भोपाल गैस त्रासदी : विश्व की सबसे भीषणतम औद्योगिक त्रासदी!
इस भीषणतम त्रासदी में अब्दुल जब्बार ने अपने माता-पिता और बड़े भाई को भी खो दिया और उन्हें खुद भी लंग फाइब्रोसिस और आँखों से कम दिखाई देना जैसी गंभीर बीमारीयों का सामना करना पड़ा पर इसके बावजूद भी उन्होंने अपना संघर्ष जारी रखा।
साल 1984 में 2 और 3 दिसम्बर की वो भयानक रातें शायद ही कभी अब्दुल जब्बार भाई के ज़ेहन से निकल पाए। ज़ब्बार एक कंस्ट्रक्शन वर्कर होने के साथ-साथ राजेन्द्र नगर इलाके (भोपाल) में एक एक्टीविस्ट के रूप में भी काम करते थे। 2 दिसंबर की रात जब वह अपने घर पर सो रहे थे तब पास के यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड प्लांट से लगभग 27 टन जहरीली मिथाइल आइसोसाइनेट गैस लीक हुई। इस औद्योगिक त्रासदी में तकरीबन 20 हज़ार से ज्यादा लोगों की मौत हो गयी। वही लाखों लोग जहरीली गैस की चपेट में आ गए और लंग कैंसर, लीवर डैमेज और आँखों से कम दिखाई देने जैसी गंभीर बीमारीयों से ग्रसित हो गए।
गैस त्रासदी के समय जब्बार 28 साल के थे। ऐसे तो वह शांत स्वभाव के थे पर आत्मविश्वास से परिपूर्ण थे। जब वह जहरीली गैस लीक हुई और जब्बार के घर तक पहुँची तभी वह अपनी माँ को अपने स्कूटर पर बिठाकर लगभग 40 किलोमीटर दूर सुरक्षित जगह पर ले गए।
जब्बार ने टू सर्कल्स नामक एक प्रकाशन को बताया था – “हम भोपाल से 40 किमी दूर अब्दुल्लाह गंज की तरफ अपनी जान बचाने के लिए भागे। यह वह दिन था जब हर आदमी अपनी जान की खातिर बेतहाशा भाग रहा था। ”
सुरक्षित जगह पर ले जाने के बावजूद वह अपनी माँ को बचा नहीं पाए और उस जहरीली गैस की चपेट में आकर उनके पिता और बड़े भाई ने भी दम तोड़ दिया। साथ ही जब्बार खुद जहरीली गैस की चपेट में आ गए और लंग फाइब्रोसिस
और आँखों की गंभीर समस्याओं से ग्रसित हो गये।
उस रात जब जब्बार वापस अपने इलाके में पहुँचे तो उन्होंने देखा कि उनके चारों ओर लाशें ही लाशें बिखरी हुई थी, मानों जैसे कयामत आ गयी हो। इस दर्दनाक दृश्य को देखकर रहने वाले जब्बार भी आक्रोश से भर गए।
जिस तरह उन्होंने अपने इस आक्रोश को दिशा दी और जिस तरह अपने अंदर के इस गुबार को 30 सालों से भी ज्यादा समय तक शस्त्र बनाये रखा, यह हर एक भारतीय को जानना चाहिए।
उन्होंने उसी समय से शुरूआत की और पीड़ितों को आस-पास के अस्पताल ले जाना शुरू किया और सभी मृतकों को पोस्ट मार्टम के लिए भेजा।
लगभग 3 साल बाद 1987 में उन्होंने भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन बनाया। इस ग्रुप में उन्होंने सभी पीड़ितों और उनके परिवारों को और सबसे महत्वपूर्ण विधवाओं को जिन्होंने अपना सब कुछ खो दिया उनको शामिल किया और सिर्फ गुजारा भत्ता और मुआवजे की माँग नहीं की बल्कि रोजगार प्रदान करने की माँग की।
उनके इस अभियान की शुरुआत उन्होंने अपने इलाके से कि जब उन्होंने अपने आस-पास अन्याय होते देखा। जितने भी राजनेताओं को उस कार्बाइड फैक्ट्री से मुनाफा हो रहा था, उनमें से कोई भी मदद के लिए आगे नहीं आया। तभी पीड़ितों ने इस मामले को अपने हाथों में लेने का फैसला किया। उनके पहले अभियान का नारा था “खैरात नहीं, रोजगार चाहिए”। सरकार द्वारा दी गयी उस न्यूनतम राशन सामाग्री से जब्बार कतई संतुष्ट नहीं थे।
उन्होंने सबकी क्षमता अनुसार रोजगार की माँग की।
इतने अथक प्रयासों के बाद 1989 में सुप्रीम कोर्ट ने यूनियन सरकार और यूनियन कार्बाइड को $470 मिलियन सेटलमेंट राशि देने का आदेश दिया। यह मुआवजा 1,05,000 पीड़ीतों (अनौपचारिक आकड़ें) को देना तय किया गया। हालांकि, एक दशक के बाद उसी सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को रु.1,503 करोड़ मुआवजा देने का आदेश जारी किया और साथ ही पीड़ितों और उचित दावेदारों के सही आकड़ें (5,70,000) स्वीकृत किये।
