बेस्ट ऑफ़ 2019: जब भारतीयों के देसी जुगाड़ बन गए नेशनल अवॉर्ड विनिंग इनोवेशन!

हर समस्या को किसी न किसी 'जुगाड़' से हल कर लेना हम भारतीयों को जैसे विरासत में मिला है!

चपन में मेरे मामाजी अक्सर एक किस्सा सुनाते थे कि एक बार एक विदेशी भारत घुमने आया। उसे हमारा एक नेता ग्रामीण भारत की सैर कराने ले गया। पर रास्ते में गाड़ी खराब हो गयी और उन्हें बीच में रुकना पड़ा। नेता ने ड्राईवर से कहा कि अब मैकेनिक कहाँ से मिलेगा? तो ड्राईवर ने कहा कि मुश्किल तो है यहाँ कोई मिलना, पर करते हैं कोई ‘जुगाड़’।

थोड़ी देर बाद, वह ड्राईवर एक बैलगाड़ी वाले के साथ आया और उसे कुछ दूर आगे तक गाड़ी खींचने के लिए कहा। गाड़ी जैसे-तैसे मैकेनिक तक पहुँच गयी। मैकेनिक ने गाड़ी की समस्या देखी और कहा कि ठीक करना मुश्किल है, पर इतना ‘जुगाड़’ कर देता हूँ कि आपको आपकी मंजिल तक पहुंचा देगी।

इसके बाद, उस विदेशी को जो भी अपनी यात्रा में परेशानी हुई तो उसे किसी न किसी ‘जुगाड़’ से निपटा दिया गया। फिर जब वह विदेशी अपने देश लौटा और लोगों ने उससे भारत के बारे में पूछा कि भारत में ऐसी क्या चीज़ है जो बाकी सब देशों से बेहतर है तो उसका जवाब था- ‘जुगाड़’!

जी हाँ, हर समस्या को किसी न किसी ‘जुगाड़’ से हल कर लेना हम भारतीयों को जैसे विरासत में मिला है। और फिर हमारे पास ऐसे कुछ आम भारतीयों की फेहरिस्त है जिनके देसी जुगाड़ आज अंतरराष्ट्रीय इनोवेशन्स में शामिल हो रहे हैं।

अब जब साल 2019 अपने अंतिम पड़ाव से कुछ कदमों की दूरी पर है तो द बेटर इंडिया एक बार फिर आपके लिए उन नायकों की कहानियों को लेकर आया है जिनके इनोवेशन्स से न सिर्फ उनकी बल्कि अनेकों भारतीयों की ज़िन्दगी में भी बदलाव आया है!

1. धर्मबीर कम्बोज- मल्टी फ़ूड प्रोसेसिंग मशीन 

Dharambir Kamboj

हरियाणा के यमुनानगर जिले में दामला गाँव के रहने वाले धर्मबीर कम्बोज एक नामी-गिरामी किसान और आविष्कारक हैं। घर की आर्थिक तंगी को सम्भालने के लिए कभी दिल्ली की सड़कों पर रिक्शा चलाने वाले धर्मबीर ने कभी नहीं सोचा था कि एक दिन उनकी अंतर्राष्ट्रीय पहचान होगी।

धर्मबीर ने एक मल्टी-फ़ूड प्रोसेसिंग मशीन का आविष्कार किया है। इस मशीन में आप किसी भी चीज़ जैसे कि एलोवेरा, गुलाब, आँवला, तुलसी, आम, अमरुद आदि को प्रोसेस कर सकते हैं। आपको अलग-अलग प्रोडक्ट बनाने के लिए अलग-अलग मशीन की ज़रूरत नहीं है। आप किसी भी चीज़ का जैल, ज्यूस, तेल, शैम्पू, अर्क आदि इस एक मशीन में ही बना सकते हैं।

Multi Food Processing Machine

धर्मबीर बताते हैं कि इस मशीन में 400 लीटर का ड्रम है जिसमें आप 1 घंटे में 200 लीटर एलोवेरा प्रोसेस कर सकते हैं। साथ ही इसी मशीन में आप कच्चे मटेरियल को गर्म भी कर सकते हैं। इस मशीन की एक ख़ासियत यह भी है कि इसे आसानी से कहीं भी लाया-ले जाया सकता है। यह मशीन सिंगल फेज मोटर पर चलती है और इसकी गति को नियंत्रित किया जा सकता है।

