माता-पिता न बनने का लिया फ़ैसला ताकि पंद्रह ज़रूरतमंद बच्चों को दे सके बेहतर ज़िन्दगी!

'' मुझे सबसे अधिक ख़ुशी तब होती है जब यह बच्चे अपनी छोटी से छोटी समस्या मेरे पास हक से लेकर आते हैं, तो मुझे लगता है कि मैं सही मायनों में अपना फ़र्ज़ निभा पा रही हूँ। बच्चे बेझिझक मुझसे अपनी बातें शेयर किया करते हैं।''

पने बच्चों को अच्छे से अच्छा बचपन देना, उनकी ज़रूरतों को पूरा करना हर माँ बाप का सपना होता है। यूँ कहें कि बच्चे के आ जाने से परिवार की प्राथमिकताएं ही बदल जाती है। जहाँ युवा-अवस्था में हर इंसान अपने शौक़ पूरा करने में पैसे दोनों हाथों से उड़ाता है, वहीं एक नन्हीं सी जान के आ जाने से उनके शौक पीछे छूट जाते हैं। तब बच्चों की ज़रूरतें, उनके लिए आराम की वस्तुएं जुटाना ही प्राथमिकता हो जाती है। हम सब कहीं न कहीं अपनी सारी शक्ति अपने बच्चों को एक आरामदायक ज़िन्दगी देने में ही लगा देते हैं। फिर भी महंगाई के इस दौर में बहुत कुछ ऐसा होता है जिसे हम चाह कर भी पूरा नहीं कर पाते हैं।

इस दौर में जहां अपने बच्चों की ज़रूरतों की पूर्ति करना ही एक बड़ा सवाल है, ऐसे में किसी दूसरे के बच्चे का भविष्य सँवारने की कौन सोचता है। हमारा तो पूरा जीवन सिर्फ और सिर्फ अपने बच्चों की ज़रूरतों और उनके बेहतर भविष्य के निर्माण की कोशिशों में ही गुजर जाता है।

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हॉस्टल में रहने वाले बच्चे।

 

लेकिन हमारे बीच कुछ ऐसे भी लोग हैं जिन्होंने उन बच्चों के बारे में सोचा जिनके बारे में कोई सोचने वाला नहीं था। उन्होंने खुद अपनी संतान पैदा न करके उन बच्चों के लिए कुछ करने की सोची जिन्हें बेहतर जीवन नहीं मिल पा रहा था। मैं बात कर रही हूँ इंदौर में रहने वाली धरा पाण्डेय और उनके पति निखिल दवे की। इस दंपत्ति की अपनी कोई संतान नहीं है लेकिन यह 15 बच्चों के माँ-पिता होने का फ़र्ज़ बड़े प्रेम से निभा रहे हैं।

”लोग माता-पिता बनने की तो सोचते हैं लेकिन बच्चों की अच्छी परवरिश के बारे में नहीं सोचते। अक्सर अच्छी परवरिश से हम समझ लेते हैं महंगा स्कूल, महंगी चीजें आदि , लेकिन ऐसा नहीं है। परवरिश बहुत मुश्किल काम है, हम बच्चों को बेहतर दिल-दिमाग नहीं दे पा रहे हैं। समाज में तेरा-मेरा हो गया है जबकि होना ये चाहिए कि हम सब बच्चों को अपना ही समझें । सब मिलकर इन जरूरतमंद बच्चों को पालें और उनको बेहतर जीवन दें, ” धरा और निखिल ने कहा।

 

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बच्चे स्कूल जाते हुए।

धरा पेशे से प्रोफ़ेसर हैं व उनके पति निखिल व्यवसाय करते हैं और दोनों ही मृत्युंजय भारत ट्रस्ट के माध्यम से सामाजिक सरोकार के कार्यों से भी जुड़े हैं। इस ट्रस्ट की स्थापना उन्होंने 2001 में की थी। ट्रस्ट एक्टिविटीज के चलते वे अक्सर अपने आस-पास के ग्रामीण इलाके में जाते रहते थे। इसी बहाने धरा को मध्य प्रदेश के आदिवासी इलाके के लोगों को नजदीक से देखने का भी मौका मिला, जहाँ भीषण गरीबी थी। धरा ने वहां के आदिवासी बच्चों में गज़ब की प्रतिभा देखी तो सोचा कि अगर यह पढ़ लिख जाए तो कितना अच्छा हो। लेकिन जिन लोगों के पास अपने बच्चों को खिलाने-पिलाने का अभाव था वह शिक्षा पर कहाँ से खर्च करते।

