कुक से नेचर गाइड बने तौकीर समझते हैं पक्षियों की जुबां, कर रहे प्रकृति का संरक्षण!

बाइनाक्यूलर के जरिये चिड़ियों के व्यवहार और मूवमेंट का अध्ययन करने वाले तौकीर केवल रंग और आवाज से ही कुछ सेकंड्स में चिड़िया का नाम बता देते हैं।

तौकीर इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस यानी आईआईएस बेंगलुरू की टीम के साथ एक कुक के तौर पर जुड़े थे, लेकिन पक्षियों में उनकी दिलचस्पी ने उनका जीवन बदल दिया। चिड़ियों की उनकी जानकारी किसी भी पक्षी विशेषज्ञ से बढ़कर है। वह उत्तराखंड के टॉप बर्डर्स में नाम बना चुके हैं। वह राजाजी नेशनल पार्क के हाथी, टाइगर, लैपर्ड और भालुओं को उनकी गंध और आवाज से पहचान लेते हैं। केवल रंग और आवाज से पहचानकर वह सेकंड्स में चिड़िया का नाम बता देते हैं। यही वजह है कि बेंगलुरू की टीम के साथ उन्हें बर्ड डाटा एनालिसिस का मौका मिला और आज वह प्रकृति और वन्यजीव संरक्षक के तौर पर जाने जाते हैं। आज ई-बर्ड पर उत्तराखंड की चिड़ियों की 650 से ज्यादा प्रजातियाँ रिकार्ड हैं। इनमें से सर्वाधिक 460 का नजारा करने के लिए तौकीर राज्य में पांचवें स्थान पर गिने गए।

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तौकीर आलम

 

पहली बार 18 साल की उम्र में किया बाइनोक्यूलर का इस्तेमाल

तौकीर बताते हैं कि जब वह 18 साल के थे, उन्होंने पहली बार बाइनोक्यूलर का इस्तेमाल किया। इसके जरिये उन्होंने पहली बार बुलबुल को देखा। इसके बाद उनके सामने पक्षियों का अनोखा संसार खुल गया। तौकीर कहते हैं, “मैं राजाजी नेशनल पार्क में रहने के दौरान बचपन में कई बार चिड़ियों को देखता था, लेकिन उस वक्त वह मेरे लिए केवल चिड़िया होती थी। उसके रंगों को देखना मुझे अच्छा लगता था। बाइनाक्यूलर के जरिये मैंने चिड़ियों के व्यवहार और मूवमेंट का अध्ययन किया। इसी खूबी ने मुझे शोधकर्ताओं के लिए उपयोगी बताया और मेरी जिंदगी महज कुक तक सीमित होकर नहीं रह गई।”

 

स्कूल ड्रॉपआउट हैं तौकीर, जंगल पाठशाला बना, शोधकर्ताओं से सीखा सर्वे

तौकीर आलम जनजाति वन गुज्जर समुदाय से आते हैं। तौकीर बेशक स्कूल ड्रापआउट हैं, लेकिन आज उत्तराखंड के टॉप बर्डर्स में शुमार हैं। 24 साल के तौकीर इस वक्त ओपन स्कूल से बीए प्रथम वर्ष में अध्ययरनत हैं। वह पक्षी शोधकर्ताओं के साथ काम करते हैं। छात्रों को जंगलों की सैर पर ले जाने के साथ ही बर्ड वाचिंग फेस्टिवल आयोजित करने में मदद करते हैं। तौकीर की पाठशाला जंगल ही है। तौकीर बताते हैं कि उन्होंने बचपन के दिन जानवरों और कीटों को निहारते हुए गुजारे हैं। नेचर साइंस इनिशिएटिव से जुड़े हैं। उनमें नया सीखने की जबरदस्त उत्कंठा है। उन्होंने इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, बेंगलुरू के सेंटर फॉर इकोलाजिकल साइंसेज के शोधकर्ताओं की मदद से शोधकर्ताओं से ट्रांसेक्ट सर्वे करना सीखा। इसे साथ ही बीज वितरण भी। उन्होंने नेचर साइंस इनीशिएटिव के शोधकर्ताओं से बर्ड कॉलरिंग और पक्षियों मूवमेंट को ट्रैक करना सीखा।

