भारत में इन्होनें सबसे पहले किया था हिंगलिश का प्रयोग, बंगाल नवजागरण की रखी थी नींव!

‘द फकीर ऑफ जंघीरा’, प्रेम कहानी पर आधारित एक कविता है, भारतीय चेतना की जड़ों से जुड़ी इसी कविता को लिखने में डेरोज़ियो ने ‘हिंगलिश’ का पहला उदाहरण हमारे सामने रखा था।

आजकल हम लोग आम बोलचाल की भाषा में सिर्फ किसी एक ही भाषा का प्रयोग नहीं करते बल्कि अन्य भाषाओं के शब्द भी इस्तेमाल करते हैं। अधिकतर हिन्दी भाषी क्षेत्रों में हिन्दी के साथ-साथ अंग्रेज़ी के भी कई शब्द बोले जाते हैं जिसे आजकल के लोग हिंगलिश भाषा भी कहते हैं। लेकिन क्या आपको पता है कि हिंगलिश भाषा का सबसे पहली बार प्रयोग कब और किसने किया था? आज हम आपको यहाँ बताने वाले हैं।    

अप्रैल 1831 में कलकत्ता के हिन्दू कॉलेज ( जिसे बाद में प्रेसीडेंसी कॉलेज व वर्तमान में प्रेसीडेंसी यूनिवर्सिटी के नाम से जाना जाता है) के भद्रलोक ने एक आवश्यक मामले पर फैसला लेने के लिए बैठक की। यह मामला था एक युवा प्रोफेसर के भविष्य का जो इसी संस्थान में पढ़ाया करते थे। 22 वर्ष के प्रोफेसर हेनरी लुइस विवेन डीरोज़ीओ पर अपने विद्यार्थियों को विद्रोह के लिए उकसाने का आरोप था। 

डीरोजीओ पर आरोप था कि उन्होंने अपने छात्रों को गौ-मांस खाने, मूर्ति- पूजा का विरोध करने, जनेऊ पहनने का विरोध करने के लिए उकसाया था। संक्षेप में कहें तो परंपरा व सत्ता पर सवाल खड़ा करने का साहस दिखाया था और डीरोजीओ के छात्र उन्हीं के पदचिन्हों पर चलना आरंभ कर चुके थे। 

इस प्रोफेसर की छाप बच्चों पर इस तरह पड़ रही थी कि एक धार्मिक समारोह में एक विद्यार्थी, वेद के छंद की जगह होमर के इल्लियाड  की पंक्ति पढ़ता हुआ पकड़ा गया। 

इस बैठक में शामिल मुख्य लोगों में एक थे राम कोमुल सेन, जो केशव चन्द्र सेन ( 19वीं सदी में ब्रह्म समाज के मुख्य नेताओं में से एक) के दादा थे। इनके अलावा इस बैठक में दो ब्रिटिश भी उपस्थित थे- एक डेविड हैयर जो कलकत्ता के नामी व्यापारी, शिक्षाविद व समाजसेवक थे, दूसरे थे होरेस हेयमैन विल्सन, जो प्रशिक्षित डॉक्टर थे। विल्सन ने ऋग्वेद व अन्य रचनाओं का अंग्रेजी में अनुवाद किया था। 

भद्रलोक अपने फैसले पर अडिग थे। हेनरी लुइस विवेन डीरोज़ीओ को जाना ही था। उन्हें अब इस संस्थान में प्रोफेसर पद पर बने रहने की अनुमति नहीं मिल सकती थी।

2009 में भारतीय डाक ने डेरोजियो के नाम का एक डाक भी जारी किया था। source

हालाँकि हेयर व विल्सन इस फैसले से खुश नहीं थे लेकिन उन्होंने अपनी भावनाओं को प्रकट नहीं किया। वे किसी भी ऐसे मामले में पड़ना नहीं चाहते जिसमें भारतीय भावनाओं को ठेस पहुँचती हो। 

विल्सन ने डीरोज़ीओ को यह फैसला सुनाया। डीरोज़ीओ ने इस्तीफा देने की पेशकश तो की पर इस बात की ओर भी इशारा किया कि उन्हें अपना पक्ष रखने का एक भी मौका नहीं दिया गया। 

विल्सन ने उन्हें एक और पत्र लिखा जिसमें इस बात पर डीरोज़ीओ से सफाई मांगी गयी थी कि क्या वह नास्तिक हैं, क्या उन्होंने अपने छात्रों को अपने माता पिता की अवज्ञा करने के लिए उकसाया है और क्या उन्होंने भाई-बहन के बीच कौटुंबिक व्यभिचार को मंजूरी दी है?

