साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित यह चौकीदार कवि अपनी आधी सैलरी लगा देता है गरीब बच्चों की शिक्षा में

पढ़िये एक चौकीदार कवि के संवेदनशील मन की कहानी, जिसने उसे अपनी सैलरी के पैसों से अपने इलाके के गरीब-वंचित बच्चों को निःशुल्क शिक्षा उपलब्ध कराने के लिए प्रेरित किया!

न्होंने केमिस्ट्री ऑनर्स की पढ़ाई की थी। वे डॉक्टर बनना चाहते थे, लेकिन समय के थपेड़ों ने उन्हें चौकीदार बना दिया। वे अपने गाँव लौट आए। पर उनके भीतर एक कवि हृदय था, जिसकी वजह से गाँव में रहते हुए भी उन्होंने अपनी मातृभाषा मैथिली में लोक जीवन की कविताएं लिखीं। और इस हारे हुए कवी की कविताएँ जब प्रकाशित हुईं तो उन्हें साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार मिल गया।

 

उन्हें मालूम था कि अगर अपने समाज के लोगों के जीवन में बदलाव लाना है, तो शिक्षा से बेहतर माध्यम दूसरा कोई नहीं है, इसलिए गाँव लौट कर उन्होंने नि:शुल्क शिक्षा केंद्र शुरू किया। यहाँ वे गरीब, वंचित और दलित समुदाय के बच्चों को पढ़ाने लगे। भले ही इस काम में उनकी आधी सैलरी, उनकी मां के पेंशन का एक बड़ा हिस्सा और उनकी खेती की उपज लग जाती है, पर उन्होंने इस काम को नहीं छोड़ा। उन्होंने यह महसूस किया कि उनके समाज में धर्म का प्रभाव काफी गहरा है। उन्हें लगा कि इसके जरिए भी लोगों को जोड़ा जा सकता है। इसलिए उन्होंने अपने समाज के लोकदेव सल्हेस को चुना और उनका गहवर स्थापित किया। आज ये तमाम प्रयास बदलाव के वाहक बन रहे हैं। इस तरह कोसी के कछार के एक अति पिछड़े गाँव में मैथिली का साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार प्राप्त करने वाला कवि, जो खुद पेशे से चौकीदार है और जाति से दलित, अपने गाँव और समाज में बदलाव की बुनियाद तैयार कर  रहा है।

 

यह कहानी बिहार के मधुबनी जिले के कोसी नदी से सटे औरहा गाँव के उमेश पासवान की है।

उमेश पासवान

 

उस रोज जब हम उनसे मिलने उनके गाँव लौकही थाना के औरहा पहुँचे तो शाम ढलने लगी थी। हमें उनके घर का रास्ता मालूम नहीं था, लेकिन उनके गाँव से पांच कि.मी. दूर के गाँवों के लोग भी उन्हें जानते थे। वे उनके घर का रास्ता बताने लगे थे। एक कवि, एक चौकीदार, एक संवेदनशील मनुष्य अपने आसपास के समाज में इतना लोकप्रिय हो, यह हमारे लिए हर्ष मिश्रित आश्चर्य का विषय था। लोग उन्हें दो वजहों से जानते थे, पहला उनके द्वारा संचालित किया जाने वाला आस्था निःशुल्क शिक्षा सेवा केंद्र और दूसरा उनके द्वारा बनाया जा रहा लोकदेव सल्हेस का मंदिर।

 

जब हम उनके घर के पास पहुंचे तो एक अधबना मकान दिखा, जहाँ आस्था निःशुल्क शिक्षा सेवा केंद्र का बोर्ड लगा था, कमरों में कुछ ब्लैक बोर्ड लगे थे और बच्चों के बैठने की जगह थी। उमेश पासवान ने हमें बड़े उत्साह से यह सब दिखाया। बाद में मालूम हुआ कि उनका अपना परिवार पास ही फूस की झोपड़ी में रहता है। आस्था केंद्र के लिए यह भवन अभी बन ही रहा है। उनके घर के बारे में जब हमने पूछा तो उन्होंने कहा कि अगर सब ठीक रहा तो वह भी बन जाएगा।

आस्था निःशुल्क शिक्षा सेवा केंद्र

 

 

उन्होंने बताना शुरू किया कि वह दलित समुदाय से आते हैं। बिहार के इस निर्धनतम इलाके में उनके समाज के लोगों की स्थिति काफी दयनीय है। यह तो उनकी खुशकिस्मती थी कि उनके पिता चौकीदार थे, इसलिए वे पढ़-लिख पाए और उन्होंने केमिस्ट्री में ऑनर्स के साथ ग्रैजुएशन भी किया। लेकिन आगे पढ़ाई कर पाना उनके लिए संभव नहीं हो सका, क्योंकि उनके पिता बीमार पड़ गए और लंबे समय तक वेतन नहीं मिलने के कारण उनका सही इलाज भी नहीं हो सका। उनकी मृत्यु हो गई। घर-परिवार और माँ को संभालने के लिए उन्हें गाँव लौटना पड़ा और उन्हें अनुकंपा पर पिता की चौकीदार वाली नौकरी मिल गई। वे निराश तो बहुत हुए, लेकिन तय कर लिया कि यहीं रह कर वे कुछ सकारात्मक करने का प्रयास करेंगे, ताकि उनके समुदाय की नयी पीढ़ी को ऐसी विवशता का सामना नहीं करना पड़े।

