पारंपरिक हैंड ब्लॉक प्रिंटिंग को बनाया ब्रांड, गोंड कला को दी ‘आशा’!

कलाकारों को मजदूर बनते देख रोहित रूसिया ने इस पुरातन कला को संजोने की ठानी और मशीनों के दौर में बुनकरों का सहारा बने।

किसी कला का विलुप्त हो जाना और कलाकार का मजदूर बन जाना क्या होता है ‘छीपा’ समाज के इकलौते बुजुर्ग पारंपरिक कलाकार 70 वर्षीय दुर्गालाल जी से पूछिए। सतपुड़ा अंचल में मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र की सीमा में बसा छीपा समाज, सदियों से ब्लॉक प्रिंटिंग के काम से जुड़ा रहा है। छिंदवाड़ा के आसपास लगभग 300 परिवार थे जो काम कर रहे थे। वर्षों पुरानी ब्लॉक प्रिंट की कला के कद्रदान आज भी कम नहीं है। लेकिन इसके बावजूद भी इस कला पर लुप्त हो जाने के बादल मंडराते रहे और औद्योगिक क्रांति ने इसे पूरे अंचल से विलुप्त कर दिया। दुर्गा लाल की आंखों के सामने देखते देखते ऐसे कितने ही छीपा कलाकार जो ब्लॉक प्रिंटिंग करते थे, कोयला खदानों में जाकर मजदूर बन गए। इनकी कला बाजार तक उतनी नहीं पहुंच पाई जितना उसे पहुंचना चाहिए था। अपने 70 वर्ष की आयु में दुर्गा लाल ने कितनी ही बार भूख को कला पर जीतते देखा।

वो दौर और था जब लोग कला को सहेजने के लिए कोई कसर बाकी नहीं छोड़ते थे लेकिन फिर मशीन का जमाना आ गया। जहां हाथ से कपड़े पर ब्लॉक प्रिंटिंग करना मेहनत से भरा था वहीं मशीन लगातार थानों पर थान छापने में सबको पीछे छोड़ रही थी। उस पर सितम ये कि मशीन से छपे कपड़े लागत में कम होते थे और हाथ से बना ब्लॉक प्रिंट का कपड़ा कीमत में ज्यादा होता था। ऐसी स्थिति में धीरे-धीरे बाजार पर मशीन से बने छपे हुए कपड़े छा गए और छीपा समुदाय की पारंपरिक ब्लॉक प्रिंटिंग  कला लुप्त होने की कगार पर आ गई। भूख और अस्तित्व बचाने की जद्दोजहद के आगे सारी संवेदनाएं दम तोड़ रही थी। एक ऐसा भी समय आया था जब दुर्गा लाल जी को लगा शायद यह कला उनके साथ ही इस दुनिया से चली जाएगी।

लेकिन तभी कुछ ऐसा हुआ जिसने इस कला का भविष्य ही बदल दिया। दुर्गा लाल जी के पौत्र रोहित रूसिया जो स्वभाव से एक कवि और चित्रकार थे, उनको लकवे ने आ घेरा। उनकी इस बीमारी ने उन्हें घर पर रहने को मजबूर कर दिया। परिवार के लिए यह एक संकट का समय था। घूमने फिरने वाला इंसान अचानक से स्थिर हो गया था। या यूं कहा जा सकता है कि रोहित को समय से तेज दौड़ती हुई आधुनिकता की अंधी रेस से अवकाश मिला और अपने आसपास हो रही चीजों को धैर्य से देखने का मौका मिला। रोहित रूसिया की स्थिति और इस कला की स्थिति लगभग एक जैसी थी। दोनों पर ही अस्तित्व का संकट था। लेकिन  इस अवकाश ने रोहित  को सोचने समझने और भविष्य की दिशा तय करने का अवसर दिया। डूबते को तिनके का सहारा होता है, रोहित के लिए यह कला एक तिनका साबित हुई। रोहित और उनकी पत्नी आरती ने पूरी शिद्दत के साथ इस कला को बचाने के लिए प्रयास करने शुरू किए। 43 वर्षीय रोहित और आरती ने वर्ष 2014 में एक संगठन ‘आशा’ (ASHA-  Aid and Survival of Handicraft Artisans) की शुरुआत की।  उन्होंने स्थानीय ग्रामीण महिलाओं को ‘आशा’ से जोड़ा, पूरे धैर्य के साथ उन्हें ब्लॉक प्रिंटिंग की कला सिखाई और उन्हें विश्वास दिलाया कि मजदूर बनकर ज्यादा पैसे कमाने से कहीं बेहतर है कलाकार होकर सम्मान पूर्वक कम पैसे कमा कर जीवन यापन करना।  उन्होंने ग्रामीण बुनकरों को एक ऐसा प्लेटफॉर्म दिया जिससे उनकी कला बाजार तक पहुंचे। इस प्लेटफॉर्म के तहत आदिवासी ग्रामीण महिलाओं को कपड़े पर डिजाइनिंग और ब्लॉक प्रिंटिंग की ट्रेनिंग देकर रोजगार उपलब्ध करवाया जाता है।

