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एक ज़िंदगी और हज़ारों ख़्वाहिशें, मिलिए हिमाचल के पहले पैरा टेबल टेनिस खिलाड़ी से!

2018 में उन्होंने इंदौर में अपना पहला नेशनल्स खेला था और अब वह 2024 के पैरालिम्पिक्स की तैयारी कर रहे हैं और एक बार फिर से देश की जर्सी पहन देश का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिनिधित्व करने का सपना देख रहे हैं।

शुक्रवार की देर शाम बेंगलुरु के एक कैफ़े से एक लड़का-लड़की निकल रहे थे। उन दोनों ने बाहर एक दिव्यांग को देखा। लड़की ने भावविभोर होकर उसके हाथ में 10 रूपये थमा दिए और वो दोनों चलते बने। लेकिन कुछ आगे जाकर लड़के को आभास हुआ कि वह कोई भिखारी नहीं था, वो दोनों वापस आये और लड़की ने उस लड़के से तुरंत माफ़ी मांगी। लड़के ने बड़े हँसते हुए कहा, “अरे क्या मैडम! कुछ देना था तो 500-1000 देती, यह क्या 10 का नोट थमा दिया?” वह लड़की हैरान-सी चुप थी और लड़के ने बिना किसी द्वेष के उनकी गलती को नज़रअंदाज़ कर दिया। 

अभी ऊपर इस किस्से में हमनें जिस दिव्यांग लड़के की बात की वह हैं पियूष शर्मा जो हिमाचल के पहले पैरा टेबल टेनिस खिलाड़ी हैं, जिन्होंने अपनी ज़िंदगी के नए मायने बनाये। पियूष का मानना है, “अब अगर कोई किसी अपाहिज को अपाहिज  नहीं कहेगा तो क्या कहेगा? हाँ, कहने के तरीके होते हैं लेकिन सुनने के भी नियम होते हैं। यह आप पर है कि आप किसी की कही बात को किस तरह से लेते हो और अपनी ज़िंदगी को कैसे आगे बढ़ाते हो।” 

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पियूष शर्मा

कुछ ऐसा रहा है पियूष का प्रारंभिक जीवन

27 वर्षीय पियूष स्पाइना बिफिडा नामक बीमारी के साथ जन्मे थे। यह एक ऐसी बीमारी है जो इंसान को चलने में अक्षम बना देती है। नतीजतन 14 की उम्र तक भी वह छोटे बच्चों जैसा रेंगते थे और उनके माता-पिता अपने कंधो पर उठा कर उन्हें स्कूल छोड़ कर आते थे। उनका घर तो खूबसूरत वादियों में था लेकिन ज़िंदगी काटों के जैसी रही।

अपने बचपन को याद करते हुए पियूष बताते हैं, “आज मैं जो भी हूँ, उसमें उनका बहुत बड़ा हाथ है। शिमला ज़्यादा बड़ी जगह नहीं है, एक्सपोज़र मुझे कुछ ख़ास बड़ा नहीं मिला लेकिन मेरे माता-पिता ने मुझे बचपन से ही कभी कुछ करने से नहीं रोका। मैं सारे तरह के खेल बैठ कर ही खेलता था, क्रिकेट, फुटबॉल से लेकर कंचे पिठ्ठू सब। इसके अलावा पढ़ाई में भी अच्छा ही था। हालाँकि, कभी कोई कोचिंग नहीं ली मैंने।” 

वह आगे बताते हैं, “अक्सर माता-पिता अपने बच्चों पर पाबंदी लगाते हैं, ख़ास कर तब जब वो दूसरों से थोड़ा अलग हों लेकिन मेरे मामले में ऐसा कुछ नहीं हुआ था। शायद इसी वज़ह से मैं चीज़ों को समझ पाया और तरह-तरह के प्रयोग और अनुभव करता गया। पढ़ाई, एक्स्ट्रा एक्टिविटीज़, मैं सब में अव्वल था और इसका श्रेय मेरे माता-पिता को ही जाता है।”

पियूष के पिता की एक छोटी दवा दुकान थी जो पियूष मानते हैं कि उनके कारण कभी आगे नहीं बढ़ सकी। उनके पिता उन्हें और उनके बस्ते को सवेरे स्कूल की ऊँची सीढ़ियों पर उठा कर ले जाते थे, वापस आ कर अपनी दुकान संभालते और शाम को फिर उन्हें वापस ले कर आते थे। लोअर मिडिल क्लास फैमिली के एक वह इकलौते कमाने वाले सदस्य थे।

