इस महिला के बिना नहीं बन पाती भारत की पहली फिल्म!

यह महिला भारतीय सिनेमा की पहली फीचर फिल्म की सिर्फ एडिटर या फिर तकनीशियन ही नहीं थीं, बल्कि फाइनेंसर भी थीं!

भारत की पहली फीचर फिल्म, राजा हरिश्चंद्र बनाने वाले दादासाहेब फालके का नाम कौन नहीं जानता है। भारतीय सिनेमा की नींव रखने का योगदान उन्हें ही जाता है। हर साल सिनेमा जगत में उनके नाम पर दादासाहेब फालके सम्मान दिया जाता है।

कहते हैं ना कि हर सफल आदमी के पीछे एक औरत का हाथ होता है। दादासाहेब फालके के जीवन में वह औरत उनकी पत्नी सरस्वती बाई फालके थीं। एक थिएटर एक्टर और लेखिका, रुपाली भावे ने कुछ समय पहले दादासाहेब फालके के जीवन पर बच्चों के लिए एक किताब लिखी- लाइट्स…. कैमरा… एक्शन!

अपनी इस किताब में भावे ने दादासाहेब के साथ-साथ उनकी पत्नी सरस्वती बाई फालके के योगदान पर भी रौशनी डाली है। भावे ने अपने एक साक्षात्कार में कहा कि सरस्वती बाई के बारे में उन्होंने जो कुछ भी पढ़ा, उससे यही समझ में आया कि दादासाहेब फालके के लिए सरस्वती बाई वह सपोर्ट सिस्टम थीं, जिसकी वजह से वह अपना लक्ष्य हासिल कर पाए।उन्होंने न सिर्फ दादासाहेब का साथ दिया बल्कि उनकी फिल्मों में काम भी किया।

Saraswatibai Phalke with Dadasaheb phalke (Source: https://www.dpiam.org.in/)

दादासाहेब फालके की पहली पत्नी की मृत्यु साल 1899 में प्लेग की महामारी में हुई। इसके बाद, उनके घरवालों ने उनपर दूसरी शादी का जोर बनाया। उनके लिए, 14 साल की कावेरीबाई को चुना गया। दादासाहेब ने इस संबंध का विरोध किया क्योंकि कावेरीबाई उम्र में उनसे 19 साल छोटी थीं, लेकिन घरवालों के दबाव के आगे उन्हें झुकना पड़ा।

साल 1902 में कावेरीबाई का विवाह दादासाहेब से हुआ और मराठी समाज के रीती-रिवाजों के हिसाब से उनका नाम बदल कर, सरस्वती बाई रख दिया गया।

फाल्के ने अपना घर चलाने के लिए अलग-अलग जगह नौकरियां कीं और फिर खुद की प्रिंटिंग प्रेस शुरू की। इस प्रिटिंग प्रेस को चलाने में भी सरस्वती बाई ने उनकी मदद की।

साल 1910 में, फालके मुंबई में उन्हें एक अमेरिकन शॉर्ट फिल्म, ‘द लाइफ ऑफ़ क्राइस्ट’ दिखाने लेकर गए। इससे पहले सरस्वती ने सिर्फ तस्वीरें देखी थीं, लेकिन यहाँ परदे पर चलती-फिरती तस्वीरें देख उन्हें बहुत हैरानी हुई। इसके बाद फालके उन्हें अपने साथ प्रोजेक्टर रूम में लेकर गए और कहा कि वह भी एक दिन फिल्म बनाएंगे।

फालके के फिल्म बनाने के सपने का उनके परिवार और दोस्तों ने मजाक बनाया और उन्हें काफी निराश किया। ऐसे में, सरस्वती बाई ने उन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया। यहाँ तक की उनकी पहली फिल्म की फाइनेंसर भी सरस्वतीबाई ही थीं। उन्होंने फिल्म के लिए अपने सभी गहने बेच दिए और इस रकम से फालके ने जर्मनी से कैमरा और अन्य चीज़ें खरीदीं।

Saraswatibai Phalke (Source: https://www.dpiam.org.in/)