 

छह साल पहले, 2013 में उन्होंने आस्था निःशुल्क शिक्षा सेवा केंद्र की स्थापना की और तय किया कि अपने वेतन का आधा पैसा वे इस केंद्र के संचालन में खर्च करेंगे।

गाँव के दो पढ़े-लिखे युवकों को उन्होंने शिक्षक के रूप में नियुक्त किया। उन्होंने बच्चों के लिए किताब और कॉपी का इंतजाम किया और अपनी पत्नी प्रियंका के साथ इस केंद्र के संचालन में जुट गए। आज इस केंद्र में 230 बच्चों ने नाम लिखा रखा है, जिनमें 167 बच्चे नियमित तौर पर यहाँ आते हैं। ये बच्चे सिर्फ उनके ही गाँव के नहीं, बल्कि आसपास के दो-तीन गाँवों के हैं।

 

उमेश बताते हैं, “यह कोई स्कूल नहीं है, बल्कि एक तरह का ट्यूशन सेंटर है, जहाँ बच्चे सुबह स्कूल जाने से पहले डेढ़ घंटे और शाम के वक्त दो घंटे के लिए पढ़ने आते हैं। चूंकि इन इलाकों में सरकारी स्कूलों में पढ़ाई बहुत अच्छी नहीं होती, इसलिए इन बच्चों और उनके परिवार के लोगों के लिए इस केंद्र का महत्व काफी है।”

 

उनके ही गाँव के बुजुर्ग समाजसेवी राज कुमार यादव कहते हैं कि “यह कोसी कछार का इलाका है। हम लोगों को हमेशा बाढ़ की आपदा का सामना करना पड़ता है। यह गाँव जिला मुख्यालय से भी काफी दूर है, इसलिए यहाँ सरकार की नजर भी नहीं रहती। प्राइवेट स्कूल भी बहुत कम हैं। ऐसे में, इस तरह के शिक्षा केंद्र का बड़ा महत्व है, खास तौर पर दलित और पिछड़े समाज के बीच।”

 

एक अन्य ग्रामीण और सरकारी स्कूल में शिक्षक राधे कुमार मंडल इस बात को स्वीकार करते हैं और कहते हैं कि कई वजहों से सरकारी स्कूलों की शिक्षा व्यवस्था बहुत भरोसेमंद नहीं है। ऐसे में, गरीब तबके के लोगों के लिए इस केंद्र का काफी महत्व है। इस इलाके में कोई तो जगह है, जहाँ इन बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिल रही है और वह भी मुफ्त। यह शिक्षा उनके बच्चों का जीवन बदल सकती है।

 

उमेश पासवान कहते हैं कि इस केंद्र का एक मकसद बच्चों को स्कूल में होने वाले जातिगत भेदभाव से बचाना भी है। हम लाख कह दें कि अपने देश में छुआछूत खत्म हो गया है, मगर किसी न किसी स्तर पर यह हर जगह दिख ही जाता है। जैसा भेदभाव हमने देखा, वैसा तो अब नहीं है, लेकिन मिड डे मील बंटते वक्त कई स्कूलों में दलित बच्चों को अलग कतार में बैठाने की बात आज भी सुनी जाती है। इसलिए इस केंद्र में हम जाति मुक्त बराबरी का माहौल देते हैं। उमेश कहते हैं, “मैं चाहता तो इस केंद्र को सिर्फ अपने दलित समुदाय के लिए चला सकता था, मगर तब जातिगत भेदभाव बना ही रह जाता। आज इस स्कूल में ऐसी तमाम जातियों के बच्चे आते हैं, जो वंचित और गरीब हैं। जब वे एक साथ बैठते हैं और देखते हैं कि इस स्कूल का संचालक एक दलित है, तो जाति की दीवारें खुद-ब-खुद टूटने लगती हैं।”

 

उमेश मूलतः कवि हैं। उन्होंने लेखन का माध्यम अपने इलाके की उस मैथिली भाषा को बनाया है, जिस पर अभी तक सवर्ण जातियों का प्रभुत्व रहा है। वे गाँव में रहते हैं और थाने में ड्यूटी करते हैं, इसलिए उनकी कविताओं में ठेठ ग्रामीण जीवन के बिम्ब नजर आते हैं। इनकी कविताओं में किसानों, मजदूरों, छोटी-मोटी नौकरी करने वालों और आम लोगों के दुख-दर्द को अभिव्यक्ति मिली है।

