सत्येंद्र नाथ बोस: वह भारतीय वैज्ञानिक जिनकी थ्योरी ने आइंस्टीन को किया था प्रभावित!

क्या आप जानते हैं कि क्वांटम मैकेनिक्स की एक नींव 'बोस-आइंस्टीन स्टेटिस्टिक्स' है।

क्या आपने बोस-आइंस्टीन स्टेटिस्टिक्स तकनीक (Bose-Einstein statistics technique), बोस- आइंस्टीन कंडन्सेट (Bose-Einstein condensate) और बोसॉन पार्टिकल (Boson particle) के बारे में सुना है?

फिजिक्स में रुचि रखने वाले लोग, चाहे इन कॉन्सेप्ट्स को समझें या फिर नहीं, लेकिन इन नामों से भली-भांति परिचित होंगे। यह नाम विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन और भारतीय वैज्ञानिक सत्येंद्र नाथ बोस के नाम पर रखा गया है। विज्ञान की दुनिया में सत्येंद्र नाथ बोस का एक अलग ही मुकाम है।

थ्योरीटिकल फिजिक्स में क्वांटम मैकेनिक्स के क्षेत्र को आगे बढ़ाने में बोस का विशेष योगदान रहा है। इस क्षेत्र में उनके योगदान के लिए उन्हें 1954 में पद्म विभूषण से नवाजा गया। इसके बाद साल 1958 में वह ‘फैलो ऑफ़ द रॉयल सोसाइटी’ भी बने।

1 जनवरी 1894 में एक मध्यम वर्गीय परिवार में जन्मे सत्येंद्र नाथ बोस के पिता, सुरेन्द्र नाथ बोस, पूर्वी भारतीय रेलवे के एग्जीक्यूटिव इंजीनियरिंग डिपार्टमेंट में एक अकाउंटेंट के रूप में कार्यरत थे। उस समय के अन्य युवाओं की तरह बोस पर भी स्वतंत्रता संग्राम का काफी प्रभाव पड़ा। जब लॉर्ड कर्ज़न ने बंगाल-विभाजन का फैसला लिया तो उस समय बोस मात्र 11 वर्ष के थे।

कोलकाता के हिन्दू स्कूल से पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया। यहाँ से उन्होंने विज्ञान में ग्रेजुएशन की और फिर 1915 में उन्होंने ‘मिक्स्ड मैथमेटिक्स’ में एमएससी पूरी की – दोनों ही बार, वे अपनी कक्षा में अव्वल रहे!

Satyendra Nath Bose (Source)

अपनी मास्टर्स की डिग्री के बाद वे कोलकाता की युनिवर्सिटी ऑफ़ साइंस में (जो कि उसी समय स्थापित हुई थी) एक रिसर्च स्कॉलर के रूप में काम करने लगे। यहाँ पर उन्होंने अन्य विषयों के साथ-साथ थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी का भी अध्ययन किया।

मोडर्न फिजिक्स के विकास का यह ख़ास समय था, क्योंकि पश्चिमी शिक्षा का क्वान्टम फिजिक्स से परिचय हो चुका था और इससे जुड़े कई परिणाम सिद्ध हो रहे थे। बोस रिसर्च स्कॉलर व लेक्चरर के रूप में कई भावी वैज्ञानिकों – मेघनाद सहा, एन. आर धार व पीसी महालनोबिस के साथ काम कर रहे थे।

यह समय अच्छा होने के साथ-साथ वैज्ञानिकों के लिए चुनौतीपूर्ण भी था। उस समय प्रथम विश्व युद्ध शुरू हो चूका था, जिसके चलते भारतीय पुस्तकालयों में विज्ञान की आधुनिक पुस्तकें पहुँच नहीं पा रही थीं।

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फिजिक्स के शोध कार्यों पर ज़्यादातर पेपर या तो फ्रेंच में या फिर जर्मन में लिखे गए थे। इस परेशानी को दूर करने के लिए बोस व साहा ने, इन भाषाओं को खुद ही सीखने का जिम्मा उठाया। साल 1920 में साहा व बोस दोनों ने मिलकर ‘द प्रिंसिपल ऑफ़ रिलेटिविटी’ नामक एक किताब प्रकाशित की। जर्मन व फ्रेंच में प्रकाशित आइंस्टीन के कार्यों का अंग्रेजी में यह पहला अनुवाद था!

 

इसके अगले साल, बोस ने ढाका के फिजिक्स डिपार्टमेंट को एक रीडर के तौर पर ज्वाइन किया। यहाँ उन्होंने उस प्रोजेक्ट पर काम किया जो कि आगे चलकर विज्ञान के लिए काफी अहम साबित हुआ। उन्होंने जर्मन फिजिसिस्ट मैक्स प्लांक के क्वांटम रेडिएशन लॉ का नतीजा क्लासिकल फिजिक्स से कोई मदद लिए बिना ही निकाला।

जून 1924 को, बोस ने आइंस्टीन को एक पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने अपने इस बिल्कुल नए डेरिवेटिव को भेजा।

Satyendra Nath Bose (Source: Twitter)

बोस ने अपने पत्र में लिखा था, “वैसे तो आपके लिए मैं एक अजनबी हूँ, फिर भी मुझे यह अनुरोध (Zeitschrift für Physik में अपने डेरिवेशन को पब्लिश करने का अनुरोध) करने में कोई हिचक नहीं हो रही है। क्योंकि हम सब आपके ही शिष्य हैं, हालांकि हम आपकी शिक्षा का लाभ सिर्फ आपके लिखित कार्यों द्वारा ही उठा पाते हैं। मुझे नहीं पता कि अगर आपको याद है कि कलकत्ता से किसी ने आपके रिलेटिविटी संबंधी कार्य को अंग्रेज़ी में अनुवाद करने की अनुमति मांगी थी। आपने उस अनुरोध को स्वीकार कर लिया था। वह पुस्तक अब प्रकाशित हो चुकी है। मैंने ही आपकी जेनेरलाइज्ड रिलेटिविटी के पेपर को अनुवादित किया था।”

