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‘जाति-जाति’ का शोर मचाते केवल कायर, क्रूर : रामधारी सिंह दिनकर को पढ़िए उम्मीद की कविता में

उम्मीद की कविता में आज आपके लिए रामधारी सिंह दिनकर की कथाकाव्य रचना ‘रश्मिरथी’ से कुछ पंक्तियाँ हैं। ‘रश्मिरथी’ में रामधारी सिंह दिनकर महाभारत में कर्ण के कौशल और वीरता

उम्मीद की कविता में आज आपके लिए रामधारी सिंह दिनकर की कथाकाव्य रचना ‘रश्मिरथी’ से कुछ पंक्तियाँ हैं। ‘रश्मिरथी’ में रामधारी सिंह दिनकर महाभारत में कर्ण के कौशल और वीरता के संघर्ष को प्रमुखता से सामने लाए हैं।

कर्ण की कथा सिर्फ वीरता की कथा नहीं है, काबिलियत के संघर्ष की भी गाथा है, अपने अधिकार की भी जंग है और समाज की रूढ़ियों में फंसने वाले कौशल वीरों को उम्मीद देती कथा है।
कर्ण के चरित्र पर रचते हुए दिनकर जी ने लिखा है, ” कर्णचरित के उद्धार की चिंता इस बात का प्रमाण है कि हमारे समाज में मानवीय गुणों की पहचान बढ़ने वाली है। कुल और जाति का अहंकार विदा हो रहा है। आगे, मनुष्य केवल उसी पद का अधिकारी होगा जो उसके अपने सामर्थ्य से सूचित होगा, उस पद का नहीं जो उसके माता-पिता या वंश की देन है।”

रामधारी सिंह दिनकर बिहार के मुंगेर जिले में 1908 को एक छोटे से गांव में जन्मे और इतिहास से स्नातक की पढाई पटना कॉलेज से की। दिनकर जी ओजस्वी कवि तो थे ही वे एक स्कूल के प्रधानाचार्य, भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति, भारत सरकार के हिंदी सलाहकार जैसे पदों पर भी रहे।

तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतलाके,
पाते हैं जग से प्रशस्ति अपना करतब दिखलाके।
हीन मूल की ओर देख जग गलत कहे या ठीक,
वीर खींचकर ही रहते हैं इतिहासों में लीक।

 

ऊँच-नीच का भेद न माने, वही श्रेष्ठ ज्ञानी है,
दया-धर्म जिसमें हो, सबसे वही पूज्य प्राणी है।
क्षत्रिय वही, भरी हो जिसमें निर्भयता की आग
सबसे श्रेष्ठ वही ब्राह्मण है, हो जिसमें तप-त्याग।

 

जिसके पिता सूर्य थे, माता कुंती सती कुमारी,
उसका पलना हुई धार पर बहती हुई पिटारी।
सूत वंश में पला, चखा भी नहीं जननि का क्षीर,
निकला कर्ण सभी युवकों में तब भी अद्भुत वीर।

 

तन से समरशूर, मन से भावुक, स्वभाव से दानी,
जाति गोत्र का नहीं, शील का, पौरुष का अभिमानी।
ज्ञान-ध्यान, शस्त्रास्त्र, शास्त्र का कर सम्यक अभ्यास,
अपने गुण का किया कर्ण ने आप स्वयं सुविकास।

 

नहीं फूलते कुसुम मात्र राजाओं के उपवन में,
अमित वार खिलते वे पुर से दूर कुञ्ज कानन में।
समझे कौन रहस्य? प्रकृति का बड़ा अनौखा हाल,
गुदड़ी में रखती चुन-चुन कर बड़े क़ीमती लाल।

रश्मिरथी में एक जगह कर्ण कहता है..

 

“मैं उनका आदर्श, कहीं जो व्यथा न खोल सकेंगे,
पूछेगा जग, किन्तु, पिता का नाम न बोल सकेंगे।
जिनका निखिल विश्व में कोई कहीं न अपना होगा,
मन में लिये उमंग जिन्हें चिर-काल कलपना होगा।”

..और भरी सभा में अपने जाति पर सवाल उठते ही कर्ण बोले,

 

“पूछो मेरी जाति, शक्ति हो तो, मेरे भुजबल से,
रवि-समाज दीपित ललाट से, और कवच-कुण्डल से।
पढो उसे जो झलक रहा है मुझमें तेज-प्रकाश,
मेरे रोम-रोम में अंकित है मेरा इतिहास।

 

मूल जानना बड़ा कठिन है नदियों का, वीरों का,
धनुष छोड़कर और गोत्र क्या होता है रणधीरों का?
पाते हैं सम्मान तपोबल से भूतल पर शूर,
‘जाति-जाति’ का शोर मचाते केवल कायर, क्रूर।”

रामधारी सिंह दिनकर ऐसे कवि रहे जो सरकार के साथ काम करते हुए भी जरूरत के वक़्त जनता के साथ खड़े होकर सरकार का विरोध करते रहे।

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