 

उनकी इस साहित्यिक प्रतिभा को पहचान राष्ट्रीय स्तर पर मिली और पिछले साल जून महीने में उन्हें प्रतिष्ठित साहित्य अकादमी का युवा पुरस्कार मिला। यह ऐसा पुरस्कार था, जिसके बारे में उनके इलाके के लोग कुछ भी नहीं जानते थे। उन्होंने जब थाने में अपने सहकर्मियों को इसके बारे में बताया तो वे भी समझ नहीं पाए कि यह कैसा पुरस्कार है। उनकी माँ अमेरिका देवी ने कहा कि यह कैसा पुरस्कार है, सबको पैसे मिलते हैं, तुमको पुरस्कार मिलता है। मैं तो चाहती थी कि तुम डॉक्टर-इंजीनियर बनते, मगर कवि-साहित्यकार बन गये हो, डिबिया की रोशनी में आँख खराब करते हो, इस सबसे तुम्हें क्या मिलता है।

इस प्रसंग को उमेश ने अपनी कविता में कुछ इस तरह अभिव्यक्त किया है-

थाना पर रहि हम

सुखल रहै मन

शैन दिनक बात छै

पांच बजे साहित्य अकादमी से एलै हमरा फोन

घर जाय के माय के पैर छुई के हम कहलियै

हमरा भेटल साहित्य अकादमी पुरस्कार

माय कहलखिन-ई की होय छै

ऐ में, पैसा लगै छी कि पैसा दै छै

सबके भेटै छै ढौआ-कौड़ी, तोरा भेटलौ पुरस्कार

जो रे कपरजरुआ, तोहर कामे होय छौ बेकार

 

कत्ते साल से तू डिबिया के सबटा तेल जरोअलै

हमरा मोन रहे, तू डॉक्टर बैनते

रौद से जरल इ देह के

शौख सहेन्ता पूरा करितै

बन्हकी लागल खेत छोड़ेबतै

मूंह पेट बाइन्ह तोरा पढ़ैलियो

बाबू के नौकरी तोरा देलियौ

आब सुनै छी तू भै गेलै साहित्यकार

जो रे कपरजरुआ, तोहर कामे होय छौ बेकार

………….

हिंदी अनुवाद-

थाना पर थे हम

सूखा हुआ था मन

शनिवार की बात थी

पांच बजे साहित्य अकदामी से आया फोन

घर जाकर, मां के पांव छूकर मैंने कहा

मां, मुझे मिला है साहित्य अकादमी पुरस्कार

मां ने कहा- यह क्या होता है

इसमें पैसा लगता है, या पैसा मिलता है

सबको अपने काम के बदले में पैसे मिलते हैं, तुमको मिला है पुरस्कार?

जा रे जली हुई किस्मत वाला, तुम्हारा काम ही होता है बेकार

 

कितने साल से तुमने ढिबरी का सारा तेल जलाया

मैं चाहती थी, तुम डॉक्टर बनते

धूप से जली हुई इस देह की

सभी ख्वाहिशों को पूरा करते

गिरवी रखे खेतों को छुड़ाते

मुंह और पेट को बांधकर मैंने तुम्हें पढ़ाया

पिता के जाने पर उनकी नौकरी दी

अब सुनती हूं, तुम बन गए साहित्यकार

जा रे जली हुई किस्मत वाला, तुम्हारा काम ही होता है बेकार

लेकिन जब इस पुरस्कार की वजह से उन्हें मीडिया में जगह मिलने लगी और उनसे मिलने दूर-दराज से लोग आने लगे, तो उनकी माँ को भी इस बात का एहसास हुआ कि बेटा अच्छा काम कर रहा है। अब कई बार जब उमेश पासवान को समय से सैलरी नहीं मिलती है तो उनकी मां अपनी पेंशन का पैसा उन्हें देती हैं, ताकि आस्था केंद्र का काम नहीं रुके।

उनकी पत्नी प्रियंका भी इस केंद्र के संचालन में उनकी मदद करती हैं। वे बच्चों को हिंदी, अंग्रेजी, गणित समेत कई विषयों की शिक्षा देती हैं। जब मैंने उनसे यह पूछा कि उनके पति अपनी सैलरी का आधा पैसा आस्था केंद्र में खर्च कर देते हैं तो उन्हें बुरा नहीं लगता? इस पर वे कहती हैं, “इस काम से आसपास के बेरोजगार और गरीब लोगों का भला भी तो हो रहा है।“ फूस की झोपड़ी में ढिबरी की रोशनी में बैठा यह परिवार कैसे सैकड़ों ग्रामीणों के जीवन में उम्मीद का सवेरा ला रहा है, यह देख कर मन के किसी कोने में आस्था जगने लगती है।

देखिये द बेटर इंडिया के संवाददाता पुष्यमित्र की कवि उमेश पासवान से इस मुलाक़ात की एक झलक –

संपादन – मनोज झा 


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