े महंगाई के मामले में भी कम नहीं हैं। आप इन कपड़ों को केवीआईसी स्टोर पर खरीद सकते हैं।

अंत में, यही कहा जा सकता है कि आज खादी को बढ़ावा देना जरूरी है। लेकिन, इससे भी जरूरी है कि एक ऐसे माहौल को विकसित किया जाए, जहाँ खादी बुनना किसी की मजबूरी नहीं, बल्कि और गर्व और सम्मान का विषय हो। ताकि, आधुनिकता के प्रयास में हम अपने इतिहास और परंपरा को न भूल जाएं।

संपादन – जी. एन झा

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