पिता के कंधो से लेकर खुद के सहारे चलने तक का सफ़र

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14 साल के बाद पियूष ने जब खुद के पैरों पर चलना शुरू किया

पियूष बताते हैं कि उनके परिवार ने आर्थिक परेशानियाँ भी बहुत देखी हैं। ट्रीटमेंट काफ़ी महँगा था और अभाव अनेक। “उस वक़्त टीवी पर ‘नारायण सेवा संस्थान’ का एड आया करता था जिसमें लोग रेंगते हुए जाते थे लेकिन अपने पैरों पर खड़े हो कर वापस निकलते थे,” पियूष 12 साल पुरानी बात को याद करते हुए कहते हैं।

उन्होंने बताया, “चैरिटेबल ट्रस्ट होने के कारण ऑपरेशन फ्री था और लोग अपनी क्षमतानुसार कुछ सेवा राशि देते थे। हमने वहाँ जाने का निश्चय किया। ऑपरेशन में एक साल लग गए। मैं पढ़ाई में अच्छा था, मुझे घर से एग्जाम देने का मौक़ा भी मिल गया और मेरा साल बर्बाद नहीं हुआ।”

डॉक्टरों ने आख़िरी ऑपरेशन के बाद पियूष को कहा था, “हमें जो करना था कर दिया, अब आप पर है कि आप कितनी मेहनत करते हो। हमने बस आपको खड़ा कर दिया, चलना आपको है।”  पियूष आगे कहते हैं”उदयपुर से घर लौटते वक़्त मेरे दिमाग़ में बस यही था कि अब चलना है।” 

काफ़ी गिरने पड़ने के बाद भी पियूष ने कभी हिम्मत नहीं हारी। अपनी बैसाखी को लिए वह हर कोने को देखने निकल पड़ते। शिमला के मॉल रोड को ख़ुद से देखना अद्भुत था। लेकिन जब पहली बार वह ख़ुद के सहारे अपनी स्कूल की ऊँची-ऊँची सीढ़ियों पर चढ़ रहे थे, उनकी आँखों में आँसू आ गए। “मेरे माता-पिता कभी कोई शिकायत किये बिना मुझे इतने सालों तक यहाँ ले कर आये। आसान नहीं रहा होगा ना,” पियूष ने भावुक आवाज़ में कहा।

पियूष के पैर पूरी तरह से ठीक नहीं हुए हैं। वह अब भी बैसाखी ले कर चलते हैं लेकिन ज़्यादा बैसाखी के उपयोग से उनके पैरों में बेहद दर्द होता है जिसके कारण आप उन्हें अक्सर व्हीलचेयर पर पाएंगे। लेकिन अब उन्हें किसी और पर डिपेंडेंट नहीं होना पड़ता।

जब जीवन में आया टर्निंग पॉइंट

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अपने कॉलेज के दोस्तों एक साथ पियूष

पियूष ने एजुकेशन लोन लेकर एनआईटी हमीरपुर से कंप्यूटर साइंस में इंजीनियरिंग कर बेंगलुरु में ओरेकल में जॉब ज्वाइन की। 4 साल हो गए हैं उन्हें काम करते हुए और वह मानते हैं कि उनके कॉलेज और कार्यस्थल से उन्हें काफ़ी काफ़ी कुछ सीखने को मिला।

वह कॉलेज के दिनों से ही बैंड में गिटार बजाते और गाना गाते रहे हैं। अपनी कॉलेज मैगज़ीन एडिटर होने के साथ-साथ वह काफ़ी तरह के स्पोर्ट्स और एक्स्ट्रा एक्टिविटीज में आगे रहे। उनके ऑफिस के एक सीनियर ने उन्हें टेबल टेनिस खेलता देख ‘पैरा टेबल टेनिस’ खेलने की सलाह दी और पियूष हमेशा की तरह कुछ नया करने को राज़ी थे।

पियूष अपने पहले नेशनल टूर्नामेंट को याद कर बताते हैं, “मुझे पता नहीं था कि एक व्हीलचेयर कितने काम की चीज़ हो सकती है! साधारण-सी कुर्सी पर बैठ कर खेलने से कई ज़्यादा आसान था व्हीलचेयर पर बैठ कर खेलना। मेरा गेम और अच्छा होता गया।” 

पहला राष्ट्रीय टूर्नामेंट

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एक टूर्नामेंट के दौरान पियूष

