28 डिग्री में रह सकते हैं, तो AC की क्या ज़रुरत? ऐसे कई सवाल सुलझा रहे हैं यह आर्किटेक्ट

"भारत में ग्रीन बिल्डिंग को लेकर जिस प्रैक्टिस को अपनाया जा रहा है, उससे घर में ऊर्जा की काफी खपत होती है और यह पर्यावरण के अनुकूल नहीं है।” - संजय प्रकाश

हाल के वर्षों में, भारत में ग्रीन बिल्डिंग का चलन बढ़ गया है, जो निरंतर जलवायु परिवर्तन की उभरी चुनौतियों को देखते हुए जरूरी भी है। लेकिन, एक वास्तविकता यह भी है कि देश में ग्रीन बिल्डिंग की रेटिंग के लिए न तो स्थानीय परिस्थितियों का कोई ख़ास ध्यान रखा जाता है और न ही भवनों की ठीक से जाँच की जाती है।

लेकिन, आज हम आपको एक ऐसे शख्स से मिलाने जा रहे हैं, जिन्होंने व्यवस्था की इन खामियों को देखते हुए अपनी अलग ही वास्तुकला शैली को विकसित कर लिया।

62 वर्षीय संजय प्रकाश मूलतः दिल्ली के रहने वाले हैं और पिछले 40 वर्षो से वास्तुकला से जुड़े हुए हैं। साल 2012 में उन्होंने अपने फर्म शिफ्ट आर्किटेक्ट की नींव रखी और इसके तहत उन्होंने सतत वास्तुकला से जुड़ी कई उल्लेखनीय परियोजनाओं को अंजाम दिया है।

द बेटर इंडिया से बातचीत के दौरान संजय बताते हैं, “हमारे देश में लीड और ग्रिहा जैसी संस्थाएँ  ग्रीन बिल्डिंग का प्रमाण देती हैं, लेकिन इसमें कई खामियाँ हैं और नतीजन वास्तविक ऊर्जा और संसाधनों की कड़ी जांच किए बिना भवनों को स्वीकृति मिल जाती है।”

green building in india
संजय प्रकाश

वह आगे बताते हैं, “मेरा उद्देश्य ऐसी संरचनाओं के निर्माण का है, जिससे हम भविष्य में जलवायु परिवर्तन और आर्थिक चुनौतियों का सामना कर सकें। क्योंकि, देश में अभी जिस ग्रीन बिल्डिंग प्रैक्टिस को अपनाया जा रहा है, उससे घर में ऊर्जा की काफ़ी खपत होती है और यह पर्यावरण के अनुकूल नहीं है।”

इन्हीं चुनौतियों को देखते हुए, संजय ने कई वर्षों तक आर्किटेक्चर के क्षेत्र में काम करने के बाद 2012 में ‘शिफ्ट आर्किटेक्ट’ की शुरुआत की। इसके तहत वह निम्न चार सिद्धांतों के तहत काम करते हैं: 

सामर्थ्य (Sufficiency) – इसके तहत संजय यह निर्धारित करते हैं कि घर में प्रति वर्ग मीटर ऊर्जा की कितनी खपत होगी।

वह बताते हैं, “सबसे पहले हम यह तय करते हैं कि घर में कितनी ऊर्जा की जरूरत है। यदि हम 28 डिग्री टेम्परेचर में रह सकते हैं, तो एसी के साथ 23 डिग्री टेम्परेचर की जरूरत क्यों? अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं में इस सवाल को हमेशा नज़रअंदाज किया गया।”

समानता (Equity) – इसके तहत संजय यह सुनिश्चित करते हैं कि वह जिस संरचना को बना रहे हैं, लोग उससे एक जुड़ाव महूसूस करें और लोगों को रोजगार का ज़रिया भी मिले। संजय बताते हैं, “आज के दौर में जिस शैली से संरचनाएँ बनाईं जा रहीं हैं, उससे रोज़गार के अवसर कम हो रहे हैं और देश के मौजूदा हालात को देखते हुए यह ज़रूरी है कि इस क्षेत्र में अधिक से अधिक लोगों को रोज़गार मिले। हमारी कोशिश रहती है कि हमारे कार्यों में अधिकतम लोगों की भागीदारी हो।”

लचीलापन (Resilient) – संजय बताते हैं कि आज ग्लोबल वार्मिंग और इकोनॉमिक क्लाइमेट की समस्या दिनों दिन बढ़ती जा रही है, ऐसे में संरचनाओं को इस ढंग से बनाना जरूरी है, जिससे इन्हें भविष्य में किसी दूसरे काम में इस्तेमाल किया जा सके।

पहचान (Identity) – संजय बताते हैं, “इसके तहत मैं यह कोशिश करता हूँ कि संरचनाओं को स्थानीय शैली में बनाया जाए, ताकि उसकी एक पहचान हो और लोगों को इससे एक जुड़ाव महसूस हो।”

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मुम्बई में एक कार्यक्रम में भाग लेते संजय

