राजस्थान के 33वें जिले के रूप में मान्यता प्राप्त मालवा अंचल के प्रतापगढ़ जिले की विशिष्ट ‘थेवा कला’ आज अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खूब नाम कमा रही है। विशेष प्रकार की दुर्लभ और अद्भुत कला होने के कारण इसका उल्लेख ‘एनसायक्लोपीडिया ऑफ ब्रिटेनिका’ में भी हुआ है। इस कला को दुनिया तक पहुँचाने का श्रेय ‘राजसोनी’ परिवार के कलाकार गिरीश को जाता है, जो 400 साल पहले अपने पूर्वजों के द्वारा शुरू की गई इस खास कला को सहेज रहे हैं।
प्रतापगढ़ के परम्परागत कलाविद् एवं सुशिक्षित परिवार में सेवानिवृत्त प्रधानाध्यापक घनश्यामलाल वर्मा के घर 1959 में 5 सितम्बर को जन्मे गिरिश कुमार ‘राजसोनी’ ने इस कला को अंतरराष्ट्रीय ऊंचाइयां दी हैं।
थेवा कला के ‘आदि पुरूष’ कहे जाने वाले नाथूजी के इस परिवार में आगे चलकर रामलालजी हुए, जो गिरिश के ‘दादाजी’ थे। गिरीश ने इन्हीं के मार्गदर्शन एवं पिता की प्रेरणा से कला में विशिष्टता प्राप्त की।
गिरीश 20 साल की उम्र से इस काम में हैं। उनके दादा रामलाल राजसोनी सुनारी की दुकान करते थे, गिरीश ने दादा से कला की बारीकियां सीखीं थी। उन्होंने अपने मामाजी के कहने पर अपने कुछ रिश्तेदारों को भी यह कला सिखाई है। आज 8 लोग इस कला को करते हुए अपने घर गृहस्थी की गाड़ी को खींच रहे हैं। मध्यप्रदेश के मंदसौर में ‘थेवा आर्ट ज्वेलरी एंड फैशन गैलेरी’ के नाम से उनकी शॉप है। यहीं से वे अपने उत्पाद बेचते हैं। वे 2 पुत्रियों और एक पुत्र के पिता हैं। इंजीनियरिंग कर चुकी दोनों पुत्रियों की शादी हो चुकी हैं। पुत्र दुकान में पिता का सहयोग करते हुए हाथ बंटाता है।
वे कहते हैं, “पूरे जीवन में संघर्ष ही किया है। कार्य सीखने के दौरान संघर्ष की शुरुआत हुई। फिर कला की टेक्नीक सीखने में संघर्ष किया। काम में दक्षता होने पर भी आसानी से ग्राहक नहीं मिले, यहां भी संघर्ष ने पीछा नहीं छोड़ा। फिर प्रदर्शनियों में जाने के संघर्ष का दौर, जिसमें समय पर भोजन भी नहीं मिलता है, शिल्प मेले या कला प्रदर्शनियां दूर से लुभावनी लगती हैं।”
पिछले तीन दशकों से इस कला को सहेज रहे गिरीश ‘ग्रेजुएट’ होने के बावजूद भी अपने दिलो-दिमाग में कभी सरकारी नौकरी का ख्याल नहीं लाए। उनका मकसद इस कला को सहेजना और इसे आगे ले जाना था। अपने पूर्वजों की इस खास उपलब्धि को और अधिक ऐतिहासिक व महान बनाने के लिए वे आज भी निरन्तर आगे बढ़ते हुए प्रयत्नशील हैं।
‘थेवा कला’ में राष्ट्रपति पुरस्कार पाने वाले दूसरे व्यक्ति
दुर्लभ ‘थेवा’ कला को लोकप्रिय बनाने वाले गिरीश को 1993-94 में जिला एवं राज्य स्तरीय सिद्धहस्त शिल्पी पुरस्कार मिला तो 1998 में तत्कालीन राज्यपाल नवरंगलाल टिबरेवाल ने उन्हें सम्मानित किया। 2001 तत्कालीन उपराष्ट्रपति डॉ. कृष्णकांत के हाथों 3 अगस्त 2001 को 1999 का सिद्धहस्त शिल्पी का राष्ट्रपति पुरस्कार भी मिला। ‘थेवा’ कला में राष्ट्रपति पुरस्कार पाने वाले वे देश के दूसरे व्यक्ति हैं। फरवरी 2003 में हरियाणा के सूरजकुंड मेले में गिरीश को ‘कलामणि’ की उपाधि प्रदान की गई। वे शिल्पगुरु सम्मान से भी विभूषित हैं। केंद्रीय वस्त्र मंत्रालय की ओर से जनवरी, 2004 में अमेरिका जाकर भी इस कला का प्रदर्शन कर चुके हैं।
