जब हम किसी जगह की संस्कृति और सभ्यता की बात करते हैं तो उसमें सिर्फ हमारा पहनावा, रहन-सहन या फिर भाषा ही शामिल नहीं होता है, बल्कि हमारा खान-पान भी हमारी संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। लेकिन गौर करने वाली बात यह कि आजकल हम अपने खुद के पारंपरिक खाने को भूलते जा रहें हैं।
जिन व्यंजनों और पकवानों को हमारी दादी-नानियाँ बनाया करतीं थीं, उनके बारे में आज की पीढ़ी को शायद कुछ भी न पता हो। लेकिन हम सबको मैक डी बर्गर और डॉमिनोज के पिज़्ज़ा के बारे में भली-भांति पता है। हम में से बहुत से लोग तो इस पर शायद कभी गौर भी न करें। लेकिन अपनी संस्कृति और धरोहर को खान-पान के ज़रिए सहेजने वाले लोगों की भी कमी नहीं है।
ऐसे ही लोगों में एक हैं, झारखंड की अरुणा तिर्की, जिन्होंने अपने पारंपरिक खान-पान को देश-दुनिया तक पहुंचाने का बीड़ा उठाया है।
झारखंड के ओराँव आदिवासी समुदाय से संबंध रखने वाली अरुणा ने ग्रामीण विकास के क्षेत्र में काफी काम किया है। अपने काम के दौरान उन्होंने गाँवों को, वहां के समुदायों और उनकी संस्कृतियों को बहुत करीब से समझा। अपने प्रोजेक्ट्स के लिए अरुणा बहुत से समुदायों से मिलती थीं। वहां पर उनका सीधा संपर्क बच्चों और महिलाओं से होता था, जो अक्सर कुपोषण का शिकार होते थे। वजह, स्वस्थ और पौष्टिक खाना न मिल पाना।
“मुझे यह देखकर दुःख होता था कि कैसे हम अपनी जड़ों से दूर होते जा रहें हैं। मैं एक बड़े परिवार में पली-बढ़ी हूँ। माता-पिता शिक्षक थे और उन्होंने हमेशा कोशिश की कि हमें अच्छी शिक्षा और पौष्टिक भोजन मिले। हमारे घर में हमेशा लोकल और मौसम के हिसाब से खाना बनता था,” उन्होंने बताया।
अपनी संस्कृति को धीरे-धीरे यूँ सिमटते देख, अरुणा ने ठान लिया कि वह इस बारे में कुछ करेंगी। इसकी शुरुआत उन्होंने अपने घर झारखंड से ही की। उन्होंने एक बार फिर अपनी जड़ों को टटोला और समझा कि कौन-से अनाज और फसलें उनके खाने का हिस्सा रहें हैं। किसे कितना पोषण मिलता है और क्यों खाना चाहिए?
उन्होंने अपनी शुरुआत छोटे-छोटे क़दमों से की। कभी सड़क के किनारे बिरयानी, मोमो का स्टॉल लगाया, जहां वह स्थानीय चावल की किस्मों और पौष्टिक सब्ज़ियों से बिरयानी बनाकर बेचती थीं। मोमो के लिए उन्होंने मैदा की जगह रागी के आटे का इस्तेमाल किया।
एक बार उन्हें रांची में हो रही पारंपरिक व्यंजन प्रतियोगिता में भाग लेने का मौका मिला और यहाँ पर उन्होंने प्रथम पुरस्कार जीता। वह बतातीं हैं,
“इन अनुभवों से मुझे समझ में आया कि इस क्षेत्र में संभावनाएं हैं। मुझे बस सही योजना के साथ आगे बढ़ना है। इसके बाद मैंने अपना रिसर्च वर्क शुरू कर दिया। कुछ पुरानी से पुरानी रेसिपीज को ढूंढ़कर निकाला तो कुछ एक्सपेरिमेंट करके खुद नई रेसिपीज बनाईं।”
इस सबके दौरान एक बात जो हमेशा उनके दिमाग में रही, वह थी स्वस्थ और पोषण से भरपूर खाना। वह अपनी संस्कृति तो सहेजना चाहती थीं, साथ ही लोगों को पौष्टिक खाना भी खिलाना चाहती थीं। उन्होंने अपनी टिफिन सर्विस शुरू की और अलग-अलग आयोजनों में भी खाना बनाया।
आखिरकार, साल 2018 में उन्होंने रांची के कांके रोड पर अपने फ़ूड आउटलेट, ‘अजम एम्बा’ की शुरुआत की। ओराँव आदिवासी समुदाय की भाषा ‘कुड़ुख” होती है और इस भाषा में अजम एम्बा का मतलब होता है ‘अति स्वादिष्ट खाना।’