ये वही आरोप हैं जिनके कारण डीरोज़ीओ को अपना पद छोडना पड़ा था। उन्होंने इन सभी आरोपों को खारिज किया और इस बात पर दबाव डाला कि उन्हें इस पद का त्याग इन गलत आरोपों के कारण नहीं बल्कि कमिटी के सदस्यों की कट्टरवाद-प्रभावित रवैये के कारण करना पड़ा। 

और इस तरह बंगाल के एक प्रभावशाली व्यक्तित्व के शैक्षणिक कैरियर का अंत हो गया।

डीरोजीओ का जीवन

अप्रैल 1809 में फ्रांसिस डीरोज़ीओ व सोफी जॉनसन डीरोज़ीओ के पुत्र के रूप में हेनरी लुइस विवेन डीरोज़ीओ का जन्म हुआ था। फ्रांसिस के पिता माइकल एक पुर्तगाली व्यापारी थे और उनकी माँ भारतीय थी। 1815 में सोफी, जो एक अंग्रेज़ थी, की मृत्यु हो गयी थी। 

ब्रिटिश सरकार के क्षेत्रों में कलकत्ता एक महत्वपूर्ण शहर रहा है, और यहीं डीरोज़ीओ बड़े हुए। उनकी पढ़ाई धुररूमटोला एकेडमी में हुई थी जिसके संस्थापक डेविड ड्रमोंड थे। 

ड्रमोंड 1813 में कलकत्ता आए थे। ड्रमोंड ने ही स्वतंत्र विचार का बीज डीरोज़ीओ में डाला था। उन्होंने ही प्रमाण का महत्व डीरोज़ीओ को बताया था। साथ ही किसी भी परंपरा को आँख बंद कर स्वीकार करने को गलत बताया। 

6 साल से 14 साल तक डीरोज़ीओ ने ड्रमोंड के स्कूल में पढ़ाई की जहाँ उनके सोच की दिशा बदली। स्कूल में क्रिकेट, नाटक व अंग्रेज़ी साहित्य में उनकी खास रुचि रही। 13 साल पूरे होने के पहले ही उनकी पहली कविता इंडिया गैजेट में सन 1822 में प्रकाशित हुई । 

14 साल में स्कूल से निकल कर डीरोज़ीओ उस कंपनी में एक क्लर्क की नौकरी करने लगे, जहाँ उनके पिता पहले से कार्यरत थे। 2 साल बाद, 16 साल की आयु में ये नील की खेती करने भागलपुर( वर्तमान में बिहार) चले गए, जहाँ वह लेखन में सक्रिय हो गए। इनकी कविताओं, जो ‘जुवेनिस’ उपमान ने छप रही थी, ने जॉन ग्रांट का ध्यान खींचा जो उस समय इंडिया गैजेट के संपादक थे। वह डीरोज़ीओ की कविताओं को प्रकाशित करना चाहते थे और इसलिए उन्होंने डीरोज़ीओ को वापस कलकत्ता आने का निमंत्रण दिया। उनकी पहली कविता-संकलन ‘पोएम्स’ 1827 में प्रकाशित हुई। 

1828 में डीरोज़ीओ वापस कलकत्ता आए और उनके हिन्दू कॉलेज में अंग्रेज़ी व इतिहास का प्रोफेसर नियुक्त कर लिया गया। इसी साल उनकी ‘द फकीर ऑफ जंघीरा, ए मेट्रिकल टेल और अदर पोएम्स  जैसी रचनाएँ प्रकाशित हुई थीं। 

बंगाल की अंग्रेजी बोलने वाले समुदाय के बीच डीरोज़ीओ अब साहित्यिक सितारे के रूप में अपनी पहचान बनाने लगे थे। ब्रिटेन में भी इनकी कविताओं को पहचान मिलने लगी थी। साहित्य जगत के थॉमस कैम्पबेल ने इस पुस्तक की सकारात्मक समीक्षा की और साथ ही 18 वर्षीय डीरोज़ीओ को एक उभरता हुआ सितारा माना। 

निष्पक्ष रूप से देखा जाये तो डीरोज़ीओ की कवितायें भले एक समय में आशाजनक दिख रही हों, पर आज साहित्यिक रुचि के क्षेत्र में थोड़ा पीछे रह जाती हैं। 

अंग्रेज़ी की छंद रूप से निकली और तत्कालीन अंग्रेज़ी शैली को अपनाती हुई इन कविताओं में मौलिकता की कमी रह जाती है। पर जो बात इनमें रुचि पैदा करती है वो यह है कि डीरोज़ीओ को ‘भारतीय’ माना जाता है और यह कवितायें भारतीय विषयों पर लिखी गयी हैं। ‘द हार्प ऑफ इंडिया’‘टू इंडिया : माइ नेटिव लैण्ड’  ऐसी ही कविताएँ हैं जो भारत व उसकी खोयी हुई प्रतिष्ठा को उजागर करती है। 

2,050 पंक्तियों वाली कविता ‘द फकीर ऑफ जंघीरा’ एक दर्दनाक अंतर-धार्मिक प्रेम कहानी है जिसमें हिन्दू, इस्लाम व ईसाई के प्रतीक का सम्मिश्रण है। भारतीय चेतना की जड़ों से जुड़ी इस कविता को लिखने में डेरोज़ियो ने ‘हिंगलिश’ का पहला उदाहरण हमारे सामने रखा। 

Without thy dreams, dear opium,
Without a single hope I am,
Spicy scent, delusive joy,
Chillum hither lao, my boy! (italics mine)
From ‘Ode—from the Persian of Half’ Queez’

