डॉ. के. सिवन: जानिए कैसे बन गया एक गरीब किसान का बेटा ‘इसरो का रॉकेट मैन’!

कन्याकुमारी के सराकल्लविलाई गाँव में खेतिहर किसान कैलाशवडीवू के घर 14 अप्रैल, 1957 को सिवन का जन्म हुआ। स्कूल की पढ़ाई तमिल माध्यम से सरकारी स्कूल में की।

देश का अहम मिशन, चंद्रयान-2 भले ही कुछ किमी की दूरी से सफलता को चूक गया हो, लेकिन पहली ही बार में सैटेलाइट को चाँद के इतने करीब पहुँचा कर, ISRO ने इतिहास रचा है। ISRO के वैज्ञानिकों की टीम की पूरी दुनिया में सराहना हो रही है और साथ ही इसरो के चेयरमैन, डॉ. के. सिवन के लिए भी दुनिया भर से शुभकामनाएं आ रही हैं।

तमिलनाडु के कन्याकुमारी जिले के एक साधारण-से किसान के बेटे, और अब देश के सबसे बड़े स्पेस इंस्टिट्यूट, ISRO के चेयरमैन, डॉ. के. सिवन का सफ़र किसी प्रेरणा से कम नहीं है।

कन्याकुमारी के सराकल्लविलाई गाँव में खेतिहर किसान कैलाशवडीवू के घर 14 अप्रैल, 1957 को सिवन का जन्म हुआ। स्कूल की पढ़ाई तमिल माध्यम से सरकारी स्कूल में की। उनके घर में आर्थिक तंगी इतनी थी कि कॉलेज जाने तक सिवन के पास पहनने के लिए जूते-चप्पल भी नहीं थे। यहाँ तक कि उन्होंने पहली बार पैंट भी तब पहनी जब वे MIT गए। ग्रेजुएशन करते हुए कॉलेज में भी वे धोती पहनकर जाते थे।

डॉ. के. सिवन (विकिपीडिया)

पर इन सब परेशानियों को उन्होंने कभी भी अपने लक्ष्य के बीच नहीं आने दिया। नगरकोइल के एसटी हिंदू कॉलेज से बीएससी (गणित) की पढ़ाई करने वाले सिवन ने 100% अंकों से ग्रेजुएशन पास की। अपने पूरे परिवार में ग्रेजुएशन करने वाले वे पहले व्यक्ति थे।

एक साक्षात्कार के दौरान उन्होंने बताया, “मुझे जो नहीं मिला, उसे लेकर मैं परेशान नहीं होता था। बल्कि जो कुछ भी मुझे मिला, मैंने उसी में बेहतर से बेहतर किया।”

“उस वक़्त गाँव में बहुत ही दिलचस्प ज़िन्दगी थी। स्कूल के अलावा, हमें खेतों पर भी काम करने जाना पड़ता था। मेरे पिता किसान थे। गर्मियों में वे आम का व्यवसाय भी करते थे। छुट्टियों में अपने पिता की मदद करने के लिए हम आम के बागानों में चले जाया करते थे । मैं उनकी मदद के लिए होता था तो उन्हें अलग से मज़दूर लगाने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी,” उन्होंने आगे बताया

इसलिए उनके पिता ने उनका दाखिला भी घर के पास के ही एक कॉलेज में करवाया। ताकि सिवन खेती में उनकी मदद कर सकें। लेकिन सिवन हमेशा अपने माता-पिता को धन्यवाद करते हैं कि कम से कम वे उन्हें दो वक़्त का खाना खिलाने में तो सक्षम थे।

सिवन हमेशा से इंजीनियरिंग करना चाहते थे पर घर के हालातों के चलते बीएससी ही कर पाए। लेकिन जब उन्होंने ग्रेजुएशन में 100% अंक हासिल किये तो उनके पिता ने खुद आगे बढ़कर उन्हें कहा, “एक बार मैंने तुम्हे वो करने से रोका जो तुम करना चाहते थे, पर इस बार मैं तुम्हें नहीं रोकूंगा। मैं तुम्हारी इंजीनियरिंग के पढ़ाई के लिए अपनी ज़मीन बेच दूंगा।”

