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वो आदमी कभी औरत था

ऐसा हो सकता है कि कोई मन अपने शरीर से सामंजस्य न बैठा पाए. उसे ऐसा लगे कि मैं (मन) हूँ तो स्त्री लेकिन एक पुरुष के शरीर में बेहतर रहता, या इसका उलट कि हूँ तो पुरुष लेकिन मेरा शरीर स्त्री का होना चाहिए था.

श्चिमी दुनिया में रहने पर एक बात बहुत बाद में समझ आई कि (बहुधा) पुरुष अपने पौरुषत्व और स्त्री अपनी स्त्रियोचित भूमिका के पिंजरे में बंधे होते हैं. हालाँकि ऊपर ऊपर से देखें तो एक पश्चिमी औरत, मर्दों के सारे काम करती हुई नज़र आती है और इधर भारत में स्त्री को ज़्यादा प्रथाओं और समाजस्वीकृत व्यवहार में रहना होता है. पश्चिम में पुरुष नहीं रोता, उसे कमज़ोरी समझा जाता है, वह ज़्यादा रंग नहीं पहनेगा, थोड़ा तन के रहेगा. Machismo आमतौर पर पुरुषों से अपेक्षित होता है. भारतीय मर्द उस विश्व में अपनी मर्दानगी की झाँकी दिखाते हुए नहीं प्रस्तुत होते समाज के सामने. रंग बिरंगे कुर्ते पहन लेते हैं, शरीर अकड़ा हुआ नहीं रखते (आम तौर पर) रो भी लेते हैं.

पुराणों की देन समझें कि हमारे समाज में इस बात पर कोई दो राय नहीं रखता कि प्रत्येक व्यक्ति के अंदर दोनों – पुरुष तत्व व् स्त्री तत्व का समावेश होता ही है. अर्धनारीश्वर भगवान की परिकल्पना (अगर इसे सच्चाई मानते हों तो परिकल्पना शब्द पर ध्यान न दें) इसी वास्ते आवश्यक रही कि लोग अपने को पुरुष अथवा नारी ही के संकुचन में न रखें. उनकी अभिव्यक्ति और सोच लिंगभेद से स्वतंत्र रहे. मुझमें स्वयं ऐसे बहुत सारे गुण हैं जिनमें स्त्रीत्व ढूँढा जा सकता है लेकिन मैं कहना चाहूँगा कि ये सभी में मानवीय गुण हैं. लोग अपनी समाज-जनित विचारधारा (यानि स्वयं के पाठन, चिंतन, मनन से गठी हुई नहीं) की रौ में उन्हें पुरुष और स्त्री गुणों में विभाजित कर देते हैं.

मेरी देखी और समझी हुई दुनिया में स्त्रियाँ संकटकाल में अमूमन आदमियों से ज़्यादा मज़बूत होती हैं. उनकी सहनशीलता (शारीरिक दर्द सहने की भी) पुरुषों को पीछे छोड़ देती है. इस दुनिया में पुरुषों को भी सजने संवरने का शौक़ होता है, रांगोली डालने का भी और घर सजाने का भी. अगर पुरुष बाइक्स का शौक़ रखते हैं तो औरतें भी वैसी ही हैं – ट्रैकिंग पर जाती हैं रफ़-टफ़ जीवन शैली रखती हैं, उधर पुरुष खाना ज़्यादा अच्छा बना सकते हैं. कपड़ों पर प्रेस बेहतर कर सकते हैं.

ये तो हुई चेतना के एक छिछले स्तर की बात, ऐसा नहीं है कि आदमी और औरत में कोई अंतर नहीं है. शारीरिक तौर पर बहुत ज़्यादा है. और ऐसा हो सकता है कि कोई मन अपने शरीर से सामंजस्य न बैठा पाए. उसे ऐसा लगे कि मैं (मन) हूँ तो स्त्री लेकिन एक पुरुष के शरीर में बेहतर रहता, या इसका उलट कि हूँ तो पुरुष लेकिन मेरा शरीर स्त्री का होना चाहिए था. विज्ञान की तरक़्क़ी का एक अजब नमूना है कि आधुनिक युग में ऐसा संभव है कि लोग लिंग परिवर्तन करवा सकते हैं. आदमी चाहे तो औरत, औरत चाहे तो मर्द बन सकती है. लेकिन समाज में आम इंसान इसे ले कर असहज हो जाता है. असहज इसलिए कि इस तरह की बातचीत हमारे यहाँ नहीं के बराबर है. मारे डर के बहुत से लोग जो अपने आप को समझ कर लिंग परिवर्तन कर सकते थे, एक अजीब तरह की कुण्ठा में जीते हैं. जिन्होंने लिंग परिवर्तन का सहज कदम उठा लिया उन्हें एब्नार्मल क़रार दे दिया जाता है.. ख़ैर हम अपना पुराना भूल गए हैं, विश्व का नया जल्दी स्वीकार नहीं करते. डबल स्टैंडर्ड्स रखते हैं ऐसे बहुतेरे विषयों पर.. देखिए कब खिड़कियाँ खुलेंगी और कब दूसरों की सोच, धर्म, जाति और लिंग के प्रति असम्मान जाएगा. ये तो वक़्त ही बताएगा लेकिन चूँकि हमारे मध्य हर तरह का साहित्य, यहाँ तक कि हमारी श्रुति परंपरा से चलती कथाएँ या पुराण ही, धीरे धीरे घटता जा रहा है समाज में समझदारी और खुलापन बढ़ने की संभावना कमज़ोर ही रहती है.

आज बड़े दिनों बाद आपके समक्ष ‘शनिवार की चाय’ ले कर प्रस्तुत हूँ. आज की कविता प्रत्यक्षा ने लिखी है जिसका शीर्षक है ‘वो आदमी कभी औरत था’. बताइये आपको कैसा लगा यह वीडियो 🙂

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