फील्ड मार्शल के. एम. करिअप्पा, जिन्होंने सही मायनों में सेना को ‘भारतीय सेना’ बनाया!

फील्ड मार्शल के. एम. करिअप्पा को बहुत-सी ऐसी बातों के लिए जाना जाता है, जो भारत में पहली बार हुईं। पर फिर भी उनकी सबसे अहम पहचान है कि उन्होंने ही हमारी सेना को सही मायने में भारतीय सेना बनाया है। वे स्वतंत्र भारत में वे भारतीय सेना के पहले कमांडर-इन-चीफ बने।

फील्ड मार्शल कोडंडेरा मडप्पा करिअप्पा को बहुत-सी ऐसी बातों के लिए जाना जाता है, जो भारत में पहली बार हुईं। पर उनकी सबसे अहम पहचान है कि उन्होंने हमारी सेना को सही मायने में ‘भारतीय सेना’ बनाया। शायद इसीलिए, जनरल बिपिन रावत चाहते हैं कि अब करिअप्पा को भी भारत रत्न से नवाज़ा जाना चाहिए।

दिलचस्प बात यह है कि आज तक सेना से जुड़े किसी भी व्यक्ति को भारत रत्न नहीं मिला है!

के. एम. करिअप्पा, भारतीय सेना में अब तक के सबसे अधिक सम्मानित होने वाले चीफ जनरल में से एक हैं, पर फिर भी बहुत ही कम लोग इनके बारे में जानते होंगे। हमारी वर्तमान पीढ़ी को शायद ही इस महान शख्सियत के बारे में पता हो, जिन्होंने भारतीय सेना पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है।

आज द बेटर इंडिया के साथ पढ़िये, के. एम. करिअप्पा की अनसुनी कहानी, जिनका नाम भारत के महान सैनिकों की फ़ेहरिस्त में सबसे पहले आता है!

के. एम. करिअप्पा

28 जनवरी 1899 को जन्में करिअप्पा के पिता ब्रिटिश शासन के दौरान एक अफ़सर थे। उनका बचपन कर्नाटक के खुबसूरत जिले कुर्ग में बीता। इस शहर का नाम बहुत-से सैनिक देने के लिए मशहूर है। करिअप्पा ने हमेशा ही प्रथम विश्व युद्ध के बहादुर सिपाहियों की गाथा सुनी थी।

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युवा उम्र से ही ‘चिम्मा’ (करिअप्पा को उनके परिवार वाले और क़रीबी दोस्त इस नाम से बुलाते थे) ने अफ़सर बनने का सपना देखना शुरू कर दिया था। मदिकेरी के केंद्रीय विद्यालय से अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद, उन्होंने मद्रास के प्रेसीडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया। कॉलेज की पढ़ाई के दौरान उन्हें जानकारी मिली कि भारतीयों को सेना में अफ़सर पदों पर नियुक्ति मिल रही है और इनकी ट्रेनिंग भी भारत में ही करवाई जा रही है ।

इंदौर में एक कैडेट कॉलेज की स्थापना के बारे में पता चलते ही, करिअप्पा ने अन्य 70 आवेदकों के साथ अप्लाई कर दिया। इस ट्रेनिंग में चुने जाने वाले 42 उम्मीदवारों में से एक करिअप्पा भी थे। अत्यंत मेहनती और अपने काम के प्रति समर्पित करिअप्पा, जल्द ही अपने बैच के सबसे श्रेष्ठ कैडेट बन गए। युद्ध तकनीक, सैन्य रणनीति, नेतृत्व तकनीक और प्रशासनिक कौशल जैसे विषयों में भी वे हमेशा अव्वल रहे।

उनके सीनियर अफ़सरों ने उनसे प्रभावित होकर, उन्हें सैंडहर्स्ट के प्रतिष्ठित रॉयल मिलिट्री कॉलेज में आगे के प्रशिक्षण के लिए भेजा और फिर साल 1919 में करिअप्पा सेना के दूसरे लेफ्टिनेंट बनें। उन्हें पहले कर्नाटक इन्फैंट्री की दूसरी बटालियन में और फिर नेपियर राइफल्स और राजपूत लाइट इन्फैंट्री में तैनात किया गया।

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नेहरु जी से मिलते हुए करिअप्पा

साल 1933 में, कारिअप्पा ने क्वेटा स्टाफ कॉलेज (अब पाकिस्तान में) की प्रवेश परीक्षा पास की। इस कोर्स को करने वाले वे पहले सैन्य अधिकारी थे। साल 1942 में उन्हें एक सैन्य दल का नेतृत्व करने का मौका मिला। करिअप्पा पहले ऐसे भारतीय अफ़सर थे, जिनकी कमांड पर ब्रिटिश अधिकारी भी काम कर रहे थे।

