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नेत्रहीन होते हुए भी कई दृष्टिहीन लोगों को राह दिखा रही है टिफ्फनी !

एक वक्त ऐसा था जब वो खुद चल नहीं सकती थी, पर आज वो दुसरो को चलना सिखा रही है। आईये मिलते है टिफ्फनी से, जो नेत्रहीन होकर भी बहुत दूर की दृष्टी रखती है।

एक वक्त ऐसा था जब वो खुद चल नहीं सकती थी, पर आज वो दुसरो को चलना सिखा रही है। आईये मिलते है टिफ्फनी से, जो नेत्रहीन होकर भी बहुत दूर की दृष्टी रखती है।  

“लोग ऐसा क्यूँ सोचते है कि मैं खुद चल नही सकती या मैं अकेले सफ़र नही कर सकती। मेरे पास बात करने के लिए जुबान है, सोचने के लिए दिमाग है, मैं चल सकती हूँ और अपनी छड़ी की मदद से खुद अपना रास्ता भी ढूंड सकती हूँ। फिर मैं अकेले सफ़र क्यों नहीं कर सकती हूँ? मैं पिंजरे मैं कैद एक पंछी की तरह थी, जिसे बिना सहारे के अकेले बाहर निकलने की इजाज़त नहीं थी। पर अब मेरी जिंदगी बदल चुकी है। ”

-टिफ्फनी ब्रार बड़े उत्साह से बताती है।

जो कभी कुछ करने का सोच भी नही पाती थी वो आज अपने जैसे दुसरे नेत्रहीन लोगो की सहायता कर रही है। किसी दुसरे पर निर्भर रहने वाली लड़की आज आत्मनिर्भर है।
२६ वर्षीय टिफ्फ़नी एक अध्यापिका, उद्योजिका और मोटीवेशनल स्पीकर भी है पर वो देख नही सकती। अपने अंधत्व को मात देकर उसने अपनी एक पहचान बनायी है।

खुद नेत्रहीन होने के कारण टिफ्फनी अपने जैसे लोगो को होनेवाली परेशानियों से वाकिफ है इसलिये वो दुसरो को रास्ता दिखा सकती है।

Blind people walking

कुछ साल पहले उसे खुद पे भरोसा नही था इस कारण वो अपनी जरूरते पूरी नही कर पाती थी। वो कभी स्वयं बाहर नहीं जा पाती थी। ‘सफ़ेद छडी’ का इस्तेमाल राह पर चलने के लिये होता है इतना भी उसे पता नहीं था। टिफ्फ़नी १८ साल की उम्र तक एक सर्वसाधारण नेत्रहीन लड़की थी जो दूसरों पर निर्भर थी।

टिफ्फ़नी के पिता आर्मी में थे, इसलिये उसकी पढाई दार्जिलिंग, दिल्ली, तिरुवनंतपुरम और वेलिंग्टन जैसे कई शहरो में हुयी। उसके पिता जनरल ब्रार अपने नौकरी में व्यस्त थे, इसलिये उसकी माँ लेज़ली उसका खयाल रखती थी। टिफ्फ़नी अपनी माँ से काफी प्रभावित थी। लेज़ली हमेशा गरीबो की मदद करती थी। अपनी माँ से मिली हुयी इस प्रेरणा से उसने बड़ी होकर एक मिसाल कायम की।

१२ साल की उम्र में टिफ्फ़नी ने अपनी माँ को खो दिया। वो दिन उसने बड़े कठिनाईयों के साथ गुजारे। उसके पिता की नौकरी दिल्ली में थी पर उस बड़े शहर में वो जैसे खो गयी थी। वो अपनी जिन्दगी सरलता से जीना चाहती थी, इसलिये तिरुवनंतपुरम वापस चली गयी। उस शहर में उसने ११ वी कक्षा तक पढाई पूरी की और उसके बाद वेलिंग्टन में जाकर आगे की पढाई की।

विनीता अक्का टिफ्फ़नी के होस्टेल में काम करती थी। विनीता अक्का उसे कपडे पहनना, कपडे फोल्ड करना, अपना बिस्तर ठीक करना जैसे कई रोज़मर्रा के साधारण काम सिखाती थी।

