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एक प्यासा गाँव, दो पढ़े-लिखे युवक और आपका साथ; कुछ इस तरह बदली यह तस्वीर!

पर सवाल यह है कि कब तक लोग शशांक या मंगेश जैसे बदलाव के फरिश्तों का इंतज़ार करेंगे?

“जीवन जल पर निर्भर है और जल-संरक्षण आप पर”

क्सर इस तरह की लाइन आपको लोगों के सोशल मीडिया स्टेटस पर या फिर व्हाट्सएप फॉरवर्ड में देखने-पढ़ने को मिलती हैं। हम में से ज़्यादातर लोगों के लिए इस तरह की बातें सिर्फ़ हमारी ऑनलाइन दुनिया तक ही सीमित रह जाती हैं। लेकिन झारखंड के दो युवाओं ने इन चंद शब्दों को इंटरनेट की ऑनलाइन दुनिया की मदद से, एक गाँव की ऑफलाइन ज़िंदगी का हिस्सा बना दिया है।

झारखंड के छोटा नागपुर इलाके में मात्र 28 परिवारों वाला एक गाँव, रसाबेड़ा पिछले कई सालों से पानी की समस्या से जूझ रहा था। बेकार पड़े हैंडपम्प, स्वच्छ जल स्रोत की कमी और गिरते जल स्तर जैसी परेशानियों के चलते ये सभी परिवार यहाँ के एकमात्र जल स्रोत चुआ (जलभर) पर निर्भर थे।

Some Pictures of Chua (Jalbhar)

जलभर धरती की सतह के नीचे चट्टानों का एक ऐसा संस्तर होता है, जहां भू-जल एकत्रित होता है और उसे निकाला जा सकता है। इस जलभर से पानी भरने के लिए गाँव की महिलाओं और लड़कियों को काफ़ी पैदल चलकर जाना होता था। साथ ही, इस पानी के प्रदूषित होने के कारण गाँव में कई तरह की बीमारियों के पनपने का खतरा बना रहता है।

 

दो युवाओं ने बदली तस्वीर 

मंगरू पैडमैन‘ के नाम से मशहूर, मंगेश झा अपने सामाजिक अभियानों के तहत पिछले दो-तीन सालों से इस गाँव में लगातार जा रहे थे। वहां जाने के पीछे उनका उद्देश्य यहाँ की महिलाओं और लड़कियों को माहवारी के प्रति जागरूक करके उन्हें सेनेटरी नैपकिन उपलब्ध कराना था। पर इस गाँव में पानी की भारी समस्या को देखते हुए, मंगेश ने ठान लिया कि उन्हें कुछ तो करना होगा।

 

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और कहते हैं ना कि अगर आपका इरादा नेक हो तो राहें बन ही जाती हैं, ऐसा ही कुछ मंगेश के साथ हुआ।

“संयोग से हमारी मुलाकात शशांक भाई से हुई। जब उनसे बात होने लगी तो हमें पानी के संरक्षण पर उनके काम के बारे में पता चला। और हमने तुरंत उन्हें हमारे साथ रसाबेड़ा आकर इस गाँव के लिए कुछ करने को कहा,” द बेटर इंडिया से बात करते हुए मंगेश ने बताया।

Mangesh Jha (Left) and Shashank Singh (Right)

28 वर्षीय शशांक सिंह कछवाहा पिछले 4 सालों से जल-संरक्षण पर काम कर रहे हैं। उन्होंने SBI फ़ेलोशिप करने के दौरान राजस्थान के एक गाँव छोटा नारायण में जल-संरक्षण का बेहतरीन काम किया था। इस गाँव में उनकी सफलता के बाद, उन्होंने ‘जल संरक्षण’ को अपनी ज़िंदगी का मिशन बना लिया।

इसलिए जब मंगेश ने उन्हें रसाबेड़ा गाँव के हालातों के बारे में बताया तो उन्होंने तुरंत यहाँ आकर अपना काम शुरू कर दिया। इन दोनों ने मिलकर ‘ग्राउंड वॉटर एंड रिफॉरेस्टेशन एडप्टिव मैनेजमेंट एसोसिएशन’ (GRAM) संगठन की स्थापना की और अपना पहला प्रोजेक्ट, ‘रसाबेड़ा पेयजल परियोजना’ पर काम करना शुरू किया।

 

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थोड़ा जुगाड़ और थोड़ा विज्ञान; और बन गया काम!