चार साल बाद, साल 1946 में, करिअप्पा को फ्रंटियर ब्रिगेड ग्रुप के ब्रिगेडियर के रूप में पदोन्नत्ति मिली। उन वर्षों के दौरान, कर्नल अयूब खान ने भी उनके नेतृत्व में काम किया। यही अयूब खान साल 1962 में पकिस्तान के राष्ट्रपति बने।

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ब्रिटिश भारतीय सेना के समय में, भारतीय राष्ट्रीय सेना (आईएनए) के कैदियों के प्रति नम्र रुख के लिए भी करिअप्पा को बहुत सराहा गया। एक बार वे इन कैदियों के कैंप में दौरे पर गए और यहाँ रहन-सहन की स्थिति देख कर, उन्हें बहुत दुःख हुआ। उन्होंने तुरंत ही ब्रिटिश एडजुटेंट जनरल को पत्र लिखा और बिना कोई समय गंवाएं, कैदियों की स्थिति को सुधरवाने के सुझाव दिए।

उनके इस पत्र में निर्दोष कैदियों को रिहा करने का सुझाव भी था। उन्होंने साफ़ शब्दों में लिखा कि इनमे से कई ऐसे कैदी हैं, जो भारत की आम जनता के बीच काफ़ी मशहूर हैं और ये सभी लोग, भारत की आज़ादी के बाद इस देश का नेतृत्व करने में भी सक्षम हैं। इनके पत्र से प्रभावित होकर, ब्रिटिश सरकार ने कई भारतीय कैदियों को (जिनमे कर्नल प्रेम कुमार सहगल, गुरबक्श सिंह ढिल्लों और शाह नवाज़ खान भी शामिल थे) रिहा कर दिया।

बाएं से दायें: कर्नल प्रेम सहगल, मेजर जनरल शाह नवाज खान और कर्नल गुरबख्श सिंह ढिल्लों – सुभाष चन्द्र बोस की भारतीय राष्ट्रीय सेना के अधिकारी

एक लंबे संघर्ष के बाद, साल 1947 में भारत को आज़ादी मिली और तब तक, करिअप्पा ने इराक, सीरिया, ईरान, और बर्मा के युद्धों में नेतृत्व किया। इसके लिए उन्हें अपने करियर में कई बार पुरस्कार और सम्मानों से नवाज़ा गया। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, बर्मा में उनकी सेवाओं के लिए उन्हें प्रतिष्ठित ‘आर्डर ऑफ़ ब्रिटिश एम्पायर (OBE)’ भी दिया गया।

जिस साल, भारत एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में अपने कदम बढ़ा रहा था, उसी साल करिअप्पा कैम्ब्रेली के इम्पीरियल डिफेंस कॉलेज के ट्रेनिंग कोर्स के लिए चुने जाने वाले पहले भारतीय थे। वहाँ से ट्रेनिंग पूरी करके लौटने पर, उन्हें पश्चिमी कमांड का कमांडर- इन- चीफ नियुक्त किया गया।

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उस समय, पाकिस्तानी गुट, लश्कर (सीमांत आतंकवादी) कश्मीर पर हमला कर रहा था और करिअप्पा इस इलाके में भारतीय सेना की कार्यवाही के प्रभारी थे। उनके नेतृत्व में, सेना ने जम्मू- नौशेरा धुरी से आतंकवादियों का सफाया किया।ज़ोजी ला, झंगर, पूँछ, द्रास और कारगिल को वापिस अपने अधिकार में लिया (ऑपरेशन किप्पेर, इजी और बिसोन द्वारा) और लेह के साथ एक महत्वपूर्ण रणनीतिक संपर्क स्थापित किया गया।

रणनीति पर काम करते हुए करिअप्पा

हालांकि, लश्कर को कुछ संवेदनशील इलाकों से खदेड़ने की करिअप्पा की योजना को उनके सीनियर, सर रॉय बुचर (तत्कालीन भारत के कमांडर इन चीफ) से स्वीकृति नहीं मिली। करिअप्पा ने इसका विरोध किया और कहा कि यह नीति कश्मीर घाटी की सुरक्षा को ताक पर रख सकती है। पर फिर भी जब उन्हें स्वीकृति नहीं मिली, तो उन्होंने ऊपर से मिले आदेश का उल्लंघन करके, लेह-लद्दाख में जोखिम भरा आक्रमण जारी रखा, जिस से भारत को इस इलाके में सुरक्षित अधिकार हासिल करने में सफलता प्राप्त हुई ।

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करिअप्पा को उस समय भी बहुत दुःख हुआ, जब 1 जनवरी, 1949 को भारत सरकार ने संयुक्त राष्ट्र की मध्यस्था से युद्ध विराम के लिए समझौता कर लिया। उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु को इसके विरोध में एक पत्र तो लिखा, पर इस्तीफा देने से खुद को रोक लिया। उन्होंने सेना को छोड़ने की बजाय, उसे एक शाही/साम्राज्यवादी पहचान से निकालकर राष्ट्रवादी बनाने का फ़ैसला किया।


