18 साल की उम्र में किया ‘झाँसी की रानी’ रेजिमेंट का नेतृत्व; कमांडर जानकी की अनसुनी कहानी!

18 साल की उम्र में जानकी ने बर्मा में कप्तान लक्ष्मी सहगल के बाद ‘झाँसी की रानी’ रेजिमेंट की कमान संभाली। 'झाँसी की रानी' रेजिमेंट, सुभाष चंद्र बोस की आज़ाद हिंद फ़ौज का अभिन्न अंग थी। इस रेजिमेंट में सिर्फ़ महिलाओं को शामिल किया गया था।

सुभाष चन्द्र बोस और उनकी आज़ाद हिन्द फ़ौज (जिसे भारतीय राष्ट्रीय सेना या आईएनए के नाम से भी जाना जाता है) से जुड़ी बहुत-सी कहानियाँ मशहूर हैं। फिर भी बहुत कम लोग आईएनए के अभिन्न अंग ‘झाँसी की रानी’ रेजिमेंट के बारे में जानते हैं।

और शायद ही किसी को उन साधारण महिलाओं के बारे में पता होगा, जिन्होंने मिल कर इस असाधारण महिला रेजिमेंट को बनाया। उन बहुत से अनसुने नामों में एक नाम है- जानकी देवर, जिन्होंने देश के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया।

18 साल की उम्र में जानकी ने बर्मा में कप्तान लक्ष्मी सहगल के बाद ‘झाँसी की रानी’ रेजिमेंट की कमान संभाली। आज द बेटर इंडिया के साथ जानिए, भारत की इस बेटी की अनसुनी कहानी!

जानकी तेवर

तत्कालीन ब्रिटिश मलय में रहने वाले एक संपन्न तमिल परिवार में जानकी का जन्म हुआ था। जुलाई 1943 में सुभाष चन्द्र बोस, आईएनए के लिए चंदा इकट्ठा करने और सेना में स्वयंसेवकों की भर्ती करने के लक्ष्य से सिंगापुर पहुँचे। उस समय जानकी सिर्फ़ 16 साल की थीं।

यहाँ पर लगभग 60, 000 भारतीयों (जिसमें जानकी भी शामिल थी) की एक सभा को, नेता जी ने जोश भरे भाषण के साथ संबोधित किया और हर किसी को ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध हथियार उठाने के लिए प्रेरित किया। नेताजी के प्रेरक शब्दों ने ही किशोरी जानकी के मन में भी उस देश की स्वतंत्रता के लिए लड़ने की अलख जगा दी, जिसे वे सिर्फ़ अपनी मातृभूमि के रूप में जानती थीं; पर कभी भी उस सर-ज़मीं को देखा नहीं था।

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इस संघर्ष की तरफ़ जानकी का पहला कदम था, अपने सभी कीमती सोने के गहनों को भारतीय राष्ट्रीय सेना के लिए दान कर देना और दूसरा कदम था ‘झाँसी की रानी’ रेजिमेंट में शामिल होने का फ़ैसला, जिसके लिए उन्हें अपने परिवार, ख़ासकर कि अपने पिता से विरोध का सामना करना पड़ा।

पर जानकी की देशभक्ति ने उन्हें अपने इरादों से हिलने नहीं दिया और काफ़ी बहस के बाद, आख़िरकार न चाहते हुए भी उनके पिता ने स्वीकृति दे दी। (‘झाँसी की रानी’ रेजिमेंट के नियमों के मुताबिक, आवेदन पत्र में अविवाहित आवेदकों को अपने पिता के और विवाहित महिलाओं को अपने पति से हस्ताक्षर करवाना आनिवार्य था)

22 अक्टूबर 1943 को सिंगापुर के वॉटरलू स्ट्रीट पर झाँसी की रानी रेजिमेंट का औपचारिक उद्घाटन हुआ; तब जानकी भारतीय राष्ट्रीय सेना की 500 लड़ाकू रानियों में से एक थीं।

नेताजी और कप्तान सहगल, आईएनए की महिला सेना के साथ (स्त्रोत)

यहाँ उनको कप्तान लक्ष्मी स्वामीनाथन (बाद में लक्ष्मी सहगल) के नेतृत्व में ट्रेनिंग दी गयी थी। लक्ष्मी स्वामीनाथन, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के ही एक नेता की बेटी थीं, जो द्वितीय विश्व युद्ध शुरू होने के बाद सिंगापुर में आ कर बस गए थे।

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इस रेजिमेंट की दिनचर्या में रात्री मार्च, बयोनेट चार्जिंग, सामरिक मुकाबले के साथ राइफल, मशीनगन, हथगोले जैसे अन्य हथियारों को चलाने की ट्रेनिंग भी शामिल थी। यह ट्रेनिंग और यहाँ का माहौल बहुत ही मुश्किलों भरा था। किसी भी मध्यमवर्गीय और संपन्न परिवार से आई हुई लड़कियों के लिए यह सब बहुत अलग था।