जिस ‘थेवा’ कलाकृति पर इन्हें राष्ट्रपति पुरस्कार मिला, उसी 8 इंचीय थेवा प्लेट पर भारत में हस्तशिल्प के पुनरूत्थान की स्वर्ण जयंति के मौके पर 15 नवम्बर 2002 को तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने 5 रुपए का ‘डाक टिकट’ जारी कर इस कला के साथ-साथ इसके कलाकार गिरीश को भी विशिष्ट गौरव प्रदान किया।
यह सम्मान दर्शाता है कि इनके अथक लगन और परिश्रम को किस कद्र सराहा गया है।
यह होती है ‘थेवा’ कला
यह प्रतापगढ़ की प्रसिद्ध ललित कला है जिसे ‘थेवा’ के नाम से जाना जाता है। इसका मूल उद्गम स्थल प्रतापगढ़ का देवलिया है जो स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व भारत की रियासतों में से एक हुआ करता था। इस बारे गिरीश विस्तार से बताते हैं।
“थेवा ‘राजसोनी’ परिवार की एक पारम्परिक कला है। इस कला में रंगीन शीशे (बेल्जियम ग्लास ) की ऊपरी सतह पर सोने से थेवाकारी व सोने से नक्काशी की जाती है, इसे ही थेवा कहा जाता है। इस कला को मूर्तरूप देने से पहले सोने के पतरे पर कोरा चित्र बनाया जाता है, फिर कंडारने एवं जाली काटने के बाद रासायनिक एवं तापन प्रक्रिया की सहायता से कांच को डिजाईन के अनुरूप ढाल दिया जाता है। उसके बाद चांदी की फ्रेम तैयार कर उस पर सोने की पॉलिश कर दी जाती है, कांच पर सोने से तैयार किए गए चित्र को इस फ्रेम में जड़ दिया जाता है।”
प्रतापगढ़ के रियासतकालीन इतिहासकार अप्पा मनोहर ठाकरे ने अपनी पुस्तक में लिखा है,‘‘यहां के सुनार लोग कांच पर सोने का ‘थेवा’ ऐसा बनाते हैं कि सारे ‘हिन्द’ में कहीं भी ऐसा नहीं होता। यूरोपियन लोग इसको बहुत ही चाव से खरीदते, पसंद करते और विलायत भेजते हैं।”
गिरीश दावा करते हैं कि ‘थेवा’ की कृतियां देखने के बाद आप इसकी तुलना सुई से पहाड़ खोदने या सोने से खुश्बू आने जैसी उपमाओं से करना पसंद करेंगे। इसकी नक्काशी बहुत ही कड़ी मेहनत के बाद पूरी होती है।
पत्नी ने भी सीखी ‘थेवा’ कला
थेवा कला की उपलब्धियों का दायरा यहीं पर नहीं सिमट जाता। लगभग 400 साल से चली आ रही इस खास कला का सृजन आज तक पुरूषों के हाथों में था। बदलते वक्त की नब्ज़ को समझते हुए गिरीश ने अपनी पत्नी उषा को भी इस कला की बारीकियां सिखाने में अपना योगदान दिया। उनकी मानें तो उषा इस क्षेत्र की प्रथम महिला थेवा शिल्पकार हैं।
1983 में गिरिश से वैवाहिक सूत्र में बंधने वाली उषा ने अपने पति को अपना गुरू बनाकर घर-गृहस्थी के कामों से समय निकाल पूरी लगन एवं आत्मविश्वास से इस कला की बारीकियां सीखीं। उषा ने पति के प्रोत्साहन एवं मार्गदर्शन में ही इस कला में अल्प समय में ही निपुणता प्राप्त की।