इस मशीन के लिए उन्हें नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन ने राष्ट्रीय सम्मान से नवाज़ा। इसके अलावा उन्हें लाइफटाइम अचीवमेंट का अवॉर्ड भी मिला है।

धर्मबीर ने अपनी प्रोडक्शन यूनिट अपने खेतों पर ही सेट-अप कर ली और वे फार्म फ्रेश प्रोडक्ट बनाते हैं। इतना ही नहीं, उनकी यह मशीन देश के लगभग हर एक राज्य और विदेशों तक भी पहुँच चुकी है। कभी चंद पैसों के लिए रिक्शा चलाने को मजबूर इस किसान का आज करोड़ों रुपये का टर्नओवर है!

धर्मबीर की पूरी कहानी पढ़ने और उनसे सम्पर्क करने के लिए यहाँ पर क्लिक करें! 

2. अर्जुन भाई पघडार- स्वर्गारोहण 

Arjun Bhai

गुजरात, जूनागढ़ के केशोद में रहने वाले महज़ बारहवीं पास किसान अर्जुन भाई पघडार ने वर्षों पहले अपने मामा की मृत्यु के समय देखा कि उनके अंतिम संस्कार में 400 किलो से ज्यादा लकड़ियों का इस्तेमाल किया गया। वह कहते हैं, “समय के साथ जिंदगी की उलझनों में उलझा रहा पर कम लकड़ी में शव का अंतिम संस्कार कैसे हो, इसके बारे में मैंने सोचना कभी बंद नहीं किया।”

2015 में एक दिन अचानक उनके मन में यह विचार आया कि शवदाह गृह को ममी के आकार का होना चाहिए, जिससे लकड़ी की खपत कम होगी। “एक दिन मैं दोनों हथेलियों को जोड़कर चुल्लू बनाकर नल से पानी पी रहा था, तभी दिमाग में यह आईडिया कौंधा कि शवदाह गृह को भी कुछ इसी तरह ममी के आकार का होना चाहिए,” अर्जुन भाई याद करते हुए कहते हैं।

पैसे की कमी के बावजूद उन्होंने इस आईडिया पर आधारित प्रोटोटाइप तैयार करना शुरू किया और लगातार 2 साल तक इस पर काम करते रहे। आखिर 2017 में इसका मॉडल बनकर तैयार था। 2017 में ही पहली बार इसका इस्तेमाल जूनागढ़ के शवदाह गृह में किया गया। जूनागढ़ के तत्कालीन कमिश्नर विजय राजपूत ने उस वक़्त इस काम में उनकी पूरी मदद की।

अर्जुन भाई बताते हैं,“मैंने ऐसा शवदाह गृह बनाया, जिसका इस्तेमाल करने पर अंतिम संस्कार में मात्र 70 से 100 किलो लकड़ी ही लगेगी। मेरा दावा है कि मेरे द्वारा बनाए गए इस शवदाह गृह के इस्तेमाल से देश में रोज़ाना कम से कम 40 एकड़ जंगल बचाया जा सकता है।”

अर्जुन भाई ने अंतिम संस्कार की इस भट्टी को नाम दिया ‛स्वर्गारोहण’। जब यह मॉडल कामयाब रहा तो इसे प्रमोट करने के लिए ‛गुजरात एनर्जी डेवलपमेंट एजेंसी’ से उन्हें फंडिंग भी मिल गयी। अर्जुनभाई द्वारा निर्मित ‛स्वर्गारोहण’ बामनासा (घेड) तालुका केशोद, जिला जूनागढ़ में शुरू किया जा चूका है, जिसमें अब तक 12 देहों का अग्नि संस्कार हुआ है।

अर्जुन भाई के और उनके इस आविष्कार के बारे में अधिक पढ़ने और उनके सम्पर्क करने के लिए यहां पर क्लिक करें! 