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फ़ील्ड डाटा कलेक्शन के दौरान तौकीर आलम

 

आसान नहीं थी तौकीर की जिंदगी, परिवार के संग हुए विस्थापित

तौकीर बताते हैं कि उनकी जिंदगी कतई आसान नहीं रही है। गर्मियों के वक्त वन गुज्जर चरवाहे अपनी भैंसों के साथ हिमालय के ऊपर की ओर प्रस्थान कर जाते। मानसून के बाद इनमें से कुछ राजाजी नेशनल पार्क लौट आते। यह जिंदगी 1983 तक जारी रही। जब राजाजी को नेशनल पार्क घोषित कर दिया गया तो वन गुज्जरों को जंगल से बाहर विस्थापित कर दिया गया। 2003 में तौकीर के परिवार को भी हरिद्वार के गैंडीखाता में विस्थापित होना पड़ा। वह कहते हैं कि उनके परिवार को बुवाई और फसल उगाने को कहा गया, लेकिन उन्हें इसका कोई आइडिया नहीं था। आलम को स्कूल में भर्ती किया गया, लेकिन फिर कुछ साल बाद वह बाहर हो गए। उन्हें पढ़ने में रुचि नहीं थी। अगले दो साल वह घर पर ही रहे। उनके माता-पिता ने उन्हें या तो पढ़ाई करने या फिर काम करने को कहा। 2012 में उन्हें सेंटर फार इकोलाजिकल साइंसेज रिसर्च की टीम ने कुक के रूप में रख लिया।

 

डा. सौम्या प्रसाद ने दिया मौका और तौकीर ने मुड़कर नहीं देखा

तौकीर आलम के अनुसार वह खाना बनाना नहीं जानते थे, लेकिन उन्होंने इसे घर से बाहर और अपनी प्रिय जगह जंगल में रहने के लिए एक बेहतर अवसर समझा। इसी दौरान इकोलाजिस्ट डॉ. सौम्या प्रसाद ने पक्षियों से जुड़ी उनकी खासियत देखते हुए उन्हें टीम में फील्डवर्क के लिए ज्वाइन करने को कहा। रिसर्च टीम, वन गुज्जरों को टीम में शामिल करती थी, क्योंकि वह जंगल के कोने कोने से परिचित होते थे। आलम उन सबसे अलग थे। वह साक्षर थे। वह चिड़ियों के नाम पढ़ सकते थे और उन्हें पहचान भी सकते थे। उन्होंने तकनीकी ज्ञान भी जल्द हासिल किया।

 

बच्चों के लिए चला रहे बर्ड वाचिंग ट्रेनिंग प्रोग्राम

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तौकीर बच्चों के लिए एक बर्ड वॉचिंग ट्रेनिंग प्रोग्राम चला रहे हैं। वह खास तौर पर वन गुज्जर जनजाति के ड्रापआउट बच्चों में एक स्किल डेवलप करना चाहते हैं। वह मानते हैं कि जंगल से विस्थापित होने के बाद उनकी संस्कृति में बहुत बदलाव आया है। मेनस्ट्रीम सोसायटी का हिस्सा बनने के लिए स्किल जरूरी है। बर्ड वाचिंग ट्रेनिंग प्रोग्राम के दौरान वह गाँव के बच्चों को ट्रिप पर ले जाते हैं और उन्हें बताते हैं कि चिड़िया किस तरह फल खाकर बीज को एक से दूसरी जगह ले जाने में मदद करती है। उनका कहना है कि शहरों में तो बच्चों के पास डिस्कवरी, नेशनल जियोग्राफिक जैसे चैनल भी देखने को हैं। यहाँ से उन्हें कई तरह की जानकारी प्राप्त होती हैं। ग्रामीण बच्चों के पास कुछ नहीं।

 

