देश का पहला ‘पर्यावरण संरक्षण आंदोलन’ : जानिए ‘चिपको आंदोलन’ की कहानी; उसी की ज़ुबानी!

26 मार्च 1974 को गढ़वाल की गौरा देवी के नेतृत्व में ग्रामीण महिलाओं ने सरकार द्वारा लागू जंगलों की कटाई की नीति के विरोध में 'चिपको आंदोलन' की शुरुआत की। आज भी इतिहास में इस आंदोलन को देश के सबसे पहले पर्यावरण संरक्षण आन्दोलन के तौर पर जाना जाता है!

(यह लेख हमें संजय चौहान जी द्वारा भेजा गया है। उन्होंने इस लेख को ‘अंग्वाल/चिपको आंदोलन’ की ज़ुबानी लिखा है। आज चिपको आंदोलन आपको बता रहा है कि अपने उदय के इतने सालों बाद, यह आंदोलन क्या महसूस करता है।)

मैं गढ़वाल की गौरा देवी का अंग्वाल (चिपको आंदोलन) आंदोलन हूँ!

मैंने विश्व को अंग्वाल (गले मिलना) के ज़रिए पेड़ों को बचाने और पर्यावरण संरक्षण का अनोखा संदेश दिया। जिसके बाद पूरी दुनिया मुझे ‘चिपको आंदोलन’ के नाम से जानने लगी। मेरा उदय 70 के दशक के प्रारम्भ में हुआ; क्योंकि सरकार ने गढ़वाल के रामपुर- फाटा और मंडल घाटी से लेकर जोशीमठ की नीति घाटी तक के हरे- भरे जंगलों में मौजूद लाखों पेड़ो को काटने का फरमान सुनाया था। इस फरमान ने मेरी मातृशक्ति यानी कि नारीशक्ति और सभी पुरुषों को विद्रोह के लिए आतुर कर दिया था।

जिसके बाद, चंडी प्रसाद भट्ट, हयात सिंह बिस्ट, वासवानंद नौटियाल, गोविन्द सिंह रावत, और तत्कालीन गोपेश्वर महाविद्यालय के छात्र संघ के सम्मानित पधादिकारी सहित सीमांत के कर्मठ और जुझारू लोगों ने मेरी अगुवाई की। मेरे लिए गौचर, गोपेश्वर से लेकर श्रीनगर, टिहरी, उत्तरकाशी, पौड़ी में जनसभाओं का आयोजन भी किया गया। अप्रैल 1973 में, पहले मंडल के जंगलों को बचाया गया और फिर रामपुर फाटा के जंगलो को कटने से बचाया गया। यह मेरी पहली सफलता थी।

पर इसके बाद सरकार ने मेरे रैणी गाँव के हरे- भरे जंगल के लगभग 2, 500 पेड़ो को कटवाने का आदेश दिया और इसके लिए साइमन गुड्स कंपनी को ठेका दिया गया था। 18 मार्च 1974 को साइमन कंपनी के ठेकेदार और मज़दूर अपने खाने- पीने का बंदोबस्त कर जोशीमठ पहुँच गए। 24 मार्च को जिला प्रशासन ने बड़ी ही चालाकी से एक रणनीति बनाई गई। जिसके तहत चंडी प्रसाद भट्ट और अन्य साथियों को जोशीमठ-मलारी सड़क निर्माण के लिए अधिग्रहण की गयी ज़मीन के मुआवज़े के सिलसिले में बातचीत करने के लिए गोपेश्वर बुलाया। साथ ही, घोषणा की गयी कि गाँव के किसानों को 14 साल से अटकी मुआवज़े की राशि 26 मार्च को चमोली तहसील में दी जाएगी। प्रशासन नें मेरे सभी लोगों को किसी न किसी वजह से उलझाए रखा, ताकि कोई भी रैणी गाँव न जा पाये। 25 मार्च को सभी मज़दूरों को रैणी जाने का परमिट दे दिया गया।

26 मार्च 1974 को रैणी और उसके आस-पास के गांवों के सभी पुरुष भूमि का मुआवज़ा लेने के लिए चमोली आ गए और गाँव में सिर्फ़ महिलाएं, बच्चे, और बूढ़े मौजूद थे। यह देखकर साइमन कंपनी के लोगों ने रैणी के जंगल में धावा बोल दिया। जब गाँव की महिलाओं ने इन मजदूरों को बड़ी- बड़ी आरियाँ और कुल्हाड़ियों के साथ अपने जंगल की ओर जाते देखा, तो उनका खून खौल उठा। वे समझ गयीं कि ज़रूर कोई साजिश हुई है। उन्हें ज्ञात था कि जब तक गाँव के पुरुष लौटेंगें, तब तक पूरा जंगल तहस-नहस हो चूका होगा।