Blind people walking

स्कूल में उसे कभीभी ऐसी छोटी छोटी चीजे नहीं सिखायी गयी थी। उसे याद है कि वो और उसके जैसे अन्य नेत्रहीन लोग कपडे भी ठीक तरह से पहन नहीं पाते थे। विनीता अक्का की वजह से उसे अहसास हुआ कि उसे भी अच्छे कपडे पहनना चाहिये, अच्छा दिखना चाहिये और अपने छोटे छोटे काम खुद करना चाहिये। और इसी सोच के साथ अपने आत्मनिर्भर होने के मार्ग पर वो चल पड़ी थी।
टिफ्फनी खुद बाहर नहीं जा पाती थी। उसके साथ हमेशा कोई न कोई होता था। लोग हमेशा “ये नामुमकिन है” और “उससे नहीं हो पायेगा” – इस तरह उसके बारे में कहते थे। पर टिफ्फनी ने सबको गलत साबित कर दिखाया।अपनी जिंदगी के १८ साल तक वो किसी और पर निर्भर थी।
वेलिंग्टन में शिक्षा पूरी करके वो तिरुवनंतपुरम में B.A. (इंग्लिश) की पढाई करने के लिये आयी। इस बार उसके साथ विनीता अक्का भी थी। उसके पिता उसे कंथारी सेंटर लेके गये जहा पर उसे लीडरशिप ट्रेनिंग दी गयी जिससे उसमे बहोत बदलाव दिखाई दिया। टिफ्फनी ने कंथारी सेंटर जाने के लिये अपने पिता का हाथ थामा हुआ था। कंथारी सेंटर के सह-संस्थापक साब्रिये तेनबेरकेन ने उसे सफ़ेद छड़ी दी और कहा कि अब इसके सहारे उसे चलना चाहिये।

उसके पिता जोर से चिल्लाने लगे “नहीं, तुम अकेले नहीं चल पाओगी। यहाँ हर पल दिक्कते है। तुम्हे परशानी होगी।”

पर टिफ्फनी ने अपने पिता का हाथ छोड़ा और सफ़ेद छड़ी पकड ली।
टिफ्फनी रोज उस सफ़ेद छड़ी की मदत से अपने घर से ऑफिस आने लगी। छड़ी की आवाज से वो अपनापन महसूस करती थी।

अब उसे एहसास होने लगा था कि उसे खुद के सहारे चलना है।

Blind people walking

Picture for representation only. Source: Wikimedia

टिफ्फनी कंथारी सेंटर में रिसेप्शनिस्ट का काम करने लगी और उद्योजक का कोर्स भी करने लगी। वो अपना रास्ता खुद ढूंड पाती थी। वो बस में सफर करती थी और जरुरत पड़ने पर लोगो से मदत लेती थी। अपने सफ़र में उसने दोस्त भी बना लिये थे जिन्हें उसपपर नाज़ था।
साब्रिये तेनबेरकेन खुद एक नेत्रहीन व्यक्ति होकर भी अपने पति पॉल क्रोनेनबेर्ग, जो कंथारी सेंटर के सह-संस्थापक है, उनके साथ मिलकर अन्य नेत्रहीनो की मदत कर रही थी। टिफ्फनी, साब्रिये के इस अच्छे काम से प्रभावित थी।

साब्रिये और उसके पति ने तिब्बत में नेत्रहीनो के स्कूल की स्थापना की और “ब्रेल विथआउट  बॉर्डर्स” नाम से एक फाउंडेशन की भी स्थापना की जो दृष्टीहीन लोगो को अपनी जिंदगी सवारने का मौका देती है।