शंशांक बताते हैं कि उनकी योजना बहुत ही स्पष्ट थी कि एक तो उन्हें सरफेस वॉटर मैनेजमेंट (Surface Water Management) पर काम करना है- यानी कि पहले जो पानी उपलब्ध है (चुआ का पानी) उसका कैसे ठीक से प्रबंधन किया जा सके ताकि वह ज़्यादा से ज़्यादा लोगों के काम आ सके। दूसरा, उन्होंने वर्षा जल संचयन पर काम किया।

Connecting Dots… Getting Chuaa’s water through gravity flow

“हमने गाँव में रिसर्च की, फिर गाँव वालों के साथ मिलकर योजना पर काम किया। सबसे पहले चुआ के पानी को ग्रेविटी फ्लो से ऊपर लाना था। इसे स्टोर करने के लिए हमने 13, 500 लीटर की क्षमता वाला एक स्टोरेज टैंक बनवाया। यह गाँव के एक कॉमन पॉइंट, प्राइमरी स्कूल के पास है,” शशांक ने बताया।

इस स्टोरेज टैंक के पास ही पानी की गुणवत्ता सुधारने के लिए फ़िल्टर भी लगाये गए हैं। स्टोरेज टैंक से पानी स्कूल की छत पर लगे 1500 लीटर के सिंटेक्स टैंक में जाता है। वहां से स्कूल की एक दीवार पर लगे नलों की मदद से गाँव के लोग अपनी ज़रूरत के हिसाब से पीने का पानी ले जा सकते हैं।

मंगेश आगे बताते हैं कि गाँव के हर एक घर तक पानी पहुँचाना मुमकिन नहीं था इसलिए उन्होंने प्राइमरी स्कूल को ही एक कॉमन पॉइंट रखा। स्कूल की छत पर पानी की टंकी होने से अब यहाँ के शौचालय भी ऑपरेशनल हो गए हैं। स्कूल के शौचालयों को ही उन्होंने सामुदायिक शौचालयों की तरह विकसित कर दिया है।

Channelizing water to reservoir (1) and to water storage tank (2), from here the water goes to rooftop tank (3)

“इस गाँव की जनसंख्या बहुत ज़्यादा नहीं है। इसलिए हमने सोचा कि यही सही रहेगा। और गाँव का स्कूल किसी भी घर से बहुत दूरी पर नहीं है। वरना पहले गाँव वालों को पानी के लिए ही लगभग 300 मीटर चलकर जाना पड़ता था,” उन्होंने कहा।

स्कूल की छत पर रेनवॉटर हार्वेस्टिंग के लिए भी पाइप्स लगाए गए हैं और इनमें से होता हुआ बारिश का पानी स्टोरेज टैंक के पास बने एक गड्ढे में चला जाता है। यह भू-जल स्तर को बढ़ाने में काफ़ी सहायक है। इसके अलावा, गाँव के लोगों की अन्य ज़रूरत जैसे नहाना, कपड़े धोना, बर्तन आदि साफ़ करने के लिए एक और 5, 600 लीटर की क्षमता वाला रिजर्वायर भी बनाया गया है।

 

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आज रसाबेड़ा गाँव के लोगों की आँखों की चमक देखने लायक है क्योंकि उन्हें पानी के लिए किसी पर निर्भर रहने की ज़रूरत नहीं है। हालांकि, सफलता का यह सफर बिल्कुल भी आसान नहीं था। फंडिंग से लेकर ग्रामीणों के दिलों में एक आशा की किरण जगाने तक, हर एक कदम पर शशांक और मंगेश ने चुनौतियों का सामना किया।

This one project is impacting 28 families lives in this village

आसान नहीं थी डगर 

मंगेश बताते हैं, “प्रोजेक्ट की फंडिंग से भी पहले हमे गाँव के लोगों को इसके लिए तैयार करना था। हम सिर्फ़ कुछ बनाकर छोड़ नहीं देना चाहते थे। हम लगातार गाँव के लोगों के बीच जाते रहे। उनसे मिलकर, बातें करके उन्हें तैयार किया कि स्टोरेज टैंक निर्माण या फिर नल आदि लगाने में उन्हें भी सहयोग करना होगा और यह सब होने के बाद इसके रख-रखाव की ज़िम्मेदारी भी गाँव के लोगों की होगी।”