 

सन् 2014 में धरा और निखिल ने इन बच्चों को गोद लेने की सोची और पंद्रह बच्चों को गोद ले लिया या यूँ कहें कि उनकी जिम्मेदारियों को गोद लिया। 

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गार्डन में खेलते बच्चे।

उन्होंने इसके लिए सबसे पहले बच्चों के अभिभावकों को समझाया और फिर बच्चों को भी अपने साथ चलने के लिए तैयार कर दिया।

निखिल कहते हैं, ”बच्चों के माता-पिता को इसके लिए तैयार करने में हमें कोई खास परेशानी नहीं हुई , क्योंकि वे लोग पहले से ही हमें जानते थे। हम उनके गाँवों में एक्टिवटीज करते रहते हैं। शुरुआत में हम इन्हीं गाँवों से कुछ बच्चों को अपने साथ लाए। इसके बाद तो बच्चे खुद ही दूसरे जरूरतमंद बच्चों को अपने साथ ले आए।”

निखिल और धरा ने शहर आकर बच्चों के रहने व पढ़ने-लिखने का इंतज़ाम किया और नाम दिया ‘क्राफ्टिंग फ्यूचर‘। लेकिन पंद्रह बच्चों को बिना किसी सरकारी मदद के पालना आसान काम नहीं था। इसके लिए उन्होंने अपने दोस्तों से मदद ली। दोस्तों ने भी उनके इस काम में पूरा साथ दिया और एक-एक कर सभी ने आपस में जिम्मेदारियां बांट ली। किसी ने राशन भरवा दिया तो किसी ने दूध का इंतज़ाम कर दिया।

 

कोई स्कूल में एडमिशन करवा गया तो किसी ने पुस्तकों की व्यवस्था कर दी और हो गई क्राफ्टिंग फ्यूचर की शुरुआत।

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स्कूल ड्रेस में बच्चे।

निखिल के मित्रों की इस टीम में अर्पणा साबू का नाम प्रमुख है। निखिल और धरा उन्हें बच्चों की अन्नपूर्णा कह कर पुकारते हैं। अर्पणा के पास सेंटर पर आकर बच्चों के पास बैठने का समय चाहे न मिलता हो लेकिन वह बच्चों के लिए राशन पानी की व्यवस्था खुद ही संभालती हैं। अर्पणा ने मित्रों के साथ मिलकर एक समूह भी बनाया है, जो बच्चों के लिए हर माह राशन भेज देता है। सिर्फ राशन ही नहीं, बच्चों के लिए दूध भी इन्हीं के प्रयासों से पहुंच रहा है।

 

धरा और निखिल के प्रयासों से इन बच्चों को ट्यूशन सुविधा भी मिल रही है। फ्री टाइम में शहर के कुछ युवा इन बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने भी आते हैं।

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बच्चों को ट्यूशन कराते बाहर से आए छात्र।

ओजीत जो त्रिपुरा के शरणार्थी शिविर का रहने वाला बच्चा है, कहता है, “मैं उधर नहीं जाऊँगा क्योंकि उधर कुछ भी नहीं है, न पढ़ने को, न खाने को। आप बड़ा हॉस्टल बना लो भैया, मैं आपके साथ ही रहूँगा और सब बच्चों की देखभाल भी करूँगा।”

त्रिपुरा से आए बच्चे (सोमलुहा, प्रीतिक, देबजोति, खोरगोजय, नवनीत, अमित, ओजयराम) ओजीत की तरह ही शरणार्थी शिविरों के रहने वाले  बच्चे हैं। ग़रीबी बहुत है, घर वालों के पास काम नहीं इसलिए यहीं रहने के इच्छुक हैं। बच्चे हैं, घर की याद तो आती ही होगी लेकिन अभाव ने इन्हें इतना समझदार बना दिया है कि घर नहीं जाना चाहते।