3. अशोक ठाकुर- पैडी हस्क स्टोव 

Ashok Thakur

बिहार के पूर्वी चम्पारण जिले के मोतिहारी के रहने वाले 50 वर्षीय अशोक ठाकुर लोहे का काम करते हैं। उन्होंने कभी भी नहीं सोचा था कि उन्हें कभी अपने एक जुगाड़ के चलते ‘इनोवेटर’ कहलाने का मौका मिलेगा। लोगों के घरों के लिए लोहे का काम करने वाले अशोक, लोहे के चूल्हे आदि भी बनाते हैं। लोहे के चूल्हे ज़्यादातर कोयले या लकड़ी के बुरादे जैसे ईंधन के लिए कारगर होते हैं। पर फिर अशोक को कुछ अलग करने की सूझी।

द बेटर इंडिया से बात करते हुए उन्होंने बताया, “बिहार में धान बहुत होता है क्योंकि हमारे यहाँ चावल ही ज़्यादा खाया जाता है। मैं हमेशा से देखता था कि चावल निकालने के बाद धान की भूसी को फेंक दिया जाता था। हर घर में धान की भूसी आपको यूँ ही मिल जाएगी तो बस फिर ऐसे ही दिमाग में आया कि हम इसे ईंधन के जैसे क्यों नहीं इस्तेमाल करते।”

लेकिन लोहे के जो पारम्परिक चूल्हे अशोक बनाते थे, उनमें धान की भूसी ईंधन के रूप में ज़्यादा समय के लिए कामयाब नहीं थी। इसलिए उन्होंने इस चूल्हे को मॉडिफाई करके भूसी के चूल्हे का रूप दिया। कई बार एक्सपेरिमेंट करने के बाद यह चूल्हा बनकर तैयार हुआ।

इस चूल्हे की ख़ासियत यह है कि इसे कहीं भी लाया-ले जाया सकता है क्योंकि इसका वजन सिर्फ़ 4 किलो है। इसमें धान की एक किलो भूसी लगभग एक घंटे तक जल सकती है। यह चूल्हा धुंआ-रहित है और इसे कहीं भी इस्तेमाल किया जा सकता है।

उनके इस एक इनोवेशन ने बिहार के गांवों में और भी कई समस्याओं को हल किया है। इस बारे में विस्तार से पढ़ने के लिए और उनसे सम्पर्क करने के लिए यहां पर क्लिक करें!

4. अश्विनी अग्रवाल- पीपी टॉयलेट 

Ashwani Aggarwal

भारत में सार्वजानिक शौचालयों की कमी को ध्यान में रखते हुए दिल्ली निवासी अश्विनी अग्रवाल ने एक खास तरह का पब्लिक टॉयलेट, ‘पीपी’ बनाया है, जिसे आम नागरिक बिना किसी शुल्क के इस्तेमाल कर सकते हैं। इस टॉयलेट की खास बात यह है कि इसे वेस्ट सिंगल यूज़ प्लास्टिक बोतलों से बनाया गया है।

अपने कॉलेज के एक प्रोजेक्ट के लिए उन्हें ‘सैनिटेशन’ टॉपिक मिला। इस विषय पर वह प्रोजेक्ट के लिए अलग-अलग आईडियाज पर काम करने लगे। अपनी रिसर्च के दौरान उन्होंने कई सर्वे किए कि आखिर क्यों लोग सार्वजनिक शौचालयों में नहीं जाते, कैसे लोगों को खुले में शौच करने से रोका जा सकता है, आदि।

उनके इस प्रोजेक्ट ने ही उनके स्टार्टअप ‘बेसिक शिट’ (Basic SHIT) की नींव रखी। बेसिक का मतलब है ‘मूलभूत ज़रूरत’’ और SHIT का पूरा मतलब है ‘सैनिटेशन एंड हाईजीन इनोवेटिव टेक्नोलॉजी’!