साल 1980 में उन्होंने मद्रास इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एमआइटी) से एयरोनॉटिकल इंजीनियरिंग की। इसके बाद इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंसेज (आइआइएससी) से इंजीनियरिंग में मास्टर्स की डिग्री हासिल की और 2006 में उन्होंने आइआइटी बॉम्बे से एयरोस्पेस इंजीनियरिंग में पीएचडी की डिग्री हासिल की।

हालांकि, यह सब इतना आसान नहीं था। वे बताते हैं कि इंजीनियरिंग करने के बाद भी उन्हें नौकरी के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ा क्योंकि एयरोनॉटिकल इंजीनियरिंग में जॉब मिलना आसान नहीं था। इसलिए उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखी। इसके बाद वे सैटेलाइट सेंटर ज्वाइन करना चाहते थे, पर उन्हें विक्रम साराभाई सेंटर में जॉब मिली। यहाँ पर भी वे जिस ग्रुप में काम करना चाहते थे, वह न मिलकर उन्हें दूसरा ग्रुप मिला।

इस तरह से, उन्होंने जो चाहा वह कभी उन्हें नहीं मिला। पर इस बात से मायूस होने की बजाय सिवन ने इस बात पर ध्यान लगाया कि जो भी प्रोजेक्ट उनके हाथ में है वे उसमें अपना बेस्ट दें।

प्रतीकात्मक तस्वीर: इसरो वेबसाइट

साल 1982 में उन्होंने ISRO के साथ अपना सफ़र शुरू किया। यहां उन्होंने लगभग हर रॉकेट कार्यक्रम में काम किया। इसरो के अध्यक्ष का पद्भार संभालने से पहले वह विक्रम साराभाई स्पेस सेंटर (वीएसएससी) के निदेशक थे, जो रॉकेट बनाता है। उन्हें साइक्रोजेनिक इंजन, पीएसएलवी, जीएसएलवी और रियूसेबल लॉन्च व्हीकल कार्यक्रमों में योगदान देने के कारण ‘इसरो का रॉकेटमैन’ कहा जाता है।

साल 2017 में भारत के पीएसएलवी की एक ही उड़ान में 104 सैटेलाइट्स को लॉन्च करने के मिशन में भी उनकी अहम भूमिका रही। यह इसरो का विश्व रिकॉर्ड भी है। 15 जुलाई, 2019 को जब चंद्रयान-2 अपने मिशन के लिए उड़ान भरने ही वाला था कि कुछ घंटों पहले तकनीकी कारणों से इसे रोकना पड़ा।

इसके बाद सिवन ने एक ख़ास टीम बनाई, ताकि दिक्कत का पता लगाया जा सके और इसे 24 घंटे के अंदर ठीक कर दिया। सात दिनों बाद चंद्रयान-2 को सफलतापूर्वक लॉन्च किया गया।

सिवन को अब तक कई सम्मानों से भी नवाज़ा जा चूका है, जिनमें सत्यभामा यूनिवर्सिटी से मिली डॉक्ट्रेट की उपाधि और श्रीहरी ओम आश्रम प्रेरित डॉ. विक्रम साराभाई रिसर्च अवॉर्ड भी शामिल हैं।

डॉ. के. सिवन का इसरो तक का सफ़र, हर उस भारतीय के लिए उम्मीद है जो सोचता है कि गांवों में रहने वाले गरीबों के बड़े सपने पूरे नहीं हो सकते हैं। आपको बस ज़रूरत है तो दृढ़ निश्चय और कड़ी मेहनत की। देश के इस अनमोल रत्न को द बेटर इंडिया का सलाम!

संपादन – मानबी कटोच 


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