2018 में उन्होंने इंदौर में अपना पहला नेशनल्स खेला। स्पोर्ट्स व्हीलचेयर ना होने के कारण उन्होंने यूँ ही नार्मल व्हीलचेयर रेंट पर ली और स्पोर्ट्स व्हीलचेयर के जैसा बनाने के लिए उस पर 2 तकिये रखकर खेला। वहाँ जाकर उन्हें पता चला कि उनके जैसे कई और थे जिन्होंने विकलांगता को मात देकर ज़िंदगी की ऊँचाइयों को हासिल किया है।

पियूष हिमाचल प्रदेश से ‘पैरा टेबल टेनिस’ में प्रतिनिधित्व करने वाले इकलौते खिलाड़ी थे। अपने पहले नेशनल टूर्नामेंट में मैडल तो  जीत नहीं सके लेकिन जीवन के कई सबक वह वहाँ से ले कर लौटे। आगे चल कर वह ‘दिव्यांग मैत्री स्पोर्ट्स अकादमी’ के कोर टीम मेंबर भी बने।

पियूष फ़िलहाल अपने घर के इकलौते कमाने वाले सदस्य हैं और अंतर्राष्ट्रीय कंपनी शैल के साथ काम करते हैं। इंदौर में दो बार नेशनल टूर्नामेंट खेलने के बाद वह नीदरलैंड में इंटरनेशनल टूर्नामेंट भी खेल कर आये हैं । उनका मानना है कि देश में पैरा स्पोर्ट्स खेलने वालों के लिए व्यवस्था ठीक नहीं और सरकार को इस पर काफ़ी ध्यान देने की ज़रूरत है लेकिन वह साथ ही यह भी मानते हैं कि कोच और ट्रेनिंग सेंटरों को भी अपने खेल का तरीक़ा उनके हिसाब से बदलना चाहिए। एक अच्छा कोच बेहद मायने रखता है।

उन्होंने अपनी ज़्यादातर प्रैक्टिस ऑफिस में ही की लेकिन वक़्त के साथ उनका भी एक अच्छे कोच ने साथ दिया। कोरोनावायरस के कारण इस साल के नेशनल टूर्नामेंट रद्द कर दिए गए हैं लेकिन वह 2024 के पैरालिम्पिक्स की तैयारी कर रहे हैं और एक बार फिर से देश की जर्सी पहन देश का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिनिधित्व करने का सपना देखते हैं।

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इसके अलावा उन्होंने ज़िला स्तर पर व्हीलचेयर क्रिकेट और बास्केटबॉल भी खेला है। एक गायक, संगीतकार, लेखक, विकलांगता कार्यकर्ता और मोटिवेशनल स्पीकर होने के साथ-साथ उन्हें मेटल बैंड को सुनना और कॉन्सर्र्ट्स में जाना बेहद पसंद है। पियूष का मानना है कि भारत में कॉन्सर्ट स्थलों पर उनके जैसे लोगों के लिए शायद ही कोई व्यवस्था होती है। वह अपनी बहन की पढ़ाई का भी पूरा ज़िम्मा उठा रहे हैं।

विकलांगता को जीतने न दें

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जब पियूष को उनके जीवन के किसी अफ़सोस या पछतावे के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा, “पछतावा करने या मुश्किलों से हार मान लेने से अच्छा है कि उनका मुक़ाबला किया जाए। हमें बस क़दम उठा कर चलने की ज़रूरत है, रास्ते ख़ुद-ब-ख़ुद बनते चले जाते हैं। समाज हमेशा आपको नीचे खींचने की कोशिश करेगा। लेकिन आपको रुकना नहीं चाहिए, आपको जीवन में आगे बढ़ते रहना चाहिए। मैंने सीख लिया है कि आलोचनाओं और बुरी घटनाओं को कैसे हँस कर संभाला जाए। आप अपंग हो तो मुश्किलें आएँगी लेकिन अगर आप में काबिलियत है तो कोई आपको रोक भी नहीं सकता। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि आप अपनी विकलांगता को एक बहाना और सहानुभूति का स्रोत बनाते चलें।”

वैसे तो भविष्य को लेकर पियूष ज़्यादा चिंतित नहीं रहते हैं लेकिन हर दिन कुछ नया करते रहने की इच्छा को पूरी करते हैं। बाकि हमारे इस नायक की बकेट लिस्ट काफ़ी लंबी है। पियूष एक मोटिवेशनल स्पीकर भी हैं और लोगों की कहानियाँ सुनना बेहद पसंद करते हैं।

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