कभी आर्थिक तंगी के चलते छूट गया था कॉलेज, आज कृषि के क्षेत्र में किये 140 से भी ज़्यादा आविष्कार!

‘सीरियल इनोवेटर’ के नाम से जाने जाने वाले उद्धब भराली को हाल ही में पद्म श्री से नवाज़ा गया है। उन्होंने कृषि से संबंधित बहुत से जटिल कार्यों को आसान बनाने के लिए लगभग 140 से भी ज़्यादा इनोवेशन किये हैं।

ज कृषि के क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए बहुत-से तकनीकी बदलावों की ज़रूरत है। इसके दो कारण हैं– पहला यह कि हमारा देश कृषि प्रधान है, पर फिर भी किसानों के पास पर्याप्त संसाधन नहीं है और दूसरा, कि कृषि बहुत हद तक मौसम के ऊपर निर्भर करती है। इन मुश्किलों को समझते हुए ही उद्धब भराली ने नयी-नयी तकनीकों और इनोवेशन पर काम करना शुरू किया। आज वे कृषि के काम को आसान और सरल बनाने के लिए 140 से भी ज़्यादा आविष्कार कर चुके हैं।

पद्म श्री से सम्मानित, उद्धब भराली का उद्देश्य कृषि-क्षेत्र में सकारात्मक बदलाव लाना और साथ ही पर्यावरण का ध्यान रखते हुए, देश की अर्थव्यवस्था में योगदान देना है। अनार के दाने निकालने जैसे सरल काम से लेकर धान की पौध रोपने और चाय की प्रोसेसिंग करने जैसे मुश्किल काम तक के लिए, भराली ने विभिन्न तरह की मशीनें बनायी हैं।

आज द बेटर इंडिया के साथ पढ़िए ‘सीरियल इनोवेटर’ के नाम से जाने जाने वाले उद्धब भराली के बारे में! वह व्यक्ति, जिनकी उपयोगी और कम लागत वाली मशीनों ने कृषि से जुड़े बहुत-से कार्यों को किसानों के लिए सरल बना दिया है।

अपने इनोवेशन के साथ उद्धब भराली

असम के उत्तरी लखीमपुर जिले के एक मध्यम-वर्गीय व्यवसायी परिवार में जन्मे भराली ने अपनी प्राथमिक शिक्षा लखीमपुर से ही की। हमेशा से पढ़ाई में अव्वल रहने वाले भराली को अक्सर स्कूल में गणित के शिक्षक क्लास से बाहर खड़ा कर देते थे, क्योंकि वे अपने शिक्षकों से ऐसे-ऐसे सवाल पूछते कि शिक्षक निरुत्तर हो जाते।

वे बताते हैं, “मुझे गणित बहुत पसंद था। यहाँ तक कि मैं अपने कुछ सहपाठियों को पढ़ाया भी करता था, ताकि उनके अच्छे नंबर आये। पहली कक्षा पास करने के बाद, मुझे सीधे तीसरी कक्षा में दाखिला मिला और इसी तरह छठी कक्षा के बाद मुझे आठवीं कक्षा में भेज दिया गया।”

सिर्फ़ 14 साल की उम्र में ही स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद, भराली ने जोरहाट इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला लेने का फ़ैसला किया। पर वे इस इंजीनियरिंग कॉलेज में अपनी पढ़ाई पूरी न कर सके, क्योंकि वे फ़ीस नहीं भर सकते थे और साथ ही अपने परिवार की ज़िम्मेदारी भी उन पर थी। एक तरफ़ उन पर अपने पिता द्वारा लिए गए क़र्ज़ को चुकाने का दायित्व था, तो दूसरी ओर वे इनोवेशन का अपना शौक भी पूरा करना चाहते थे। इन सभी मुश्किलों के बीच केवल 23 साल की उम्र में उन्होंने पॉलिथीन बनाने वाली एक मशीन बनाई, जिसकी उस समय असम के चाय बागानों में काफ़ी मांग थी।

इस मशीन को बनाने में सिर्फ़ 67, 000 रुपये की लागत लगी, जबकि किसी बड़ी ब्रांड की मशीनों की लागत लगभग 4 लाख रुपये तक जाती है।