रोहित रूसिया और उनकी पत्नी आरती

छिंदवाडा का छीपा समाज

छपाई का सम्बन्ध सिन्धु घाटी की सभ्यता से ही पाया जाता है। रंगाई और छपाई कला का जन्म भारत से होकर मिस्र आदि देशों में ईसा पूर्व ही प्रसारित हो चुका था। “छीपा” शब्द उतना ही पुराना है, जितना रंगाई और छपाई का इतिहास। पुरातन समय में सामाजिक और आर्थिक प्रतिष्ठा के साथ छीपा शिल्पी न केवल अपनी कला में निखार ला रहे थे बल्कि अच्छा व्यवसाय भी कर रहे थे। छीपा समाज से जुड़े शोधार्थी आकाश बरहैया के अनुसार 17वीं सदी के आसपास मध्य भारत में छीपा शिल्पियों के आगमन का जिक्र मिलता है। उस दौर में राजनीतिक उथल-पुथल, मुगलों के शासन के दौरान ही गोंडवाना और सतपुड़ा पर्वत श्रृंखला के आसपास छीपा शिल्पियों का निवास और व्यवसाय फलता फूलता रहा। अपने शानदार अतीत, आर्थिक वैभव और सामाजिक प्रतिष्ठा के साथ छीपा समुदाय अपनी पारंपरिक हैंड ब्लॉक प्रिंटिंग की कला को विस्तार देते रहे। लेकिन आजादी के बाद औद्योगिक क्रांति के दौर के साथ आती हुई मशीनों से प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाने के कारण इस कला को बचाने में असफल रहे। समय के साथ बढ़ती लागत और बाज़ार के अभाव ने छीपा समुदाय की इस पारंपरिक कला को लगभग 35 वर्ष पूर्व इस अंचल से विलुप्त कर दिया। परिवार के भरण पोषण के लिए समुदाय के अधिकतर शिल्पी अब कोयला खदानों में मजदूरी और रोजी रोटी के कामों में लग गए और इसलिए एक समृद्ध पारम्परिक कला की पहचान ही खो गई।

सतपुड़ा अंचल में बसा छिन्दवाड़ा जिला एक जनजातीय बाहुल्य क्षेत्र है और मुख्य रूप से गोंड और भारिया जनजातियों के लोग यहाँ निवास करते हैं। भारिया जनजाति एक ऐसी जनजाति है जो केवल इसी क्षेत्र में पाई जाती है। इस जनजाति का मूल निवास है पातालकोट, जो छिन्दवाड़ा से 55 किलो मीटर, जो समुद्र तल से लगभग 1500 फुट नीचे है।

कैसे अलग है छिंदवाडा की यह छीपा ब्लॉक प्रिंटिंग

‘गोदना’ विश्व की सर्वाधिक पुरातन कला विधा है। अंग्रेजी में जिसे हम टेटू कहते हैं या यूँ कहें कि मानव जीवन के विकास क्रम में प्रकृति के साथ विकसित कला विधा है “गोदना”।  गोदना गुदवाने की प्रथा भारत में कई जातियों, जनजातियों एवं अनुसूचित जातियों में पाई जाती है। गोदना प्रथा अंधविश्वास (यद्यपि जिसे हम अंधविश्वास कहते हैं वह संभवतः उनका अथाह विश्वास है), पौराणिक आख्यान, और सामाजिक मान्यताओं से भी जुड़ी है। यह प्रथा आदिम समाज में पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती रही। समय के साथ और आधुनिक समाज से जुड़ने के क्रम में कुछ कलाएं कब धीरे-धीरे लुप्त होती जाती हैं पता नहीं चलता और यही गोदना कला के साथ भी हो रहा है। जनजातीय गोदना कला पर शोध कर रहे शांतनु पाठक की सहायता से रोहित इन दिनों गोदना कला को स्थानीय बुनकरों के हाथों बने ब्लॉक प्रिंट के माध्यम से कला प्रेमियों तक पहुंचाने का प्रयास कर रहे हैं। जिससे न केवल छीपा ब्लॉक प्रिंटिंग की पारम्परिक कला बल्कि गोंडवाना की इस लोक कला को भी बचाया जा सके। रोहित ने तीन साल की कड़ी मेहनत के बाद आदिवासी क्षेत्र के गाँव गाँव घूम कर गोंड जनजाति के जीवन में छिपे कला के नमूनों को सहेजा है और उनके ब्लॉक तैयार कराकर इस कला को हैंड ब्लॉक प्रिंटिंग के माध्यम से बचने की अनोखी पहल की है।

