फ़ैज़ साहब से जलन!

महबूब के रुमान को तो हम सबने महसूस किया ही है, लेकिन सब नहीं जानते कि इन्क़िलाब का रुमान भी बहुत सुरीला होता है, दिलकश होता है। फ़ैज़ साहब इन दोनों रुमानों में ताउम्र डूबे रहे तो इनसे जलना लाज़मी तो है न ?

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की शायरी की विशाल चमकदार दुनिया ऐसी है, जहां रुमान (रोमांस) एक चटकीली शोख़ मोहतरमा के अवतार में आपके सामने से इतराता, झूमता गुज़रता है और ये शोख़ दिलकश ख़ातून (उनकी शायरी) बांके, बाग़ी तेवर भी रखती है, इनका शब्द विन्यास सुनहरा भी है, पनीला भी। एक तितली की तरह कभी किसी वादी में नदी की सतह पर उड़ता चलता है, कभी किसी फूल में बस जाना, उसमें बंद हो जाना चाहता है फिर वही तितली अचानक एक आग की आंधी की तरह उड़ती है और समाज, सियासत के दुष्चक्रों पर बिजली की तरह टूटती है।

रवानी का आलम यूँ है कि दुरूह से दुरूह विषयों पर से बड़ी आसानी से गुज़र जाती है और मज़े मज़े में आपको झकझोरती हक़ीक़त से रूबरू करा वापस अपनी ख्वाबगाहों में लौट जाती है। टेलिविज़न के सुपर स्टार रहे कंवलजीत को उर्दू शायरी का शौक़ नशे की हद तक है। एक बार उनके साथ शूट कर रहे थे, तो उन्होंने बताया कि फ़ैज़ की शायरी को यूँ देखें कि भई एक खुशनुमा शाम धीरे धीरे पूरे चाँद की रात में तब्दील हो रही है। आप अपनी महबूबा के शहद-ए-विसाल में सरोबार हो ताजमहल में बड़ी देर तक बैठे हों – फिर यूँ हो कि अचानक महबूबा आपकी तरफ़ मुड़े, आपके कान के पास उसका मुंह आए, उसके कुछ बाल उड़ते हुए आपके चेहरे से कुछ यूँ टकरायें कि शरीर में झुरझुरी उठ्ठे, उसकी ख़ुश्बू से आपकी आंखें भारी हो कर मुंदनें लगें और उसकी मरमरी आवाज़ के मुंतज़िर आपके बड़े आंखों वाले वजूद को सुनाई पड़े – इन्क़िलाब ज़िन्दाबाद और वो भी इस तरह कि आप तुरंत झंडा उठा कर चलने लगें।

महबूब के रुमान को तो हम सबने महसूस किया ही है, लेकिन सब नहीं जानते कि इन्क़िलाब का रुमान भी बहुत सुरीला होता है, दिलकश होता है। फ़ैज़ साहब इन दोनों रुमानों में ताउम्र डूबे रहे तो इनसे जलना लाज़मी तो है न ?

उनकी शायरी में ज़बान रक़्स (नृत्य) करती हुई प्रतीत होती है। ये मंज़र देखिए – ‘उनसे’ बिछड़ने की रात है, साहब नज़्म की शुरुआत यूँ करते हैं –

और कुछ देर में लुट जाएगा हर बाम पे चाँद

अक्स खो जाएँगे आईने तरस जाएँगे
अर्श के दीदा-ए-नमनाक से बारी-बारी
सब सितारे सर-ए-ख़ाशाक बरस जाएँगे
आस के मारे थके हारे शबिस्तानों में
अपनी तन्हाई समेटेगा, बिछाएगा कोई
बेवफ़ाई की घड़ी, तर्क-ए-मदारात का वक़्त
इस घड़ी अपने सिवा याद न आएगा कोई
तर्क-ए-दुनिया का समाँ ख़त्म-ए-मुलाक़ात का वक़्त
इस घड़ी ऐ दिल-ए-आवारा कहाँ जाओगे
इस घड़ी कोई किसीका भी नहीं रहने दो
कोई इस वक़्त मिलेगाही नहीं रहने दो
और मिलेगाभी इस तौर कि पछताओगे
इस घड़ी ऐ दिल-ए-आवारा कहाँ जाओगे
और कुछ देर ठहर जाओ कि फिर नश्तर-ए-सुब्ह
ज़ख़्म की तरह हर इक आँख को बेदार करे
और हर कुश्ता-ए-वामाँदगी-ए-आख़िर-ए-शब
भूल कर साअत-ए-दरमांदगी-ए-आख़िर-ए-शब
जान पहचान मुलाक़ात पे इसरार करे

इनकी एक-एक कृति को पढ़कर रश्क़ होता है इनसे। हिन्दी कविता और उर्दू स्टूडियो प्रॉजेक्ट और कुछ नहीं है, हर तरह के रुमान की कॉकटेल है। हम हमेशा कहते हैं कि ये फूलों का धंधा है – बस मज़े का, रुमान का सफ़र है, तो जब कारोबार ही रुमान का हो, तो इसके बड़े व्यापारियों से जलन तो होगी ही न ?

आज प्रस्तुत है इनकी एक रुमानी नज़्म जिसमें रिनी सिंह ने चार – छह चाँद अपनी कलाकारी से जड़ दिये हैं। एक कप चाय का ले इसे इत्मीनान से सुनें, ये आपके आज के दिन का सबसे ठंडा ख़ुशनुमा झोंका साबित होगा – इसका दावा है।

लेखक –  मनीष गुप्ता

हिंदी कविता (Hindi Studio) और उर्दू स्टूडियो, आज की पूरी पीढ़ी की साहित्यिक चेतना झकझोरने वाले अब तक के सबसे महत्वपूर्ण साहित्यिक/सांस्कृतिक प्रोजेक्ट के संस्थापक फ़िल्म निर्माता-निर्देशक मनीष गुप्ता लगभग डेढ़ दशक विदेश में रहने के बाद अब मुंबई में रहते हैं और पूर्णतया भारतीय साहित्य के प्रचार-प्रसार / और अपनी मातृभाषाओं के प्रति मोह जगाने के काम में संलग्न हैं.


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