आइंस्टीन ने बोस के कार्य को जर्मन भाषा में अनुवाद कर के न सिर्फ प्रकाशित किया, बल्कि इसके अंत में एक खास नोट भी लिखा। उन्होंने लिखा था, “प्लांक के फॉर्मूला पर बोस का डेरीवेशन मेरे हिसाब से विज्ञान में आगे की तरफ एक महत्वपूर्ण कदम है। यहाँ पर प्रयोग की गयी प्रक्रिया आइडियल गैस के क्वान्टम थ्योरी को भी दर्शाती है, और इसे मैं कहीं और भी सिद्ध करूंगा।”

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उन्होंने बोस से भी व्यक्तिगत तौर पर संपर्क किया और उनके कार्य की सराहना करते हुए इसे एक “महत्वपूर्ण योगदान” माना था।

बोस ने प्लांक्स लॉ की जो डेरिवेशन दी थी, उसी से बोस-आइंस्टीन स्टेटिस्टिक्स आयी और यह क्वांटम मैकेनिक्स का एक अहम हिस्सा है। आइंस्टीन के खत ने बोस के लिए यूरोप के दरवाजे खोल दिये और फिर, बर्लिन में उनकी मुलाक़ात आइंस्टीन से हुई। साथ ही, उन्हें पॉल लंगविन व मैडम क्यूरी से भी मिलने का मौका मिला।

उन्हें फ्रांस की Laboratory of Maurice de Broglie में काम करने का अवसर भी मिला और यहां उन्होंने एक्स-रे स्पेक्ट्रोस्कोपी व क्रिस्टलोग्राफी के बारे में जाना और सीखा।

1926 तक बोस भारत वापस आ गये और डॉक्टरेट की डिग्री न होने पर भी, उन्हें अगले साल आइंस्टीन की पैरवी पर ढाका विश्वविद्यालय में फिज़िक्स डिपार्टमेंट का हेड बना दिया गया। ढाका विश्वविद्यालय में बोस का योगदान बढ़ता रहा और उन्होंने ‘डी2 स्टेटिस्टिक्स’, ‘टोटल रिफ्लेक्शन ऑफ इल्क्ट्रोमैगनेटिक वेव्स इन द आयनोस्फीयर’, ‘ऑन लोरेंट्ज़ ग्रुप’, ‘ऑन एन इंटीग्रल इक्वेशन ऑफ हाइड्रोजन एटम प्रोब्लेम’ आदि विषयों पर लिखा।

साल 1945 तक भारत के बंटवारे का अनुमान लगने लगा था और तब बोस वापस कलकत्ता विश्वविद्यालय चल गए। यहां पर वे 1974 में अपनी मृत्यु तक पढ़ाते रहे।

फिजिक्स में महारथ रखने वाले बोस बहुभाषी भी थे और यह उनकी ही सोच थी कि स्कूलों में बंगाली भाषा में शिक्षा दी जाये। उनका मानना था कि बच्चों को उनकी स्थानीय भाषा में ही पढ़ाया जाना चाहिए। इस संदर्भ में वे जापान से काफी प्रेरित थे। वहां उन्होंने देखा था कि किस तरह शिक्षक अपने विद्यार्थियों को कठिन से कठिन विज्ञान के विषयों को भी जापानी भाषा में समझाते हैं।

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उन्होंने कई वैज्ञानिक कार्यों को बंगाली भाषा में अनुवादित भी किया। साथ ही, विज्ञान को क्षेत्रीय भाषा में बढ़ावा देने के लिए उन्होंने एक समिति, ‘बंगिया विज्ञान परिषद’ की स्थापना भी की।

फिजिक्स में अपने योगदानों के लिए बोस कई बार नोबल पुरस्कार के लिए नामांकित तो हुए, पर एक बार भी उन्हें यह पुरस्कार नहीं मिला। हालांकि, इस बात ने उन्हें कभी निराश नहीं किया। उनका मानना था, “मुझे वो पहचान मिल चुकी है जिसका मैं हकदार हूँ।”

शायद वे जानते थे कि उनके कार्य भविष्य में भी विज्ञान के कई सिद्धांतो की नींव बनने वाले हैं। जैसे कि, प्रसिद्ध ‘बोसॉन पर्टिकल’ का नाम उनके नाम पर इसलिए नहीं है कि उन्होंने इसकी खोज की है, बल्कि यह नाम वैज्ञानिक पॉल डिरॅक ने ने दिया। बोस-आइंस्टीन स्टेटिस्टिक्स में बोस के योगदान को सम्मान देने के लिए यह नाम रखा गया।

4 फरवरी 1974 को बोस का निधन हो गया। पर विज्ञान के क्षेत्र में किए गए उनके कार्य आने वाले समय में भी विज्ञान में दिलचस्पी रखने वाले छात्रों का मार्गदर्शन करते रहेंगे!

मूल लेख: रिंचेन नोरबू वांगचुक
संपादन: निशा डागर

Summary: Indian Physicist Satyendra Nath Bose played a critical role in furthering the discipline of theoretical physics, particularly the field of quantum mechanics. He was awarded the Padma Vibhushan in 1954 for his immense contributions to the sciences, and also became a Fellow of the Royal Society in 1958. The famous ‘Boson particle’ derived its name from SN Bose not because he discovered it. English theoretical physicist Paul Dirac had named it so to honour Bose’s contribution to the Bose-Einstein statistics.


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