अपने स्टार्टअप के ज़रिये उन्होंने पब्लिक टॉयलेट के वर्किंग मॉडल पर काम शुरू किया। वह बताते हैं, “पहले मैंने इसे बनाने के लिए बहुत से अलग-अलग मटेरियल इस्तेमाल किये। लेकिन फिर धीरे-धीरे समझ में आया कि मुझे ऐसा कुछ चाहिए जो कि आसानी से मिल जाए, बहुत ज़्यादा कीमत न देनी पड़े और साथ ही, जो लोगों के लिए भी वेस्ट हो ताकि कोई मटेरियल को चोरी न कर पाए। और मेरी तलाश सिंगल यूज़ प्लास्टिक पर आकर रुकी।”

एक ‘पीपी’ टॉयलेट को बनाने के लिए अश्विनी ने लगभग 9000 बेकार बोतलों मतलब कि लगभग 120 किग्रा प्लास्टिक का इस्तेमाल किया है। वैसे तो फ़िलहाल यह सिर्फ यूरिनल मॉडल है और केवल पुरुष ही इसका इस्तेमाल कर सकते हैं। लेकिन अश्विनी का यह टॉयलेट इको-फ्रेंडली है।

इसे न तो किसी सीवेज कनेक्शन की ज़रूरत है और न ही यहां बदबू आती है। इस एक टॉयलेट की लागत लगभग 12000 रुपये है और इसे इनस्टॉल करने में सिर्फ़ 2 घंटे लगते हैं।

अश्विनी और उनके इस खास पब्लिक टॉयलेट के बारे में विस्तार से पढ़ने के लिए यहां पर क्लिक करें!

5. बोधिसत्व गणेश खंडेराव- ऑटोमेटिक छननी 

Bodhisatva Khanderao

महाराष्ट्र के यवतमाल जिले में स्थित भोस गाँव में रहने वाला बोधिसत्व गणेश खंडेराव सिर्फ 12 साल का है। पर सातवीं कक्षा का यह छात्र अभी से अपने आसपास के वातावरण को लेकर काफी सजग है। बोधिसत्व छह साल की उम्र से समाज और पर्यावरण के लिए कार्य कर रहे हैं।

उनके ‘सीड बॉल प्रोजेक्ट’ और ‘मैजिक सॉक्स अभियान’ को न सिर्फ उनके स्कूल में बल्कि पूरे जिले में काफी सराहना मिली है। यवतमाल, विदर्भ और आसपास के क्षेत्रों में ‘सीड बॉय’ के नाम से पहचाने जाने वाले बोधि अब ‘आविष्कारक’ के तौर पर भी पहचाने जाने लगे हैं।

साल 2017 में बोधि ने एक ‘आटोमेटिक छननी’ बनाई, जिसकी मदद से कोई भी अनाज बहुत ही कम समय में बिना किसी ख़ास मेहनत के आसानी से साफ़ किया जा सकता है। अपने इस इनोवेशन के बारे में बोधि ने बताया कि कई बार उन्होंने अपनी मम्मी और गाँव की औरतों को हाथ से अनाज साफ़ करते देखा। इस काम में बहुत वक़्त भी लगता और फिर थकान भी काफ़ी हो जाती थी।

बोधि को महसूस हुआ कि उन्हें इस समस्या पर कुछ करना चाहिए और फिर उन्होंने एक ऐसी ‘मैकेनिकल छननी’ का मॉडल बनाया, जिससे सैकड़ों किलो अनाज भी बहुत ही आसानी से चंद घंटों में साफ़ किया जा सकता है। इस छननी को कोई भी 500 रुपए से भी कम की लागत में बनवा सकता है। इस छननी से ग्रामीण महिलाओं को काम करने में आसानी हो रही है। साथ ही, उनके लिए रोज़गार का साधन भी खुल गया है।

बोधिसत्व के इनोवेशन के बारे में अधिक पढ़ने के लिए और उनसे सम्पर्क करने के लिए यहां पर क्लिक करें!

द बेटर इंडिया पर इस तरह के इनोवेशन और इनोवेटर्स की कहानियों का सिलसिला आने वाले समय भी यूँ ही चलता रहेगा। हमें उम्मीद है कि हमारे पाठकों का स्नेह भी इसी तरह हमसे बना रहेगा और वक़्त के साथ और भी लोग हमसे जुड़ेंगे! नया साल आप सभी को बहुत-बहुत मुबारक!

विवरण – निशा डागर 

संपादन – मानबी कटोच 


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