अछूत माने जाने वाली जाती में जन्में बेज़वाड़ा विल्सन ने बचपन से ही मैला ढोने वालो की दशा देखी थी। कम उम्र से ही वे इस काम को करने वालों की समस्या से भली-भाँति परिचित थे। विल्सन के पिता भी मैला उठाने का काम करते थे। उनके भाई ने कुछ दिन भारतीय रेल में नौकरी की, फिर वो भी इसी काम में लग गए। विल्सन को जब पहली बार अपने परिवेश के बारे में पता चला तो उन्हें गहरा आघात पहुँचा।
“मैं 13 साल का था ,जब मुझे पता चला कि मेरे पिता और भाई परिवार का पेट पालने के लिए मल उठाते हैं। ये जानकर मुझे बड़ा झटका लगा। स्कूल में मेरे दोस्त मुझे चिढ़ाते थे। मैंने कई बार अपने माता-पिता से उनके काम के बारे में जानने की कोशिश की थी, पर वो हमेशा मेरी बात को किसी न किसी तरह टाल देते थे। जब मुझे आख़िरकार अपने परिवार के काम के बारे में पता चला, तो मैं मर ही जाना चाहता था,” विल्सन ने बताया।
विल्सन ने पॉलिटिकल साइंस से ग्रेजुएशन किया। इस दौरान वे युवाओं से संबंधित ज़्यादा से ज़्यादा कार्यक्रमों में हिस्सा लेने लगे। उन्होंने पाया कि ज़्यादातर बच्चे अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ देते हैं। स्कूल छोड़कर वो भी मल उठाने का काम करने लगते हैं।
कर्नाटक के ऐसे ही एक दलित परिवार में पैदा हुए और पले-बढ़े विल्सन ने इस पेशे को जड़ से मिटाने का निर्णय लिया।
1993 में ही मानव मल को इंसानों से साफ़ करवाने पर पाबंदी लगा दी गई थी। इसके लिए बकायदा कानून बनाया गया, “The Employment Of Manual Scavenging And Construction of Dry Latrines (Prohibition) Act, 1993। लेकिन, दुर्भाग्य से ये कोढ़ हमारे समाज से इतने सालों बाद भी मिट नहीं सका है। लाखों लोग अब भी अमानवीय परिस्थितियों में सूखा मल उठाने का काम करते हैं।
मानव मल को अपने हाथों से उठाने वाले इस पेशे के खिलाफ़ विल्सन ने जंग छेड़ दी। उन्होंने खुद को इस समुदाय की तरक्की के लिए समर्पित कर दिया।
1995 में उन्होंने इस काम से लोगों को आज़ादी दिलाने के लिए ‘सफ़ाई कर्मचारी आंदोलन’ की शुरूआत की। उनका उद्देश्य है कि मल उठाने वाले लोग इस काम को छोड़कर समाज में सर उठाकर जीयें। कर्नाटक से शुरू हुआ यह आंदोलन अब देश के 25 राज्यों में सक्रिय है।
इस आंदोलन के द्वारा विल्सन ने मल उठाने के पेशे को जड़ से मिटाने के लिए ज़मीन-आसमान एक कर दिया। उन्होंने लोगों को सक्रीय किया, जागरूकता के लिए रैलियाँ की और लोगों को बेहतर काम दिलाया।
विल्सन कहते है, “सबसे बड़ी चुनौती यह है कि लोग खुद अपने काम को लेकर शर्मिंदा रहते हैं। वो इसके बारे में बात ही नहीं करना चाहते हैं। सबसे पहले हमें लोगों को एक साथ लाना है।”
विल्सन के इस आंदोलन ने देश भर में अपने पाँव जमा लिए हैं। इससे लगभग 6000 स्वयंसेवक जुड़े हुए हैं। ये लोग मल उठाने का काम करने वालों की समस्याओं पर चर्चा करते हैं। उन्हें उनके अधिकारों के बारे में बताते हैं। लोगों को इस काम से निकलने और पुनर्वास में मदद करते हैं।
नारायन अम्मा इस आंदोलन से आए बदलाव की एक बेहद साफ़ तस्वीर पेश करती हैं। पहले नारायन अम्मा मल उठाने का काम करती थीं। इस आंदोलन से जुड़ने के बाद उन्होंने इस निम्न पेशे को “ना” कहने की हिम्मत दिखाई। नारायन अम्मा ने न सिर्फ हाथों से मल उठाने का काम छोड़ा बल्कि ई-रिक्शा चलाकर नया रोजगार भी ढूँढ लिया।
2003 में विल्सन ने एक जनहित याचिका दायर की। इसमें उन्होंने सभी राज्यों, रक्षा, शिक्षा, रेलवे और न्याय जैसे सरकारी विभागों में भी Manual Scavenging Prohibition Act का उल्लंघन होने की बात कही थी। इस जनहित याचिका के बाद ये मुद्दा जोर-शोर से उठा था।
1996 में 15 लाख से ज़्यादा लोग इस काम में लगे हुए थे। विल्सन के अथक प्रयासों के कारण 2013 में ये संख्या 2 लाख पर पहुँच गई। पर विल्सन को इस संख्या के लिए “शून्य’ से कम कुछ भी नहीं चाहिए।
कई अन्य संस्थाओं ने भी विल्सन के ‘सफ़ाई कर्मचारी आंदोलन’ के मॉडल को अपनाया। जिन लोगों ने यह काम छोड़ा उनको दूसरे रोज़गार देने में सहायता की गई।
विल्सन की लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई है। वो मल उठाने के पेशे को जड़ से खत्म करना चाहते हैं। वो समाज से जाती प्रथा का भी अंत करना चाहते हैं।
“उन लोगों ने जिन्दगी भर यही काम किया है, इसलिए वो किसी और काम के बारे में सोच ही नहीं पाते हैं। वो अगर इस काम को छोड़ना चाहे भी तो उनके लिए मुश्किल होती है। इसके लिए उन्हें इसके लिए प्रेरणा की ज़रूरत होती है। ये आंदोलन उन्हें यही प्रेरणा देता है। मैं चाहता हूँ कि हमारे देश में एक भी व्यक्ति ऐसा न हो जिसे ये काम करना पड़े। ”
– विल्सन
विल्सन की लगन और लगातार संघर्ष को देखते हुए हमे यकीन है कि ये कुप्रथा जल्द ही हमारे देश से पूरी तरह ओझल हो जाएगी!
विल्सन के काम के बारे में अधिक जानकारी हासिल करने के लिए आप उनकी वेबसाइट पर जा सकते है!
मूल लेख – श्रेया पारीक
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