“अक्सर लोग अपनी सफ़लता की कहानी बताते हुए कहते हैं कि उन्होंने ज़ीरो से अपना सफ़र शुरू किया था; पर मेरी शुरुआत तो माइनस 18 लाख रूपये से हुई थी। मेरे परिवार के ऊपर 18 लाख रूपये का क़र्ज़ था। साल 1987 में बैंक वालों ने हमसे कहा था कि यदि हमने पैसे नहीं चुकाए, तो हमें अपना घर खाली करना पड़ेगा।

मैं जो भी छोटे-मोटे काम कर रहा था, वह परिवार चलाने के लिए काफ़ी नहीं था। मुझे पता चला कि एक कंपनी ऐसे इनोवेटर को खोज रही है, जो पॉलिथीन बनाने वाली मशीन का डिजाईन बना सके। पर जब पहले से ही एक ऐसा प्रोडक्ट बाज़ार में 4 लाख रूपये में उपलब्ध है, तो मुझे पता था कि मुझे इस डील को पाने के लिए ऐसा डिजाईन तैयार करना होगा, जिसकी लागत कम से कम हो,” भराली ने बताया।

इस मशीन की सफ़लता ने भराली के मन में और भी ऐसे आविष्कार करने और नयी मशीनें बनाने का विश्वास जगाया। अपने पिता का सारा ऋण चुकाने के बाद, साल 1995 में भराली को अरुणाचल प्रदेश में हाइड्रो-पावर प्रोजेक्ट में इस्तेमाल हो रही मशीनों के रख-रखाव के लिए नियुक्त किया गया था। पर अभी उनकी नौकरी को तीन ही साल हुए थे, कि अचानक किसी बिमारी की वजह से उनके भाई की मृत्यु की ख़बर आई और भराली अपने परिवार के लिए नौकरी छोड़कर वापस लौट आए।

अपनी वर्कशॉप में उद्धब भराली

भराली को पता था कि अब उन्हें खुद ही अपने परिवार को सम्भालना है और साथ ही उन्होंने खुद से वादा किया कि वे ग़रीब और निचले तबके के लोगों के लिए भी कुछ करेंगें। इसी सोच के साथ उन्होंने ऐसी मशीन बनाने पर ध्यान लगाया, जिनसे ग्रामीण लोगों की ज़रूरतों को पूरा कर सकें। इस दौरान, उनके सफ़र में आने वाली चुनौतियों के बारे में बताते हुए, उन्होंने कहा,

“मैंने जीवन में बहुत-सी मुश्किलें देखी हैं। अगर मैं रुक जाता और सिर्फ़ शिकायतें करता, तो मुझे कभी पता नहीं चलता कि मैं क्या-क्या कर सकता हूँ। मैं तब तक काम करता रहा, जब तक रास्ते की सभी मुश्किलें खत्म नहीं हुई। मेरा यह मानना है कि ‘हार’ केवल एक परिस्थिति है और आपका काम और आपकी मेहनत ही इसका समाधान है।”

उनका शुरूआती सफ़र बहुत ही मुश्किलों भरा था। उन्हें याद है कि कैसे हमेशा उनका मज़ाक बनाया जाता था, क्योंकि उन्होंने कोई बड़ा काम नहीं किया। पर उन्होंने हार नहीं मानी और साल 1990 से 2005 के बीच उन्होंने लगभग 24 मशीनें बनायीं। साल 2005 में उनकी प्रतिभा ने अहमदाबाद के नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन का ध्यान अपनी तरफ खींचा और वे उन्हें ‘ग्रासरूट इनोवेटर’ के तौर पर विदेश लेकर गए।

साल 2006 में उनके द्वारा अनार के बीजों को अलग करने के लिए बनाई गयी मशीन को केवल भारत में ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में अपनी तरह की पहली मशीन माना गया।