फालके ने जैसे-तैसे फिल्म का निर्माण शुरू किया और इसके लिए कहानी पर काम करने लगे। भावे की किताब के मुताबिक, सरस्वतीबाई और उनके बच्चे भी कहानी पर साथ में मंथन करते। किसी आइडिया को सरस्वतीबाई मना कर देतीं तो किसी को उनके बच्चे। अंत में, उन्होंने राजा हरिश्चंद्र पर फिल्म बनाने की ठानी क्योंकि यह हिंदू पौराणिक कथा है तो दर्शकों को भाएगी।

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फिल्म के निर्माण में पोस्टर बनाने से लेकर फिल्म की एडिटिंग तक, हर जगह सरस्वतीबाई ने दादासाहेब फालके की मदद की। फालके ने उन्हें कैमरा चलाने से लेकर एडिटिंग के लिए शॉट्स हटाने और लगाने तक, सभी गुर सिखाए। जिस जमाने में महिलाओं का घर से बाहर निकलना भी दूभर था, उस समय एक पत्नी सेट पर भरी दोपहरी में घंटों सफेद रंग की चादर लेकर खड़ी रहती थी। यह सफेद चादर उस समय लाइट रिफ्लेक्टर का काम करती थी।

इसके अलावा, फालके के निर्देशन में उन्होंने फिल्म डेवलपिंग, मिक्सिंग और फिल्म पर केमिकल कैसे इस्तेमाल करना है, यह सब सीखा। साथ ही, उन्होंने फिल्म शीट में छेद करना और फिर शॉट्स को साथ में लगाना यानी कि एडिटिंग भी सीखा। इस काम में बहुत ज्यादा वक़्त जाता था और कहा जाता है कि राजा हरिश्चंद्र फिल्म की एडिटिंग सरस्वतीबाई ने की थी।

From the book, Lights…Camera…Action! The Life and Times of Dadasaheb Phalke by Rupali Bhave

इस वजह से सरस्वतीबाई फालके को भारतीय सिनेमा की पहली फिल्म एडिटर होने का श्रेय दिया जाता है।

सेट पर, फिल्म के प्रोडक्शन में फालके की मदद करने के अलावा, सरस्वती पर अपने नौ बच्चों के पालन-पोषण और सेट पर काम कर रहे 60- 70 लोगों के लिए खाना पकाने की भी ज़िम्मेदारी थी। फिल्म यूनिट के रहने, खाने-पीने आदि की व्यवस्था वही देखती थीं।

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उस समय फिल्मों में काम करना बहुत ही तुच्छ समझा जाता था, खासतौर पर महिलाओं को हीन दृष्टि से देखा जाता था। फालके की फिल्म में भी कोई स्त्री काम करने को तैयार नहीं थी। बहुत कोशिशों के बाद उन्हें कोई भी महिला रानी तारामती के किरदार के लिए नहीं मिली। तब फालके ने सरस्वतीबाई को अपनी फिल्म की नायिका बनाने का फैसला किया।

उन्होंने यह बात सरस्वती बाई से कही, लेकिन उन्होंने इससे साफ़ इंकार कर दिया। सरस्वती बाई ने कहा कि वह पहले ही फिल्म के प्रोडक्शन के बहुत से काम संभाल रही हैं। ऐसे में, अगर उन्हें अभिनय भी करना पड़ा तो बाकी सभी काम ठप हो जाएंगे।

A still from the movie, Raja Harishchandra 

सरस्वतीबाई के इंकार के बाद, फालके ने अन्ना सालुंके से रानी तारामती का किरदार करवाया। सालुंके एक होटल में वेटर का काम करते थे और इस फिल्म के बाद उनकी पहचान एक मशहूर अभिनेता के तौर पर बन गयी।

29 अप्रैल 1913 को मुंबई के ओलिंपिया थिएटर में यह फिल्म रिलीज़ हुई और चंद दिनों में ही यह सफलता के शीर्ष पर थी। हर मैगज़ीन और अख़बार में दादासाहेब फालके पर आर्टिकल छप रहे थे पर विडंबना यह थी कि कहीं भी सरस्वतीबाई फालके का नाम नहीं था।

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आज भी शायद बहुत ही कम लोग भारतीय सिनेमा में उनके योगदान के बारे में जानते होंगे। द बेटर इंडिया, भारतीय सिनेमा की पहली फिल्म एडिटर, सरस्वतीबाई फालके को सलाम करता है और हमें उम्मीद है कि भारतीय सिनेमा के इतिहास में उन्हें उनका सही स्थान और सम्मान मिलेगा!

संपादन – अर्चना गुप्ता


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