हर रविवार, हजारों बेघर-बेसहारा लोगों को मुफ़्त खाना खिलाता है यह ऑटो-ड्राईवर!

"मुझे अहसास हुआ कि आत्महत्या करना बहुत गलत है, जब मैं अपनी ज़िन्दगी दूसरों की मदद करते हुए गुजार सकता हूँ।"

“अगर चीजें वैसे हुई होती जैसा कि मैंने सोचा था, तो आज मैं जिंदा नहीं होता, ” यह कहना है 45 वर्षीय बी मुरुगन का।

साल 1992 में मुरुगन ने 10वीं की परीक्षा दी और वे फेल हो गए। इस बात से आहत होकर उन्होंने आत्महत्या करने का फैसला कर लिया। आज उस घटना के 27 साल बाद वे बेघर और गरीब लोगों को खाना खिलाने के लिए एक संगठन चला रहे हैं और अपनी पत्नी और दोनों बच्चों के साथ खुश है। ‘द बेटर इंडिया’ से बात करते हुए मुरुगन उस दिन को याद करते हैं जिसने उनकी ज़िन्दगी की दिशा ही बदल दी।

“मेरी जीतोड़ मेहनत के बावजूद मैं फेल हो गया था और मैं इस बात को झेल नहीं पाया। मैं घर से 300 रुपये लेकर भाग गया और तय किया कि जहां भी ये बस मुझे ले जाएगी वहीं पर मैं अपनी ज़िंदगी खत्म कर दूंगा।”

मुरुगन अवॉर्ड लेते हुए (साभार: नीलल मैयम/फेसबुक)

वह बस उन्हें उनके शहर चेन्नई से 500 किलोमीटर दूर कोयम्बटूर के सिरुमुगाई शहर ले गई और इस पूरे सफर में वे बस अपनी असफलता के बारे में सोचते रहे।

“मुझे लग रहा था कि मैं कुछ भी नहीं हूँ। सुबह के दो बजे सिरुमुगाई पहुंचकर मैं फुटपाथ पर बैठ गया। वहां मेरी मुलाकात एक बूढ़े मोची से हुई, जिसने मुझे रात के लिए छत दी। मैंने बहुत से बदकिस्मत लोगों को अपने आसपास देखा, वे फुटपाथ पर सो रहे थे। उस समय मुझे अहसास हुआ कि आत्महत्या करना बहुत गलत है, जब मैं अपनी ज़िन्दगी दूसरों की मदद करते हुए गुजार सकता हूँ।”

इस सोच ने मुरुगन की ज़िंदगी बदल दी।

“मैं कभी भी वो रात और वो बूढ़े आदमी को नहीं भूल सकता जिन्होंने बिना कुछ कहे मेरी ज़िन्दगी बचाई, ” मुरुगन ने कहा।

अपने शुरुआती दिनों के बारे में बताते हुए मुरुगन कहते हैं कि सिरुमुगाई बस स्टैंड पर भीख मांगने वाले सभी भिखारियों ने उनके चेन्नई वापस लौटने के लिए पैसे भी इकट्ठा किये थे। लेकिन उन्होंने वे पैसे भिखारियों को वापस लौटा दिए और वहीं रहकर कुछ अच्छा करने का फैसला किया।

उन्होंने नौकरी ढूंढी तो सबसे पहली नौकरी उन्हें पास के एक होटल में मिली जहां वे मेज साफ़ करते थे। उन्हें वहां तीन वक़्त का खाना मिल रहा था इसलिए वे वहां काम करने लगे। हर सुबह 4 बजे उठना, फिर पास के तालाब में जाकर नहाना और फिर काम पर लग जाना। मुरुगन ने 6 महीने तक यहां काम किया और इसके बाद उन्होंने अखबार बेचने का काम ले लिया। उन्हें जो भी छोटी-बड़ी नौकरी मिलती वे करते रहे।

फिर साल 2006 में उन्होंने ड्राइविंग लाइसेंस के लिए अप्लाई किया। मुरुगन कहते हैं, “जो भी पैसा मैंने ऑटो चलाकर कमाया, वह सभी बेघरों को खाना खिलाने में खर्च किया।”

मुरुगन महीने के लगभग 3000 रूपये कमा पाते थे और इन पैसे में से वे सब्ज़ी, चावल आदि खरीदकर खाना बनाते और फिर पास के स्कूल में दिव्यांग बच्चों को खिलाते। उन्होंने जैसी भी छोटी-बड़ी नौकरी की, लेकिन कभी भी ज़रूरतमंद की मदद करने से पीछे नहीं हटे।

उनके काम से प्रेरित होकर, उनके छह और दोस्तों ने उनका साथ देना शुरू किया। साल 2008 में मुरुगन ने ‘नीलल मैयम’ के नाम से अपना संगठन शुरू किया। इसका मतलब होता है ‘बेघर को छांव’!

काम करते हुए (साभार: नीलल मैयम/फेसबुक)

धीरे-धीरे उनके इस संगठन से और भी लोग जुड़ने लगे। आज यह संगठन हर रविवार को 1300 से भी ज़्यादा लोगों को सांभर चावल खिला रहा है और वह भी बिल्कुल मुफ्त। सोमवार से शुक्रवार तक ये लोग खूब मेहनत करके पैसा कमाते हैं। इसके बाद ये वीकेंड पर खाना पकाते हैं और लगभग 25 शेल्टर होम में रहने वाले लोगों को बांटते हैं। शनिवार रात से ही खाना बनाने की सारी तैयारी हो जाती है और रविवार को खाना बांटा जाता है।

मुरुगन के इस काम में उनकी पत्नी और दोनों बच्चे पूरा साथ देते हैं। इसके अलावा उन्हें बाहर से भी समृद्ध लोग मदद करते हैं। अपने एक पुराने मालिक शब्बीर इमानी का भी नाम मुरुगन इन लोगों की फेहरिस्त में जोड़ते हैं जो हर महीने इस काम के लिए कुछ न कुछ दान करते हैं। इस नेक काम में मुरुगन हर हफ्ते लगभग 20 हज़ार रुपये खर्च करते हैं। जो पहल सिर्फ एक आदमी से शुरू हुई थी, आज उसमें 50 से अधिक स्वयंसेवक जुड़ चुके हैं।

मुरुगन अंत में सिर्फ इतना ही कहते हैं कि हम सबकी जिंदगी में एक वक़्त आता है जब हमें अहसास होता है कि हम बहुत कुछ कर सकते हैं। हमें बस वक़्त के साथ चलना है। हमारे लिए भले ही यह सिर्फ एक वक़्त का खाना हो लेकिन बहुत से लोगों के लिए पूरे एक हफ्ते में सिर्फ यही एक बार पेट भर कर खाना होता है।

अगर आप मुरुगन की मदद करना चाहते हैं तो उन्हें 9865093251 पर संपर्क करें और उन्हें फेसबुक पर भी संपर्क कर सकते हैं!

संपादन: भगवती लाल तेली
मूल लेख: विद्या राजा


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