अनार के दानें निकालने की मशीन

इस मशीन से, अनार के बाहरी छिलके को अंदर की परत से अलग किया जा सकता है और वह भी दानों को कोई नुकसान पहुंचाए बिना। इस मशीन से लगभाग 55 किलो अनार के दानों को मात्र एक घंटे में निकाला जा सकता है। भराली के पास इस मशीन के ऑर्डर आने लगे और उन्होंने इसका निर्यात टर्की और अमेरिका जैसे देशों में भी किया है।

आख़िरकार, भराली को एक सफ़ल इन्नोवाटर के तौर पर पहचान मिली और इसके बाद उन्होंने कभी भी पीछे मुड़कर नहीं देखा।

गाँववालों की ज़रूरतों को देखते हुए अपने आविष्कार करने वाले भराली ने सुपारी छीलने के लिए भी एक यंत्र बनाया, जो एक मिनट में 120 सुपारी छील सकता है।

सुपारी छीलने वाली मशीन

उनके उपकरणों की फ़ेहरिस्त में लहसुन छीलने की मशीन, तंबाकू पत्ता कटर, धान थ्रेशर, गन्ना छीलने की मशीन, पीतल के बर्तन चमकाने की मशीन, सुरक्षित मूसली छीलने की मशीन, निराई मशीन आदि भी शामिल होती हैं। उनके प्रसिद्द इनोवेशन में से एक, ‘मिनी टी प्लांट’ भी है, जो कि ग्रीन टी और क्रश टीअर कर्ल टी के लिए है और इसे उन्होंने असम के छोटे चाय उत्पादकों की बढ़ती आबादी को ध्यान में रखते हुए बनाया है।

“यह प्लांट, केवल 2 किलो वाट की बिजली लेता है, जो कि औसत घरेलू बिजली की खपत के बराबर है और कोई भी कारीगर इसे चला सकता है। इस मशीन द्वारा बनाई गयी ग्रीन टी को एक ऑक्शन में 3, 000 रूपये प्रति किलो की दर से ख़रीदा गया है। इस मशीन की कीमत मात्र 3.75 लाख रुपये है। इसकी काफ़ी मांग है,” भराली ने कहा।

उन्हें उम्मीद है कि इस मशीन की मदद से बड़ी चाय कंपनियों द्वारा इन छोटे चाय-उत्पादकों के शोषण को रोका जा सकता है।

उनकी सीमेंट की ईंट बनाने वाली मशीन भी ऐसा ही एक उम्दा आविष्कार है, जिसे कोई भी चला सकता है– कोई दिव्यांग भी। केंद्रीय सिल्क बोर्ड ने भी एक रीलिंग मशीन की री-डिजाईन के लिए उनका मार्गदर्शन लिया। उत्तर-पूर्वी क्षेत्र सामुदायिक संसाधन प्रबंधन परियोजना (एनईआरसीआरएमपी ) के लिए भी उन्होंने स्टेविया (मीठी पत्ती) को पीसने की मशीन और पैशन फ्रूट का जैल निकालने की मशीन डिजाईन की।

उन्होंने धान रोपने की मशीन का भी आविष्कार किया है, जिससे चावल की उपज दुगुनी हो जाती है और इसकी पूरी प्रक्रिया को आसानी से कम समय में किया जा सकता है। इस मशीन की कीमत मात्र 3, 000 रुपये है।

आर्थिक रूप से लाभकारी होने के साथ-साथ उनकी मशीनें पर्यावरण के अनुकूल भी हैं। ‘नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन’ की मदद से उनके द्वारा बनायीं गयी इनमें से कई मशीनों को उत्तरी काछाड़ हिल्स में स्थापित किया गया है। उनके इन सभी आविष्कारों की मदद से अब स्थानीय लोग कोई भी मुश्किल काम बहुत ही आसानी से और कम से कम समय में कर सकते हैं।

“उदाहरण के लिए ईंट के भट्टे प्रदूषण का बहुत बड़ा स्त्रोत हैं, पर मैंने जो यंत्र बनाया है, वह पर्यावरण को किसी भी तरह की हानि नहीं पहुंचाता।  मेरे सारे आविष्कार हाथ से चलने वाले हैं– जिससे इसकी कीमत भी कम है और बिजली की खपत भी कम होती है,” भराली ने बताया।