मंगेश और शशांक ने इस पूरे प्रोजेक्ट के लिए 2 लाख 75 हज़ार रुपये का बजट तय किया था। जिसके लिए उन्होंने एक क्राउडफंडिंग अभियान चलाया और इससे लगभग 2 लाख 20 हज़ार रुपये उनके पास इकट्ठा हुए और बाकी पैसे उन दोनों ने अपनी जेब से लगाए।

 

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“पर फंडिंग जुटाने में थोड़ा समय लग गया और फिर जब हमने प्रोजेक्ट शुरू किया तो बारिश का मौसम था। इस वजह से बहुत बार हमें सामान पहुंचाने में दिक्कतें आयीं क्योंकि यह पहाड़ी इलाका है। तो जो काम डेढ़ महीने में हो जाना चाहिए था, उसे करते-करते 4 महीने लग गए,” शशांक ने बताया।

लेकिन उनकी मेहनत रंग लायी और आज इस प्रोजेक्ट के सफल होने की संतुष्टि इनके चेहरे से साफ़ ज़ाहिर होती है।

 

आप सब ने दिया साथ 

अपनी सफलता के लिए शशांक और मंगेश, गाँव के लोगों और माया बेदिया जैसे अपने साथियों का धन्यवाद करते हैं। माया बेदिया, वहीं पास के गाँव के एक किसान और सोशल वर्कर है। निर्माण कार्यों के लिए माया ने न सिर्फ़ खुद श्रमदान किया, बल्कि पूरे गाँव को अपने साथ जोड़ लिया।

From left to Right: Nuvreet Parmar (Deeksha NGO Member), Shashank Singh, Maya Bediya, Mangesh Jha

इसके अलावा, वे दीक्षा एनजीओ के योगदान की भी काफी सराहना करते हैं। साथ ही, प्रोजेक्ट की शुरुआत में द बेटर इंडिया पर प्रकाशित उनकी कहानी को पढ़कर हमारे पाठकों ने भी उनकी हरसंभव मदद की। और आज इस एक प्रोजेक्ट की सफलता की वजह से यह पूरा गाँव संवर गया।

 

पर सवाल यह है कि कब तक लोग शशांक या मंगेश जैसे बदलाव के फरिश्तों का इंतज़ार करेंगे?

शशांक कहते हैं कि भारत में सबसे ज़्यादा बारिश होने वाले राज्यों में एक झारखंड है। फिर भी यहाँ के गांवों में पानी की कमी हो रही है, क्यों?

“क्योंकि हमारे यहाँ पर पहले से उपलब्ध जल स्त्रोतों जैसे कुआं, तालाब, झील आदि को सहेजा नहीं जा रहा है। अगर लोग ज़्यादा कुछ और भी नहीं कर सकते तो बारिश के मौसम से पहले अपने यहाँ तालाब या कुओं को साफ़ करा ले। कम से कम  इससे वे बारिश का पानी तो सहेज सकते हैं।”

‘Life depends on Water and Water Conservation depends on you.’

“हम, आप या फिर सरकार किसी गाँव के लिए चाहे करोड़ों रुपये का ही प्रोजेक्ट क्यों न बना लें, वह तब तक सफल नहीं होगा, जब तक कि उस गाँव के लोग विकास न चाहें। इसलिए गाँव के लोगों को, ख़ासकर कि युवाओं को व्यक्तिगत प्रयासों के साथ सामने आना होगा। जल-संरक्षण सिर्फ़ एक शब्द न हो, बल्कि लोग इसे अपने जीवन में उतार लें।”

अंत में मंगेश सिर्फ़ यही कहते हैं कि वे इस देश में जल-संरक्षण की दिशा में काम कर रहे हर एक व्यक्ति और संगठन के आभारी हैं।

हम शशांक सिंह और मंगेश झा के जज़्बे और हौसले को सलाम करते हैं क्योंकि उन्होंने अपनी मेहनत से बदलाव की अनोखी कहानी लिखी है। हमें ख़ुशी है कि हम भी इस बदलाव में एक छोटी-सी भूमिका निभा पाए!

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संपादन – मानबी कटोच 


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