शहीद के साथी: लोकमान्य तिलक के सच्चे साथी, चापेकर भाइयों को नमन!

चापेकर भाइयों की गिरफ्तारी पर लोकमान्य तिलक ने अपने अख़बार, 'केसरी' के ज़रिए उनकी कहानी को जन-जन तक पहुँचाया!

हर सुख भूल, घर को छोड़, क्रांति की लौ जलाई थी
बरसों के संघर्ष से इस देश ने आज़ादी पाई थी
आज़ाद, भगत सिंह, और बिस्मिल की गाथाएं तो सदियाँ हैं गातीं
पर रह गए वक़्त के पन्नों में जो धुंधले
कुछ और भी थे इन शहीदों के साथी!

शहीद-ए-आज़म भगत सिंह, राम प्रसाद बिस्मिल, चंद्र शेखर आज़ाद, रानी लक्ष्मी बाई और भी न जाने कितने नाम हमें मुंह-ज़ुबानी याद हैं। फिर भी ऐसे अनेक नाम इतिहास में धुंधला गए हैं, जिन्होंने क्रांति की लौ को जलाए रखने के लिए दिन-रात संघर्ष किया। अपना सबकुछ त्याग खुद को भारत माँ के लिए समर्पित कर दिया।

यही वो साथी थे, जिन्होंने शहीद होने वाले क्रांतिकारियों को देश में उनका सही मुकाम दिलाया और आज़ादी की लौ को कभी नहीं बुझने दिया। इस #स्वतंत्रता दिवस पर हमारे साथ जानिए कुछ ऐसे ही नायक-नायिकाओं के बारे में, जो थे शहीद के साथी!

पुणे के रहने वाले चापेकर भाई, दामोदर, बालकृष्ण और वासुदेव पर बाल गंगाधर तिलक के विचारों का गहरा प्रभाव था। शायद यही वजह थी कि जब एक ब्रिटिश अधिकारी ने भारतीयों का अपमान किया तो इन तीनों भाइयों ने उसे गोली मार दी।

यह अधिकारी था, पुणे की स्पेशल प्लेग कमेटी(SPC) का अध्यक्ष वॉल्टर चार्ल्स रैंड। 1896 में महाराष्ट्र में प्लेग की जानलेवा बीमारी फैली। शुरुआत में तटीय इलाके इससे प्रभावित हुए। मुंबई के नज़दीक होने के कारण पुणे में भी जल्द ही इस बीमारी का प्रकोप बढ़ गया। ब्रिटिश सरकार ने बीमारी को रोकने के लिए कुछ ठोस कदम उठाने की शुरुआत की।

रैंड को जब नियुक्ति मिली तब उन्होंने कुछ अच्छे काम किए, लेकिन धीरे-धीरे वह भारतीयों का अपमान करने लगे। उन्होंने एक ऐसा दल तैयार किया, जिसके पास किसी भी घर में घुस कर लोगों के साथ मनचाहा व्यवहार करने का पूरा अधिकार था। यह टुकड़ी चेकअप के नाम पर आदमी, औरतों और बच्चों के कपड़े तक उतरवा देती थी और ऐसा कई बार सार्वजनिक रूप से किया जाता था।

रैंड के इस रवैये के प्रति तिलक ने अपने अखबार ‘केसरी’ के ज़रिए विरोध प्रकट किया।

तिलक के विचारों ने चापेकर भाइयों को काफी प्रभावित किया और उन्होंने ठान लिया कि वह अपने भाई-बहनों के अपमान का बदला लेंगे। तीनों भाइयों ने मिलकर रैंड को मारने की योजना बनाई और एक दिन मौका पाकर उसे गोली मार दी।

जब इन तीनों को गिरफ्तार किया गया, तब तिलक ने अपने अखबार के ज़रिए इन क्रांतिकारियों की कहानी को जन-जन तक पहुँचाया। उन्होंने सार्वजानिक तौर पर चापेकर भाइयों का समर्थन किया।

जब चापेकर भाइयों को मौत की सजा सुनाई गई, तब लोकमान्य तिलक के करीबी लाला लाजपत राय ने भी लिखा था, “चापेकर बंधु वास्तव में भारत के क्रांतिकारी आंदोलन के जनक थे।”

उस समय, क्रांतिकारियों की भावनाएं कुछ ऐसी ही थीं। भले ही वह कभी एक-दूसरे से न मिलें, लेकिन किसी न किसी तरह से एक-दूसरे का समर्थन करते थे। एक-दूसरे के सच्चे साथी बनकर साथ देते थे और इन्हीं की वजह से आज हम आज़ाद भारत में साँस ले रहे हैं।

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