शोधकर्ताओं को फील्ड विजिट कराते हैं, बच्चों को ले जाते हैं कंजरवेशन ट्रिप पर

 2012 में एक प्रोफेशनल के रूप में बर्ड वाचिंग शुरू करने वाले तौकीर आज आठ साल बाद नेचर साइंस इनिशिएटिव के साथ फील्ड को-आर्डिनेटर के रूप में कार्य कर रहे हैं। वह नेचर गाइड भी हैं। शोधकर्ताओं को फील्ड विजिट कराते हैं। फील्ड उपकरणों को आसानी से हैंडल करते हैं। पक्षियों से संबंधित डाटा कंप्यूटर में फीड करते हैं, उसका विश्लेषण करते हैं। इसके साथ ही वह सरकारी स्कूलों के बच्चों को जंगल की कंजरेवशन ट्रिप पर ले जाते हैं। बर्ड वाचिंग फेस्टिवल के लिए उत्तराखंड का पर्यटन विभाग उनकी ही ओर देखता है। वह पक्षियों की वीडियो फुटेज तक एनालाइज करते हैं। और यह सब कार्य उन्होंने खुद सीखा है। ई-बर्ड पर उनका आना उल्लेखनीय है। आखिर यह संसार का सबसे लंबा बायो डायवर्सिटी से जुड़ा सिटीजन साइंस प्रोजेक्ट है। इस पर पोस्ट किए गए डाटा को वैज्ञानिकों के साथ ही प्रजातियों का संरक्षण कर रहे लोग अन्य प्रजातियों की गणना करने और इनके वितरण का रियल टाइम मैप बनाने में इस्तेमाल करते हैं। संसार भर से हर साल इस पर करीब 100 मिलियन बर्ड साइट रिकार्ड की जाती हैं।

 

बर्ड वाचिंग चुनौती है, कई बार पक्षी को देखे बगैर भी लौटना पड़ता है

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तौकीर कहते हैं, बर्ड वाचिंग के लिए धैर्य की जरूरत होती है। कई बार ब्राडबिल जैसे पक्षी को देखने के लिए घंटों लग जाते हैं। कई बार वह दिखता भी नहीं। घंटों इंतजार के बाद बैरंग लौटना पड़ता है। यह प्रक्रिया बेशक थका देने वाली होती है, लेकिन अगले दिन की चुनौती भी यही होती है। वह कहते हैं, “यदि आपमें धैर्य नहीं और आप सब कुछ आसानी से पाना चाहते हैं तो इसके लिए चिड़ियाघर जाना आपके लिए अच्छा विकल्प है।” तौकीर को राजाजी नेशनल पार्क में जानवरों की गंध महसूस करना अच्छा लगता है। इसके अलावा हरिद्वार स्थित झिलमिल झील कंजरवेशन रिजर्व में बर्डिंग को भी वह एक अनोखा अनुभव करार देते है।

 

प्रकृति विज्ञानी बनने के लिए शैक्षिक योग्यता कतई जरूरी नहीं

अब आलम 24 साल के हैं। उनका भरोसा है कि नेचुरल वैज्ञानिक बनने के लिए शैक्षिक योग्यता ही एक मात्र आधार नहीं है। जंगल को जानना और साल के विभिन्न समयों के दौरान चिड़ियों की आदतों, उनके व्यवहार से वाकिफ होना भी जरूरी है। आलम बेशक शिक्षा को जरूरी नहीं मानते, लेकिन औपचारिक शिक्षा हासिल कर रहे हैं। सन् 2015 में उन्होंने उत्तराखंड स्टेट ओपन स्कूल में एनरोल कराया। 2018 के शुरू में उन्होंने 12वीं कक्षा पास की। अब वह बीए कर रहे हैं। अपना अध्ययन बढ़ाना चाहते हैं और इसके साथ ही प्रकृति संरक्षण में लगातार आगे बढ़ते जाना ही तौकीर आलम का ध्येय है। वह युवाओं को भी पक्षी संसार से जोड़ने की चाह रखते हैं, ताकि इनका संरक्षण किया जा सके।

(तौकीर आलम से उनके मोबाइल नंबर  75009 87892 पर संपर्क किया जा सकता है)

 

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