ऐसे में, मेरे रैणी गाँव की महिला मंगल दल की अध्यक्ष, गौरा देवी ने वीरता और साहस का परिचय देते हुए, गाँव की सभी महिलाओं को एकत्रित किया। ये सभी हाथों में दरांती लेकर जंगल की और चल पड़ीं। सभी महिलाएं पेड़ो को बचाने के लिए इन ठेकदारों और मजदूरों से भिड़ गई। उन्होंने एक भी पेड़ को न काटने की चेतावनी दी। बहुत देर तक ये महिलाएं संघर्ष करती रही।

गौरा देवी का स्केच (साभार: सुनीता नेगी जी)

इस दौरान ठेकेदार नें महिलाओं को डराया धमकाया, पर उन्होंने हार नहीं मानी। उन्होंने कहा कि ये जंगल हमारा मायका है, हम इसको कटने नहीं देंगे। चाहे इसके लिए हमें अपनी जान ही क्यों न देनी पड़े। महिलाओं की बात का ठेकेदार पर कोई असर नहीं हुआ। इसके बाद ये सभी औरतें पेड़ो पर अंग्वाल मारकर चिपक गई और ठेकेदार से कहा कि इन पेड़ो को काटने से पहले हमें काटना होगा। आख़िरकार, इन महिलाओं के हौसले और दृढ़-संकल्प के सामने ठेकेदार को झुकना पड़ा। और इस तरह से इन महिलाओं ने अपने जंगल को कटने से बचा लिया।

बाद में, मुझे अंग्वाल की जगह ‘चिपको आंदोलन’ के नाम से जाना जाने लगा। भले ही वह डिजिटल का जमाना नहीं था। लेकिन फिर भी मेरी गूंज अगले दिन तक पूरे चमोली में सुनाई देने लगी थी। मेरी अभूतपूर्व सफलता के लिए 30 मार्च को रैणी गाँव से लेकर जोशीमठ तक विशाल विजयी जुलुस निकाला गया। सभी पुरुष- महिलाएं सुंदर कपड़ों और आभूषणों से सुस्सजित  थे। साथ ही, ढोल दंमाऊ की थापों से पूरा सींमात खुशियों से झूम रहा था। इस जलसे के साक्षी रहे हुकुम सिंह रावत जी कहते है कि ऐसा ऐतिहासिक जुलुस प्रदर्शन आज तक नहीं हुआ। वो जुलुस अपने आप में अनोखा था, जिसने सींमात से लेकर दुनिया तक अपना परचम लहराया था।

मैं आज 45 बसंत पार कर चूका हूँ। इन 45 बरसों में मेरी चमक रैणी गाँव से लेकर पूरे विश्व तक पहुंची है। लेकिन, आज मुझे महसूस होता है कि अब लोग मेरे मूल मंत्र, पर्यावरण संरक्षण को भूल रहे हैं। तकनीक के आगे पर्यावरण को महत्व नहीं दिया जा रहा है। मौसम चक्र में बदलाव, बढ़ता पर्यावरणीय असुंतलन, जंगलो की कटाई, मेरे मायके चमोली से लेकर पूरे पहाड़ में दर्जनों जल-विद्युत परियोजनाओ का निर्माण।

जगह-जगह आ रही प्रलयकारी आपदाएं मेरी ही उपेक्षा का परिणाम है। लेकिन अब मुझे बचाने के लिए सिर्फ़ कागजों पर नहीं, बल्कि धरातल पर काम करना होगा। आने वाली पीढ़ी को मेरी महत्वता बताने के लिए सरकार को प्रभावी कदम उठाने होंगें। हालांकि, आज पेड़ो की रक्षा एवं पर्यावरण संरक्षण के मेरे कई स्वरुप जारी हैं, लेकिन आज इन्हें सफल बनाने के लिए फिर किसी गौरा देवी को उठ खड़ा होना होगा।

और आख़िर में यह पहाड़ी गीत, जिसका मेरी सफलता में बहुत योगदान रहा। इसे सुनकर गाँव के गाँव एक साथ चल पड़ते थे,

चिपका डाल्युं पर न कटण द्यावा,
पहाड़ो की सम्पति अब न लुटण द्यावा।
मालदार ठेकेदार दूर भगोला,
छोटा- मोटा उद्योग घर मा लगुला।
हरियां डाला कटेला दुःख आली भारी,
रोखड व्हे जाली जिमी-भूमि सारी।
सुखी जाला धारा मंगरा, गाढ़ गधेरा,
कख बीठीन ल्योला गोर भेन्स्युं कु चारू।
चल बैणी डाली बचौला, ठेकेदार मालदार दूर भगोला।

Note: गौरा देवी का स्केच- गौरा देवी के फोटो का रेखांकन है। जिसे आकार दिया है देहरादून, उत्तराखंड पुलिस में कार्यरत सुनीता नेगी जी नें, जो कि एक बेहतरीन चित्रकार हैं। उन्होंने अपनी चित्रकारी से हर किसी को प्रभावित किया है।

सम्पादन: निशा डागर


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