वह आगे बताते हैं, “आज हमारे देश में पश्चिमी देशों का व्यापक प्रभाव है, जिस वजह से हमारी पहचान धूमिल हो रही है। एक वास्तुकार के तौर पर, हमें इस दिशा में मजबूती से कदम बढ़ाने की जरूरत है।”

संजय ने अपने करियर में देश के विभिन्न हिस्सों में कई उल्लेखनीय प्रोजेक्ट किए हैं, जिसमें से कुछ चुनिंदा परियोजनाओं की जानकारी निम्न है: 

बांबू रिसर्च एंड ट्रेनिंग सेंटर, चंद्रपुर, महाराष्ट्र

संजय बताते हैं, “यह महाराष्ट्र सरकार की एक योजना थी। इसके तहत हमने चंद्रपुर में आदिवासियों के लिए बांबू रिसर्च एंड ट्रेनिंग सेंटर का निर्माण किया। इसके कॉलम, छत और बीम को पूर्णतः बाँस और मिट्टी से बनाया गया था।”

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महाराष्ट्र के चंद्रपुर में बाँसों से बना अर्धनिर्मित रिसर्च एंड ट्रेनिंग सेंटर

वह आगे बताते हैं, “इस क्षेत्र में काफी बाँस उपलब्ध है और लोग इससे कुर्सी, टेबल जैसी कई चीज़ें बनाते हैं। इस प्रोजेक्ट के जरिए, हमारा उद्देश्य था कि लोग बाँस से घर बनाना भी सीखे, ताकि वह अपने पास मौजूद संसाधनों का और बेहतर इस्तेमाल कर अपने जीवन स्तर को ऊपर ले जा सकें।”

इंडियन पवेलियन, वर्ल्ड एक्सपो 2010, शंघाई

संजय बताते हैं, “इसके तहत हमने 35 मीटर व्यास के साथ एक गुबंद (Dome) बनाया। इसमें 36 धनुषाकार रिब्स का इस्तेमाल किया गया, जो 6 परस्पर बाँसों और क्षैतिज रूप में 8 मोसो बाँसों से बने रिंग से जुड़े थे। इसकी छत इंटरलॉक्ड प्रीकास्ट कंक्रीट के तख्तों से बनाई गई थी, जबकि फाउंडेशन में स्टील पाइप का इस्तेमाल किया गया।”

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इंडियन पवेलियन, वर्ल्ड एक्सपो 2010, शंघाई

वह आगे बताते हैं, “इसके पैनल में टेराकोटा टाइल का इस्तेमाल किया गया और इसकी दीवारों पर जातक कथाओं का वर्णन किया गया। वहीं, इसके अंदर कई औषधीय पौधे भी लगाए गए थे, जिससे हमें अपने गौरवशाली इतिहास का बोध होता था।” 

टी-जेड हाउसिंग डेवलपमेंट, बीसीआईएल, बैंगलुरु

संजय कहते हैं, “यह ऊर्जा दक्षता के संबंध में आविष्कारशील तकनीकों  के इस्तेमाल के साथ पहली आवासीय परियोजना है, जिसे कार्बन क्रेडिट का सर्टिफिकेट मिला। इसके निर्माण के दौरान खुदाई की गई मिट्टी को पुनः इस्तेमाल में लाया गया। इसकी आंतरिक दीवारों को 10 सेमी के सीमेंट ब्लॉक से बनाया गया, जबकि बाहरी फर्श पर सिरेमिक टाइल, लकड़ी और पत्थर का इस्तेमाल किया गया।”

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बैंगलुरु स्थित टी-जेड हाउसिंग डेवलपमेंट

वह आगे बताते हैं, “इसमें छत पर सब्जी उगाने के लिए सीमेंट की थैलियों और कंटेनरों का इस्तेमाल किया गया है, जो घर को थर्मल कूलिंग प्रदान करते हैं। इसके अलावा यहाँ पौधों की सिंचाई के दौरान बेकार हुए पानी को फिल्टर करके इस्तेमाल में लाने की भी व्यवस्था की गई है।”

इस प्रोजेक्ट में रिमोट कंट्रोल इलेक्ट्रिक स्विच, हाइब्रिड सीएफएल / एलईडी लाइटिंग, एनर्जी एफिशिएंट रेफ्रिजरेटर, सोलर पावर्ड वॉटर हीटिंग, सोलर वॉशरूम वेंटिलेशन, वॉटर कॉन्शियस मीटर एंड पावर अवेयरनेस मीटर जैसे फीचर्स भी हैं। इन्हें सतत विकास के उद्देश्यों को हासिल करने के लिए स्थापित किया गया है।

ओपन स्कूल स्टेडियम, लेह

20 हज़ार दर्शकों की क्षमता वाले इस ओपन स्टेडियम में 1,000 छात्रों के लिए एक होस्टल भी बनाया जा रहा है। इस स्टेडियम को सोलर पैसिव तकनीक के ज़रिए डिजाइन किया गया है। इसके हर कमरे को थर्मली इंसुलेटेड भी किया जाएगा।

प्रतीकात्मक फोटो

आप संजय प्रकाश से फेसबुक पर संपर्क कर सकते हैं।

संपादन – मानबी कटोच

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