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तीन दशक से भी ज्यादा तक जब्बार ने अपना विरोध जारी रखा और कोर्ट में पीड़ितों के लिए पर्याप्त मेडिकल सुविधाओं के लिये याचिकाएं दायर करते रहे।
अगर जब्बार और उनके जैसे कई कर्मठ कार्यकर्ता आवाज़ नहीं उठाते तो शायद पीड़ितों को कुछ नहीं मिलता।
उन्होंने इन पीड़ितों के लिए केवल कानूनी लड़ाई ही नहीं लड़ी बल्कि उन्हें आत्मनिर्भर बनाने के लिए स्वाभिमान केंद्र भी शुरू किया। इस केंद्र में सिलाई, कढ़ाई और ज़री का काम और कंप्यूटर का प्रशिक्षण दिया जाता है। अब तक 5 हजार महिलाओं को इस स्वाभिमान केंद्र में प्रशिक्षण देकर आत्मनिर्भर बनाया जा चुका है।
“मेरा आक्रोश और भी उफान पर आ जाता जब मैं सरकार को रोजगार बाँटने की बजाय राशन बाँटते हुए देखता,” उन्होंने कहा।
इतने अथक प्रयासों के बाद भी सरकार ने जिम्मेदारी नहीं ली और वॉरन एंडरसन (यूनियन कार्बाइड के चेयरमैन) को सुरक्षित और जिन्दा देश से जाने दिया।
हर शनिवार को जब्बार यादगान -ए-शाहजहन पार्क में एक साप्ताहिक मीटिंग करते हैं, जहाँ पीड़ित अपनी समस्याएं बताते हैं और एक दूसरे की समस्याओं का समाधान करते हैं।
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अब्दुल जब्बार ने टू सर्कल्स को दिए अपने इंटरव्यू में कहा था, “भोपाल गैस त्रासदी के लिए सिर्फ यूनियन कार्बाइड ही जिम्मेदार नहीं है, राज्य सरकार भी उतनी ही जिम्मेदार है। शहर के बीचो-बीच एक जहरीले कैमिकल प्लांट को लगाने की स्वीकृति देना और फिर उस पर नजर नहीं रखना। केंद्र सरकार भी उतनी ही जिम्मेदार है, यूनियन कार्बाइड के अधिकारीयों को शय देने के लिए और त्रासदी के बाद उन्हें देश से आसानी से जाने देने के लिए। पर तीनों पार्टियों ने अपनी जिम्मेदारी से ऐसे मुंह मोड़ा जैसे पीड़ितों ने जानबूझकर जहरीली गैस को सूंघा था।”
आज तक यह लड़ाई जारी है पर्याप्त मुआवजे के लिए और उचित मेडिकल सुविधाओं के लिए।
भोपाल गैस त्रासदी आजादी के बाद का एक भयानक कांड है क्योंकि लगातार सरकार ने दूसरों के उद्देश्य पूर्ति के लिए अपने हीं लोगों को बेसहारा छोड़ दिया।
एक रिपोर्ट के अनुसार हर दिन 5-6 पीड़ित दम तोड़ते हैं।
“हमारे राजनेता अति दुर्बल हैं। आज इस त्रासदी को 35 साल हो गये पर हमारे लिए कोई नहीं खड़ा हुआ।
नतीजतन आज हर पीड़ित दर्दनाक जिंदगी जी रहा है। इसलिए इस बार हमने नोटेरी पर मुआवज़े की माँग की है,” जब्बार ने न्यूज़ क्लिक को दिए एक साक्षात्कार में कहा था।
इस हक की लड़ाई को लड़ते लड़ते ज़ब्बार अपनी व्यकितग जिंदगी को ज्यादा समय नहीं दे पाये और इसके चलते उनकी शादी टूट गई। इसके अलावा, गंभीर बीमारीयों से ग्रसित होने के बाद भी जब्बार ने पीड़ितों के हक के लिए संघर्ष जारी रखा और अपनी अंतिम सांस तक लड़ते रहे।
14 नवंबर 2019 को गैस त्रासदी के पीड़ितों के लिए बनाये गए भोपाल मेमोरियल अस्पताल में 62 वर्ष की आयु में अब्दुल जब्बार ने अपनी अंतिम सांस ली।
लेखक – रिया जोशी
संपादन – मानबी कटोच
मूल लेख – रिंचेन नोरबू वांगचुक
Summary – ‘Jabbar bhai’ (Abdul Jabbar) lost his mother, father and brother to the world’s worst industrial accident. He himself suffered lung fibrosis and lost 50% of his vision. But he never stopped fighting. #ForgottenHeroes #BhopalGasTragedy
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