रोहित बताते हैं कि इस कला के खत्म होने में मिडिल मैन यानी बिचौलियों का बहुत बड़ा हाथ रहा है, साथ ही कम समय में होने वाली स्क्रीन प्रिंट के उत्पाद जो बाजार में ब्लॉक प्रिंट के नाम से धड़ल्ले से बेचे जा रहे हैं इस पारंपरिक कला के लिए नई चुनौती हैं। कला के पारखी खत्म हो गए हों ऐसा समय कभी नहीं रहा, इस दौर में ऐसे कला पारखियों की जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वे कला में हो रही मिलावट के प्रति आम जन को जागरूक करें। इस कला को लोग बहुत पसंद करते हैं देश में ही नहीं विदेशों में भी इस कला को लोग बहुत पसंद किया करते हैं। लेकिन इस कला के बनाने वालों तक इस कला के सही दाम नहीं पहुंच पाते इसका कारण है ये बिचौलिये। उत्पाद की लागत के अलावा बहुत कम मुनाफ़ा कलाकार तक पहुंचता है और मुनाफे का अधिकांश हिस्सा व्यापारी अपने पास रख लेता है।

“‘आशा’ के अंतर्गत मेरी कोशिश यही है कि कलाकार सीधे कला प्रेमी से जुड़े, कलाकारों को उनकी मेहनत का सही दाम मिले जिससे उनका उत्साह बना रहे और यह कला आगे पहले फूले,” रोहित कहते हैं।

कॉटन फेब एक ऐसा ब्रांड है जिसमें आप कपड़े कस्टमाइज भी करा सकते हैं। पसंद का ब्लॉक चुनकर अपनी पसंद का स्टाइल तैयार करवा सकते हैं। रोहित और आरती ने पारंपरिक गोंड ब्लॉक प्रिंटिंग को आधुनिक पैटर्न के साथ बहुत नज़ाकत से ब्लेंड किया है। रोहित और आरती अलग-अलग जगह पर लगने वाले हैंडीक्राफ्ट मेलों में अपना स्टोर लगाते हैं। उनके द्वारा तैयार किए गए कपड़े ऑनलाइन भी बिकते हैं।

रोहित और आरती ने छिंदवाड़ा में एक आर्ट स्टूडियो की स्थापना की है। जहां पर पर्यटक आकर इस कला को बनता हुआ देख सकते हैं। रोहित की कोशिश है छिंदवाड़ा, पंचमढ़ी और पेंच नेशनल पार्क आने वाले टूरिस्ट इस स्टूडियो में आकर इस कला और कला के बनाने के प्रोसेस से रूबरू हो, ताकि टूरिज्म़ द्वारा इस कला को बचाया जा सके।

श्रीमती आरती रुसिया एवं रोहित रुसिया की ‘आशा’ ने वर्षों पूर्व  इस अंचल से छीपा समुदाय की लुप्त हो चुकी पारंपरिक ब्लॉक प्रिंटिंग कला को पुनर्जीवित करने का काम शुरु किया। इन दिनों छिन्दवाड़ा के क्लाथिंग ब्राण्ड के रूप में ‘आशा कॉटन फैब्स’ के माध्यम से गोंडवाना की आदिवासी लोककला और परम्परा को शुद्ध सूती वस्त्रों पर ब्लॉक प्रिंटिंग कर देश के कला प्रेमियों तक पहुंचा रहे हैं।

‘आशा’ का उद्देश्य अपने छीपा ब्लॉक प्रिंटिंग की कला को पुनर्जीवित करना तो है ही, इसके साथ साथ स्थानीय आदिवासी लोक कला को सहेजना, स्थानीय ग्रामिण महिलाओं को मुख्य धारा से जोड़ना और अंचल के पारंपरिक कलाकारों और बुनकरों को नए बाज़ार से जोड़ना भी है।

अगर आप भी रोहित रूसिया से संपर्क करना चाहते हैं तो 9425871600 पर कॉल कर सकते हैं या cottonfabs.asha@gmail.com पर लिख सकते हैं। बेबसाइट से इस लिंक www.cottonfabs.com के साथ जुड़ें।

संपादन – अर्चना गुप्ता


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