झाँसी की रानी रेजिमेंट

यहाँ आई हुई हर एक लड़की जानती थी कि अब उनके घर वापिस लौटने की सम्भावना ना के बराबर है। फिर भी उन्होंने घर के सुरक्षित वातावरण को छोड़, इस कैंप के कठिन जीवन को चुना। वे जानती थीं, कि इस रेजिमेंट में उनकी भूमिका, उन्हें एक अलग तरह की आज़ादी दिला सकती है- उनकी अपनी आज़ादी।

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अपनी ख्वाहिशों को शब्द देते हुए, एक मलयन अख़बार में जानकी ने लिखा था, “हम भले ही विनम्र और ख़ूबसूरत हैं, पर ‘कमज़ोर’ कहे जाने का मैं विरोध करती हूँ। ये सारे नाम हमें पुरुषों द्वारा अपने स्वार्थों की रक्षा के लिए दिए गए हैं। यह वह वक़्त है, जब हम भारतीय दासता की जंज़ीरों के साथ-साथ, पुरुषों द्वारा बांधी गयी जंज़ीरों को भी तोड़ें।”

फोटो स्त्रोत

और इन लड़कियों का साहस और संकल्प कुछ इस कदर था कि युद्ध के मुश्किल समय में उनमें से एक ने भी अपने कदम पीछे नहीं हटाए। जबकि, बहुत से पुरुष कॉमरेड और ब्रिटिश सैनिकों ने युद्ध के दौरान या तो आत्म-समर्पण कर दिया या फिर मैदान छोड़ दिया था- इस बात की पुष्टि बाद में कई आईएनए के सदस्यों और ब्रिटिश अधिकारियों ने की थी।

जानकी के हौसले व अपने लक्ष्य के प्रति सजग होने के चलते, उन्हें बहुत जल्द लेफ्टिनेंट का पदभार दिया गया। अप्रैल 1944 में कप्तान लक्ष्मी को स्थायी रूप से बेस हॉस्पिटल में स्थानांतरित किया गया और 18 वर्षीय जानकी (जिन्हें आज भी एक सख्त अनुशासक के रूप में याद किया जाता है) को रेजिमेंट के बर्मा दस्ते का कमांडर बना दिया गया।

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इसके बाद, जानकी उन घायल सिपाहियों की मदद में जुट गयीं, जो रंगून के रेड क्रॉस हॉस्पिटल में ब्रिटिश सेना द्वारा की गयी बमबारी के कारण घायल हुए थे।

बाद में, जब आईएनए युद्ध से पीछे हट गया, तब वे नेताजी के साथ दलदल और जंगलों को पार कर, साथी सेनानियों को सुरक्षित उनके घर तक पहुँचाती थीं।

फोटो स्त्रोत

ब्रिटिश सेना के युद्ध जीतने के बाद, आईएनए को भंग कर दिया गया और इसके बाद जानकी मलय में भारतीय कांग्रेस मेडिकल मिशन में शामिल हो गयीं। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कार्यों से प्रभावित हो, उन्होंने 1946 में जॉन थिवि की मलयन भारतीय कांग्रेस की स्थापना करने में मदद की।

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साल 1948 में ये मलयन तमिल दैनिक ‘तमिल नेसन’ के सम्पादक व प्रेषक, अथी नहाप्पन से मिलीं और फिर एक साल बाद उनसे शादी कर ली। आने वाले सालों में भी लोगों की सेवा करने का उनका जोश कम नहीं हुआ।

सामाजिक कल्याण के लिए जानकी ने ‘गर्ल गाइड एसोसिएशन’ और ‘महिला संगठन की राष्ट्रीय परिषद’ में भी सक्रिय भूमिका निभायी।

अपने पति अथी नहाप्पन के साथ जानकी (स्त्रोत)

अपने इन अथक प्रयासों के कारण ही उन्हें मलेशियाई संसद के उच्च सदन (देवन नेगारा) में एक सीनेटर के रूप में नामांकित किया गया। कई राष्ट्रीय व अन्तराष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित जानकी, विदेश में रहने वाली भारतीय मूल की पहली महिला थीं, जिन्हें भारत के सर्वोच्च सम्मानों में से एक, पद्म श्री से नवाज़ा गया।

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साहस और करुणा की मिसाल, जानकी देवर ऐसी महिला थीं, जिन्होंने हर कठिन परिस्थिति में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़ने का हौसला दिखाया। ब्रिटिश साम्राज्य को हराने में, आईएनए की मदद करने का उनका सपना भले ही अधुरा रह गया हो, फिर भी देश की स्वतंत्रता के लिए उन्होंने जो प्रतिबद्धता दिखायी, उसके लिए उन्हें सम्मानपूर्वक याद करना हमारा फ़र्ज़ है!

मूल लेख: संचारी पाल
संपादन: निशा डागर


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