मुझसे पहली सी मोहब्बत

मैं कतई नहीं मानता कि ये एक आग का दरिया है और डूब के जाना है. मोहब्बत तो दूध-शहद की नदी है.. रमणीय यात्रा है.

क अमीर मोहब्बत होती है,
एक ग़रीब मोहब्बत.
इसके पहले कि आपत्ति की चिंगारियों को हवा दें, जान लें कि मेरे कहने का दौलत, रूपये-पैसे से कोई लेना-देना नहीं है. अमीर मोहब्बत आपकी ज़िन्दगी आसान कर जाती है.. और ग़रीब मोहब्बत खोखला.

मैं कतई नहीं मानता कि ये एक आग का दरिया है और डूब के जाना है.
मोहब्बत तो दूध-शहद की नदी है.. रमणीय यात्रा है.
हाँ लहरें तेज़ हो जाती होगीं,
रास्ते में चलती होंगी शोरीली आँधियाँ, ओले
कभी खाने से भरे होंगे कभी ख़ाली झोले
कभी उछल कर सर पर बैठ जाओगे, कभी तुनक कर चार दिन नहीं बोले

जिसने आँख बंद करके, संगीत की लय पर झूमते यात्रा की – वो अमीर हो गया.
जिस बेचारे ने जोड़-घटाना किया
गणित लगाया, हवा को पढ़ा, पानी को परखा
बारिश-ठण्ड-गरमी से जूझने का इंतेज़ाम किया
उसे सुनाई देता रहा सुब्हो-शाम का चरखा
उसे संगीत सुनाई देना बंद हो गया
उसे मौसम पूरी तरह दिखाई देना बंद हो गया
उसे डर लग गया
उसकी मोहब्बत ग़रीब हो गयी

जब इधर से नाव में चढ़े हैं सरकार
तो ये नहीं है कि उधर जाना है
इस पार – और उस पार, सब एक है
‘उधर’ कुछ नहीं होता (वैसे ये तुम्हें भी पता है)
नाव – सफ़र – चलना ही गंतव्य है
गणित लगा लो; या नहीं लगाओ और सफ़र के मज़े लो
होना वही है – धूप होगी, रात होगी, हिचकोले होंगे
कुछ भी कर लो – नाव में हो तो होना वही है
फिर से- जोड़-तोड़ लगाने की जद्दोजहद में हम संगीत नहीं सुन पाते हैं
आकाश के रंगों को बदलता नहीं देख पाते हैं
वो पक्षी जो नाव के साथ-साथ चल रहा है दोस्त दिखने के बजाय – परेशानी लगने लगता है. आँख बंद करके जीवन का आनंद लेते हुए चलना अकर्मण्यता या बेवकूफ़ी नहीं है. ऐसा बनियों को दिखता है.

मोहब्बत और ज़िन्दगी के साथ बनियापन (अपने जलाल पर भी) आपको सुरक्षा का महज़ एक वहम ही देता है. सच में, वह सुरक्षा एक वहम के सिवा कुछ नहीं होती. सिर्फ़ सफ़र ही अपना है. अकेले ही चलना है.. और तुम्हारा साथ अगर मेरे सफ़र को आसान करता है तो ज़िन्दगी अमीर है, वह मोहब्बत अमीर है..

मुन्नू, तुम्हें सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की ये कविता फिर से याद दिला दूँ. जो ‘तुम्हारे साथ रह कर’ शीर्षक से कही थी उन्होंने:-

हर चीज़ का आकार घट गया है,
पेड़ इतने छोटे हो गये हैं
कि मैं उनके शीश पर हाथ रख
आशीष दे सकता हूँ,
आकाश छाती से टकराता है,
मैं जब चाहूँ बादलों में मुँह छिपा सकता हूँ।

तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे महसूस हुआ है
कि हर बात का एक मतलब होता है,
यहाँ तक कि घास के हिलने का भी,
हवा का खिड़की से आने का,
और धूप का दीवार पर
चढ़कर चले जाने का।

तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे लगा है
कि हम असमर्थताओं से नहीं
सम्भावनाओं से घिरे हैं,
हर दिवार में द्वार बन सकता है
और हर द्वार से पूरा का पूरा
पहाड़ गुज़र सकता है।

गुलज़ार साहब ब्राण्ड का इश्क़ रोने-धोने-तकलीफ़-और-आग का दरिया तैर कर पार करने जैसी बचकानी बातों का इश्क़ इसलिए है कि वहाँ एक दूसरे में कुछ ढूँढने की कोशिश है – वहाँ (एक-दूसरे में) कुछ नहीं रखा साल-दो साल के बाद. पता है न कि 80% शादियाँ asexual होती हैं. मोहब्बत एक दूसरे का हाथ पकड़ कर अपने आपको ढूँढ़ने का नाम है. तुम आ जाओ तो मैं उपन्यास लिख लूँ, अपनी फ़िल्म बना लूँ, नाचना सीख लूँ, जिम जाने लगूँ, दोपहर भर खिड़की के बाहर बादलों को देखता रहूँ और शाम को कपड़ों को ले कर तुमसे लड़ाई करूँ.. फिर दो घण्टे बाद तुम्हारे लिए खिचड़ी बना कर दरवाज़ा खटखटाऊँ, सुबह चार बजे उठ कर मक्खी के भिनभिनाने के संगीत पर कविता लिखूँ.. दूसरी लड़कियों के साथ फ़्लर्ट करूँ.. फिर एक दिन उठूँ और पूरी दुनिया बदल दूँ.

यह है मोहब्बत का काम.. देखिये कितना मैं-मैं-मैं है. और यही सही है. यही अमीर मोहब्बत है. फिर से – तुमसे मिलने के बाद (तुम्हारे कमीनेपन के बावजूद) अगर ‘मेरी’ सुबह का आकाश ज़्यादा रंगीन होता है. मैं घास की आवाज़ सुन पाता हूँ क्योंकि कल रात एक क्षण के लिए तुम्हारी आँखों ने कुछ कहा था. यह अमीरी है. यह इश्क़ की बात है, ज़िन्दगी की बात है. मोहब्बत (अपने जीवन) के साथ मेहनत-मशक्कत मत करो भाई.. ‘आग के दरिया में तैरने की जलन’ को ग़रीब (और मिडिल क्लास) मानसिकता के कुओं में रहने वालों के छोड़ दो. वही लोग संगीता की चिट्टियाँ कलाइयाँ देख कर कूद कर शादी कर लेंगे और कुछ सालों बाद उसकी बढ़ती कमर पर तंज़ कसेंगे।

मिले तो मिले नहीं मिले तो न सही.
आगे बात हुई तो हुई – न तो न सही.
मुझसे पहली सी ही मोहब्बत की उम्मीद रखना मेरे दोस्त – मुझे पहली सी ही मोहब्बत देना.
ताकि मेरे तुम्हारे ग़मे-दहर के झगड़े, झगड़े न रहें.

ये कविता पहले देखी भी हो तो फिर से देख लो – फिर दस मिनट अपना फ़ोन-वोन अलग रख कर कल्ले बैठ जाओ और अपने आप से बात करो कि ग़रीबी चाहिए या अमीरी. और हाँ उस बुरीसीरत ईगो की आवाज़ें शान्त करो जो कह रहा है कि ‘अमीरी तुम्हें मुबारक हो राकेश बाबू, हम ग़रीबी में जी लेंगे..’

इसे पढ़ सुन कर भी अगर कोई अंतर नहीं पड़ा तो बता देना, मैं बालकनी से छलाँग लगा लूँगा – लेकिन अगर कुछ अंतर पड़ा हो तो बताना ज़रूर.


लेखक –  मनीष गुप्ता

फिल्म निर्माता निर्देशक मनीष गुप्ता कई साल विदेश में रहने के बाद भारत केवल हिंदी साहित्य का प्रचार प्रसार करने हेतु लौट आये! आप ने अपने यूट्यूब चैनल ‘हिंदी कविता’ के ज़रिये हिंदी साहित्य को एक नयी पहचान प्रदान की हैं!


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