इन ज़्यादातर बच्चों के घर वाले दूसरों के खेतों पर मजदूरी करते हैं। उत्तर-पूर्व के बच्चे गरीब परिवार से आते हैं और शरणार्थी शिविर में रहने वाली ब्रू जनजाति से ताल्लुक रखते हैं, जिसे मिज़ोरम से निकाला गया था। इस जनजाति के ज़्यादातर लोगों के पास रोज़गार नहीं है और रोज़ी-रोटी के लिए जंगलों पर निर्भर है। बच्चे बताते हैं कि सरकार की तरफ़ से दिन के 5 रुपए और आधा किलो चावल मिलता है, लेकिन इससे एक परिवार का पेट नहीं भर सकता।

”शुरुआत में जब बच्चे आए थे तो उनके पास स्कूल की मार्कशीट ही थी। ज़्यादातर बच्चे खुद का नाम भी नहीं लिख पाते थे। अब इस स्थिति में सुधार आया है। बच्चे पढाई-लिखाई में बेहतर हुए हैं। हालाँकि यह बहुत आउटस्टैंडिंग रिजल्ट नहीं है और इसके लिए हम उनको जोर भी नहीं देते। सबसे बड़ी बात इन बच्चों में कॉन्फिडेंस आया है। वे पहले किसी से भी बात करने में झिझकते थे, सामने आने में घबराते थे लेकिन अब ऐसा नहीं है,” निखिल ने कहा।

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नए कपड़े मिलने की ख़ुशी।

निखिल कहते हैं कि, देश से अशिक्षा का अंधकार मिटाने की ज़िम्मेदारी केवल सरकार की ही नहीं हैं। हम अगर समाज के ऐसे संपन्न वर्ग से आते हैं, जिसे ईश्वर ने संसाधनों से नवाज़ा है तो हमारा फ़र्ज़ बनता है कि हम समाज के जरूरतमंद तबके के लिए अपने सामर्थ्य के अनुसार कुछ न कुछ ज़रूर करे।

निखिल ने जहाँ संसाधन जुटाने की ज़िम्मेदारी ले रखी है वहीं धरा के जिम्मे इन बच्चों की माँ की भूमिका है, ताकि अपने परिवार से दूर रह कर पढ़ाई करने वाले इन मासूमों को कभी माँ की कमी महसूस न हो। धरा कॉलेज के बाद का पूरा समय इन बच्चों के साथ ही गुजारती है। यह बच्चे इंदौर स्थित साकेत नगर के तीन कमरों के एक फ्लैट में सभी सुविधाओं के साथ एक स्वस्थ वातावरण में रहते हैं। जहाँ इनकी देखरेख के लिए एक केयर टेकर और कुक मौजूद रहते हैं।

धरा कहती है, ”जो बच्चे आस-पास के रहने वाले हैं वे तो छुट्टी में अपने परिवार से मिलने घर चले जाते हैं। लेकिन जो बच्चे उत्तर-पूर्वी राज्यों जैसे मिजोरम, नागालैंड, मणिपुर से आए हैं उनके लिए घर जाना संभव नहीं हो पाता है। ऐसे में हम इन बच्चों को भी अन्य बच्चों के साथ यहीं घुमाने ले जाते हैं, ताकि बच्चे निराशा के भाव से बचे और ख़ुशी-ख़ुशी अपनी पढ़ाई में दिल लगाए।”

”मुझे सबसे अधिक ख़ुशी तब होती है जब यह बच्चे अपनी छोटी से छोटी समस्या मेरे पास हक से लेकर आते हैं, तब मुझे लगता है कि मैं सही मायनों में अपना फ़र्ज़ निभा पा रही हूँ।”

अगर आप भी इन बच्चों का भविष्य संवारने में अपना कुछ योगदान देना चाहते हैं, तो धरा और निखिल के बसाए इस छोटे से परिवार में आपका बहुत-बहुत स्वागत है। धरा पाण्डेय से आप उनके मोबाइल नंबर 9425949007 पर संपर्क कर सकते हैं।


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