उन्हें नासा का प्रतिष्ठित टेक्नोलॉजी अवार्ड, साल 2009 का ग्रासरूट इनोवेटर का राष्ट्रपति पुरस्कार और ऐसे कई अन्य पुरस्कार मिल चुके हैं।

अब इनोवेशन के क्षेत्र में उनके अभूतपूर्व योगदान के लिए उन्हें साल 2019 में पद्म श्री पुरस्कार से नवाज़ा गया है।

नयी-नयी मशीनें बनाने के अलावा उन्हें चिकित्सा से सम्बंधित किताबें पढ़ते रहना पसंद है। उनके पास होमियोपैथी में एक अनौपचारिक डिग्री भी है। इसके अलावा उन्हें दूसरों के भले के लिए कुछ न कुछ करते रहना बहुत अच्छा लगता है। उनकी कमाई का एक मुख्य हिस्सा उनके इनोवेशन के लिए रिसर्च में जाने के साथ-साथ, सामाजिक कार्यों में भी जाता है। आज वे ऐसे 21 परिवारों की देख-रेख कर रहे हैं, जिनमें कमाने वाले मुख्य सदस्य किसी कारणवश दिव्यांग हो गये है। इन परिवारों के स्वास्थ्य, शिक्षा, खाने और कपड़ों का खर्च भराली उठाते हैं।

अपने सभी आविष्कारों में उनका एक पसंदीदा आविष्कार वह है, जिसे उन्होंने खास तौर पर दिव्यांगों के लिए बनाया है- ऐसे लोग जिन्होंने अपने हाथ खो दिए हैं और वे इनके आविष्कार की मदद से खुद खाना खा सकते हैं और अपनी साफ़-सफ़ाई भी कर सकते हैं।

उन्होंने यूकेडी ट्रस्ट भी खोला है, जिसके माध्यम से वे छह विधवा महिलाओं को हर महीने 1200 रुपये और तीन दिव्यांगों को 2500 रुपये की राशि देते हैं। साथ ही वे एक छोटा-सा अनुसंधान और प्रशिक्षण संस्थान भी चलाते हैं, जहाँ गरीब बच्चों को टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में तीन महीने की ट्रेनिंग दी जाती है।

भराली कहते हैं, “मैं अपने आविष्कारों द्वारा उन लोगों तक पहुँचना चाहता हूँ, जो देश-विदेश में गरीबी रेखा से नीचे हैं।  मैं अपने लिए कोई मुनाफ़ा नहीं कमाना चाहता। मैंने अपने परिवार वालों को भी यह समझा दिया है। कई बार उन्हें लगता है कि मैं पागल हूँ, पर मुझे लगता है कि सुविधाओं की चाहत आपको पागल बना देती है। मेरा मानना है कि अगर आप अपने ज्ञान और क्षमताओं से समाज की मदद नहीं कर सकते, तो आपकी ज़िंदगी का कोई मतलब नहीं।”

असम के सभी प्रमुख विश्वविद्यालयों में उन्हें गेस्ट लेक्चरर के तौर पर बुलाया जाता है। उन्हें भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों (IITs) में भी लेक्चर के लिए आमंत्रित किया गया है। आईआईटी गुवाहाटी के रूरल टेक्नोलॉजी एक्शन ग्रुप (RUTAG) के लिए भराली तकनीकी सलाहकार हैं। साथ ही उन्हें असम कृषि विश्वविद्यालय की ओर से डॉक्टरेट की उपाधि भी प्रदान की गयी है। हिस्ट्री चैनल के टीवी शो “ओएमजी! ये मेरा इंडिया” में भी उन पर एक एपिसोड किया गया है।

भारत के इस महान इनोवेटर को हमारा सलाम और हमें उम्मीद है कि इनके मार्गदर्शन में हमारी आने वाली पीढ़ी भी देश का नाम इसी तरह से रौशन करेगी। उनसे संपर्क करने के लिए ukbharali@yahoo.co.in पर ई-मेल कर सकते हैं।

मूल लेख: संचारी पाल 
संपादन: निशा डागर 


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