Blind people walking
ब्रेल  विथआउट  बॉर्डर्स
Source: Facebook

टिफ्फनी को एहसास हुआ कि वो दुसरे दृष्टिहीन लोगो को भी सही रास्ता दिखाकर उनकी मदद कर सकती है।
अपने इस सपने को पूरा करने के उद्देश से उसने श्री रामकृष्ण मिशन विद्यालय, कोइम्बतुर से B.Ed. (स्पेशल एजुकेशन) में पढाई करने का निश्चय किया है। खुद नेत्रहीन होने के कारण वो दुसरे दृष्टिहीन लोगो की परेशानियों को समझ सकती है। उनमे आत्मविश्वास, तत्परता और रोजमर्रा की जरूरतो को पूरा करने की क्षमता की कमी होती है। २००१ के सेन्सस सर्वे के मुताबिक केरला राज्य में ४००,००० नेत्रहीन है।

“वो सब नेत्रहीन लोग कहा है? हम लोगो को वो सडको पर चलते हुये क्यों नही दिखते है? मैंने ठान लीया कि मैं उनके लिये कुछ करू।” टिफ्फनी बड़े ही गर्व से कहती है कि ऐसा उसने २०१२ में सोचा जब उसकी पढाई पूरी हुयी। अपने इस मिशन को पूरा करने के लिये उसने “ज्योतिर्गमय” नामसे प्रोजेक्ट शुरू किया।

ज्योतिर्गमय का मतलब होता है ‘अँधेरे से उजाले की ओर’। टिफ्फनी ने ज्योतिर्गमय नामक मोबाइल अंध स्कूल की स्थापना की जिसका उद्देश है कि अगर नेत्रहीन लोग स्कूल में नहीं आ सकते तो स्कूल उनके पास जाकर उन्हें शिक्षा प्रदान करे।

VI

Picture for representation only. Source: J P Davidson/Flickr

इसकी कल्पना एन. कृष्णास्वामी, रिटायर्ड पुलिस ऑफिसर, तमिलनाडु की है।केरला राज्य में यह ऐसी एकमात्र संकल्पना है।
ज्योतिर्गमय के माध्यम से टिफ्फनी और उसके सहयोगी तिरुवनंतपुरम में रहने वाले दृष्टिहीन लोगो के घर में जाकर उनका मार्गदर्शन करते है। टीम उन्हें ब्रेल, कंप्यूटर और पर्सनल स्किल्स के बारे में जानकारी देता है। सफ़ेद छड़ी का इस्तेमाल करके खुदको आत्मनिर्भर बनाकर चलना सिखाया जाता है।

ज्योतिर्गमय केरला में कैम्पस का आयोजन भी करती है। आउटडोर एक्टिविटीज, सिटी टूर और अन्य माध्यम से वो उन्हें छोटी छोटी चीजे सिखाती है जिनका उपयोग रोज आनेवाली कठिनाईयों का सामना करने के लिये किया जा सकता है।
२६ वर्षीय टिफ्फनी को इस मिशन से अपने जिंदगी का मकसद मिल गया है।
टिफ्फनी बड़े ही उत्साह से कहती है-

“नेत्रहीन और सामान्य व्यक्ति के बीच हमारे समाज में अभी भी शारीरिक और मानसिक दुरी है। मैं ऐसी कठिनाईयो को दूर करके ऐसा वातावरण निर्माण करना चाहती हूँ, जिसमे अंधे लोग सहजता से चल सके, काम कर सके, अपने बारे में सोच सके और सामान्य लोगो के जैसा जीवन व्यतीत कर सके। लोगो को लगता है कि हम सिर्फ गाना गा सकते है, शिक्षक बन सकते है और बैंक में टेलीफोन ऑपरेटर की नौकरी कर सकते है। पर हम इससे भी ज्यादा कर सकते है। हम नाच सकते है, हम मार्शल आर्ट्स सीख सकते है, हम कंपनी में बड़े ओहदों पर काम कर सकते है। समाज हमेशा हमें, हम क्या नही कर सकते है, इसी के बारे में सोचने पर विवश करता है। मुझे लगता है हमें ये सोच बदलनी चाहिये।”

टिफ्फनी की आँखों में भले ही रौशनी न हो पर उनमे सपने है; और ये सपने उन्हें कुछ भी करने से नहीं रोक सकते!

मूल लेख: रंजीनी सिवास्वामी द्वारा लिखित

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