इस जोड़े को कदम से कदम मिलाकर ‘थेवा’ कला क्षेत्र में चलने के कारण प्रथम युगल (दम्पति) भी कहा जा रहा है।
उनकी दक्षता का परिणाम है कि उषा को थेवामय कृति ‘दर्पण’ के लिए मध्य प्रदेश हस्तशिल्प एवं हथकरघा विकास निगम ने 2003-04 का श्रेष्ठ शिल्पी का राज्यस्तरीय पुरस्कार देकर सम्मानित किया। 2005 के नेशनल मैरिट सर्टिफिकेट के लिए भी उन्हें नॉमिनेट किया गया था।
उषा बताती हैं, “इस शिल्प में सभी के लिए कुछ न कुछ है। नारी के सौन्दर्य और रूप में चार चाँद जड़ने के लिए थेवा कला में गले का हार, पेंडेंट, मंगलसूत्र, टीका, टॉप्स, लटकन, अंगूठी, करघनी, पांछी, पायजेब तो पुरूषों के लिए टाई-पिन, कोट और कमीज के बटन, कफलिंक इत्यादि बनते हैं।”
श्रृंगारिक वस्तुओं के अतिरिक्त भी कला में अपने चाहने वालों के लिए बहुत कुछ है। आपके कमरों की सजावट के लिए फोटो फ्रेम, प्लेट, डिब्बी, बॉक्स, गुलदस्ते हैं तो विभिन्न प्रयोग की वस्तुएं जैसे कंगा,आईना, इत्रदानी, एश-ट्रे, गिलास आदि भी इस कला से तैयार किए जाते हैं।
इस कला से महिलाओं के लिए विशेष आभूषण तैयार किए जाते हैं, जो उन्हें खूब पसंद आते हैं।
मुग़ल शैली का भी दिखने लगा मिश्रण
अब इस कला में मुग़ल शैली का ‘मिश्रण’ भी देखने को मिलने लगा है। अब तैयार होने वाली कलाकृतियों में शिकार का चित्रण, राजा-महाराजाओं की सवारियों का वर्णन जिसमें प्यादों एवं मंत्रियों के आखेट गमन के दृश्य होते हैं, जो देखते ही मन मोह लेते हैं।
इसके अलावा इस कला से विभिन्न देवी-देवताओं की सुन्दर छवि भी बनाई जाती हैं। थेवा में बनने वाली कृतियों में ज्यामितिय चित्र, विभिन्न पुष्पों, पौधों सहित पशु-पक्षियों की आकृतियां हाथी, घोड़े, हिरण, शेर, मोर भी स्तम्भ के रूप में पहचान पा चुके हैं।
यूं कहलाए ‛राजसोनी’
इस कला के जन्मदाता राजसोनी वंश के पूर्वज थे। आज से लगभग 400 वर्ष पूर्व की बात है, उस वक्त प्रतापगढ़ रियासत में महाराजा सांवतसिंह का राज था। इस वंश के पूर्वजों द्वारा कुछ कलाकृतियां दरबार में महाराजा को भेंट की गई। अनुपम, मोहक कला को देख महाराज अचंभित हुए, महाराज के अलावा पूरे मंत्रिमण्डल ने भी इस कला की मुक्त कंठ से प्रशंसा की।
खुश होकर राजा ने उन कलाकारों को राज सम्मान के तौर पर बड़ी जागीर और स्वर्ण जड़ित डोली भेंट की। उस दिन के बाद से ये सोनी कलाकार ‘राजसोनी’ कहलाए।
महाराजा सावंतसिंह ने इस कला के प्रोत्साहन की शुरुआत की तो भूतपूर्व दरबार रघुनाथ सिंह और राम सिंह भी इस कला की प्रगति और प्रचार-प्रसार के लिए आगे आए। इन्होंने अपने विदेशी मित्रों सहित देशी राजा-महाराजाओं को ‘थेवा कला’ में बने हुए स्वर्णाभूषण भेंट किए। तब से लेकर आज का दिन है, विदेशी कला प्रेमी भी इस कला को खूब पसंद करते हैं।
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संपादन – भगवती लाल तेली
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