डीरोज़ीओ ने कई निबंध भी लिखे हैं जो समय के साथ पढ़ने में और खूबसूरत लगते  हैं। सौन्दर्य शास्त्र से लेकर सामाजिक परिवर्तन तक के विषयों पर लिखे गए ये लेख बड़े सावधानी से चुने व शोध किए हुए दिखते हैं। 

लेकिन डीरोज़ीओ ने सबसे बड़ा योगदान हिन्दू कॉलेज के शिक्षक के रूप में दिया।

Hinglish Poet
कोलकाता में डीरोजियो की मूर्ति। source

उन्होंने अपने से कुछ ही वर्ष छोटे छात्रों को स्वतंत्र सोच के महत्व से अवगत करवाया। उन्होंने उन छात्रों को सवाल करने, बात रखने और पाठ्यक्रम से हट कर भी साहित्य को पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया। इन छात्रों के एक समूह पर उनका गहरा प्रभाव पड़ा जो डीरोज़ीओ के इस कदर भक्त बन चुके थे कि वो अक्सर अपने इस शिक्षक के घर जा कर विभिन्न मसलों पर देर तक चर्चा किया करते थे। 

डीरोज़ीओ ने एक समूह बनाया जो आपस में अक्सर मिला करता था। इसमें अधिकतर उनके छात्र थे। इस ग्रुप के लोगों को डेरोजीयन के नाम से जाना जाने लगा। प्यारी चाँद मित्रा , जो आगे चल कर एक प्रतिष्ठित लेखक (उन्होंने प्रथम बंगाली उपन्यास अलालेर घारेर दुलाल  की रचना की थी) व पत्रकार बने , इस ग्रुप  का हिस्सा थे । उनके अलावा त्रिकोणमिति का प्रयोग कर हिमालय की ऊंचाई को नापने वाले मशहूर गणितज्ञ राधानथ सिकड़र भी इस ग्रुप के सदस्य रह चुके थे। 

एक ओर जहाँ होमर, मिल्टन शेक्सपियर पाठ्यक्रम का हिस्सा थे, वहीं दूसरी ओर डीरोज़ीओ के प्रोत्साहन पर छात्र वोल्टेयार, काँट, पाइने को भी पढ़ने लगे थे। शेयली ने इस समय अत्यधिक लोकप्रियता पायी और उनके आंदोलनकारी प्रभाव छात्रों पर दिखने शुरू हो गए।  

इसका सबसे अधिक असर पड़ा हिन्दू रूढ़िवादी समाज पर और डीरोज़ीओ के व्यवहार में, जिसमें मूर्ति पूजा व जनेऊ पहनने का विरोध और गौ मांस खाने का समर्थन शामिल था,की निंदा होने लगी। 

जल्द ही यह खबर कलकत्ता के भद्रलोक तक पहुंच गयी। ऐसी बातें होने लगी कि छात्र नास्तिक बन रहे हैं, बड़ों का सम्मान नहीं कर रहे और व्यभिचार में लिप्त होते जा रहे हैं। अफवाह यह भी फैली कि डीरोज़ीओ जो स्वयं ईसाई हैं, डेरोजीयन ब्राह्मण दाखिनारंजन मुखर्जी की बहन से शादी करने वाले हैं। 

डीरोज़ीओ के विरुद्ध लोगों को खड़े होने में देर नहीं लगी और तीन साल के कार्यकाल के अंदर ही उन्हें हिन्दू कॉलेज से निकाल दिया गया। 

इसके बाद वह पत्रकारिता के क्षेत्र में कूद पड़े और ईस्ट इंडियन  समाचार पत्र की शुरुआत की जो एंग्लो इंडियन की आवाज़ बन कर उभरा ।  

अपने जीवन का 23वाँ वर्ष देखने के पहले ही 1831 में हैज़े से इनकी मौत हो गयी। 

डीरोज़ीओ के जीवन काल में लोग उन्हें  लेकर विभाजित रहे। 19वीं सदी तक ऐसा ही रहा। इनकी मृत्यु के बाद भी कुछ भारतीय इनका नाम तिरस्कार से लेते थे। पर उनके छात्र व अन्य प्रशंसक इसका अपने स्तर से विरोध करते रहे। इनकी कविताओं ने भारतीयों द्वारा अंग्रेज़ी-लेखन में एक नये लेखन-शैली  के लिए रास्ता खोला और 19वीं सदी में कई भारतीयों ने इस लेखन के रूप को अपना कर साहित्य में अपना योगदान दिया। 

डीरोज़ीओ के मार्ग को अपनाने वाले कई लोग, जिन्हें ‘यंग बंगाल’ के रूप में जाना जाने लगा, आगे चल कर वह विज्ञान, कला के क्षेत्र में नामी शख्सियत बने। सांस्कृतिक, सामाजिक व बौद्धिक आंदोलन को ही ‘बंगाल का नवजागरण’ माना गया है जिसने बंगाली समाज को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 

मूल लेख-

कवर फोटो-  Hindu CollegeWikimedia Commons

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