“मैं किसी उद्यमी या फिर व्यवसायी परिवार से नहीं आती, इसलिए मैं बिज़नेस के गुर करते-करते सीख रहीं हूँ। साथ ही, अजम एम्बा एक सोशल एंटरप्राइज है, जहां मेरी कोशिश अपनी संस्कृति को सहेजने के साथ-साथ आदिवासी महिलाओं को रोजगार से जोड़ना भी है,” उन्होंने कहा।
अरुणा के साथ फ़िलहाल 8 महिलाएँ काम कर रहीं हैं। इन महिलाओं को खाने की रेसिपी बताने से लेकर अन्य तौर-तरीके भी अरुणा ने सिखाए हैं। उनके यहाँ कोई भी महिला या लड़की आकर उनसे पारंपरिक खाना बनाने की और मैनेजमेंट की ट्रेनिंग ले सकती हैं। अरुणा का उद्देश्य, अपनी इस सामुदायिक किचन को इन महिलाओं के लिए स्किल ट्रेनिंग सेंटर की तरह इस्तेमाल करना भी है।
वह कहतीं हैं, “समाज का कोई भी क्षेत्र हो, महिलाओं की भागीदारी हर एक पहलू पर होती है। पर अफ़सोस की बात है कि जितना श्रेय उन्हें मिलना चाहिए, उतना मिलता नहीं है। मेरी कोशिश है कि हमारे समुदाय की औरतों को अपने हुनर को पहचानकर उससे अपने लिए रोजी-रोटी कमाना आता हो। वे किसी भी निर्भर न रहें।”
उनके यहाँ बनने वाली सभी डिश स्थानीय, देशी और जैविक किस्म के अनाज और सब्जियों का इस्तेमाल करके बनती हैं। इससे उनका खाना स्वादिष्ट और पोषक तो होता ही है, साथ ही, यहाँ के किसानों को फायदा हो रहा है। वह लगभग 30 जैविक और पारंपरिक किस्म की फसलें उगाने वाले किसानों से सभी सामग्री लेतीं हैं।
उनके यहाँ की ‘चावल की चाय’ का कोई जवाब नहीं। स्थानीय जड़ी-बूटियों को इकट्ठा कर बनने वाली यह चाय स्वाद के साथ-साथ सेहतमंद भी है। उनके यहाँ आने वाले ग्राहक कुछ ले न लें, यह चावल की चाय ज़रूर पीते हैं।
इसी तरह, पूरे देश में जहां लोग मैदा के बने मोमो के दीवाने हैं वहीं अरुणा आपको रागी के बने मोमो खिलाएंगी। उनकी यह डिश बच्चों और युवाओं में अच्छी-खासी मशहूर है। अरुणा कहती हैं कि पिछले दो सालों में उनका नाम इतना हो गया है कि उनके यहाँ सरकारी संगठनों से भी खाने के ऑर्डर आते हैं।
“अगर किसी के यहाँ पार्टी है और बाहर से आने वाले कोई मेहमान हैं तो उनके लिए झारखंडी खाना तैयार करने की ज़िम्मेदारी हमें दी जाती है। ऑर्डर्स के अलावा, हमारी अपनी किचन में लगभग 30 लोग आराम से बैठकर खाना खा सकते हैं। दिन में हमारे ऑर्डर 5 से लेकर 100 तक जाते हैं,” उन्होंने बताया।
अरुणा ने अपना स्टार्टअप अपनी बचत के पैसों से शुरू किया था और आज यह अच्छा चल रहा है। उनका कहना है कि अभी तक उन्हें बहुत ज्यादा लाभ भले ही नहीं हुआ है लेकिन नुकसान भी नहीं हुआ। सबसे अच्छी बात है कि इसके ज़रिए वह आदिवासी समुदायों को एक पहचान दे पा रहीं हैं।
अंत में अरुणा कहती हैं, “फ़ास्ट फ़ूड के जमाने में मैं लोगों को ‘स्लो फ़ूड सेंटर’ का विकल्प दे रहीं हूँ। जहां रुककर वे अपनी संस्कृति, अपने समुदायों और अपनी जड़ों के बारे में सोच-समझ सकते हैं। हमारी आने वाली पीढ़ी को न सिर्फ अपनी संस्कृति के बारे में पता हो बल्कि उन्हें इस पर गर्व भी होना चाहिए।”
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आप अरुणा से ‘अजम एम्बा’ के फेसबुक पेज के ज़रिए संपर्क कर सकते हैं!
तस्वीर साभार: अरुणा तिर्की
संपादन – अर्चना गुप्ता
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