रॉय बुचर (रिटायर हुए कमांडर-इन-चीफ) और लेडी बुचर, गवर्नमेंट हाउस, नई दिल्ली में, सी राजगोपालाचारी और नए कमांडर-इन-चीफ केएम करियप्पा के साथ।

15 जनवरी, 1949 को करिअप्पा ने भारतीय सेना की कमान संभाली और वे पहले भारतीय कमांडर-इन-चीफ बनें। इसके बाद उन्होंने खुद को पूरी तरह से सेना के लिए समर्पित कर दिया। ब्रिगेड ऑफ़ गार्ड्स, पैराशूट रेजिमेंट और क्षेत्रीय सेना के गठन में इनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है।

हालांकि, एन. सी. सी का गठन साल 1948 में हो चूका था, लेकिन ये करिअप्पा ही थे; जिन्होंने शुरूआती वर्षों में इसे मजबूत बनाने में अहम भूमिका निभाई। सेना के ये सभी शाखाएं, आगे चल कर युद्धों में भारत के लिए बहुत उपयोगी साबित हुईं।

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करिअप्पा कभी भी सेना में पूर्व आईएनए सैनिकों को शामिल करने के पक्ष में नहीं थे, ताकि सेना स्वशासन बनाए रखे और साथ ही, राजनीतिक मामलों से दूर रहे। पर उन्होंने सैनिकों के बीच औपचारिक अभिवादन के लिए आईएनए के नारे ‘जय हिंद’ को अपनाया। उन्होंने सेना में जाति-आधारित आरक्षण के प्रस्ताव को भी खारिज कर दिया था (जो कि अन्य सरकारी सेवाओं में लागु हुआ)।

फोटो साभार

कभी भी हार न मानने वाले इस व्यक्ति की पढने और खेलने में भी काफ़ी रूचि थी। उन्होंने हमेशा आगे बढ़ कर खुद को लोगो के समक्ष एक उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया। आपस में बातचीत करने को महत्वपूर्ण मानने वाले करिअप्पा, हमेशा इस बात का ध्यान रखते थे कि वे अपनी पलटन के साथ कुछ समय बिताएं और उनसे उनके खान-पान, उनके आराम के बारे में पूछें। साथ ही, वे ये भी जानकारी लेते थे कि सैनिकों के घर से उनके लिए ख़त आये या नहीं।

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जिन भी सैनिको ने उनके साथ काम किया है, वे आज भी याद करते हैं कि करिअप्पा उन्हें प्रोत्साहित करते हुए अक्सर कहते थे, “मैं कभी भी आप लोगों को कुछ ऐसा करने के लिए नहीं कहूँगा, जो मैं स्वयं नहीं कर सकता हूँ।”

उनके बारे में ऐसी दो घटनाएँ हैं, जिनसे पता चलता है कि आख़िर क्यों करिअप्पा का नाम आज भी सैनिकों के बीच सम्मान से लिया जाता है,

साल 1947 में, कश्मीर में एक युद्ध चल रहा था और इसके चलते, यहाँ के कुछ गांवों में गंभीर भूखमरी की स्थिति पैदा हो गयी थी। एक बार करिअप्पा उरी में कुछ आक्रमणकारियों का पीछा कर रहे थे। रास्ते में, उन्हें बारामुल्ला के एक जनसमूह ने रोक लिया और अपने हालातों के बारे में उन्हें बताने लगे। इन आम लोगों को मदद का आश्वासन देकर, करिअप्पा उस समय आगे बढ़ गये।

पर अगले दिन, उन्होंने अपने वादे को पूरा किया। वे उस गाँव में आटा, चावल और दाल आदि ले कर पहुँचे और ज़रूरतमंद परिवारों में बाँट दिया। उन्होंने यह भी सुनिश्चित किया कि बाकी सभी गांवों में भी राशन पहुँचाया जाए, जहाँ भी लोग भूखमरी से पीड़ित थे। उनकी इस नेकदिल पहल ने 19वीं इन्फैंट्री डिवीजन का नेतृत्व करने वाले भारतीय सैन्य अधिकारी, के. एस थिमय्या को भी ऐसा करने के लिए प्रेरित किया। बाद में, बारामुल्ला के आभारी नागरिकों ने करिअप्पा के नाम पर एक पार्क का नाम रखा (यह पार्क आज भी मौजूद है)।

जनरल के.एम. करियप्पा, कमांडर- इन- चीफ, भारतीय सेना ने 20 अगस्त, 1950 को नई दिल्ली में राष्ट्रीय सांस्कृतिक संगठन का उद्घाटन किया।

एक अन्य उदहारण

फील्ड मार्शल अयूब खान (जो बाद में पाकिस्तान के राष्ट्रपति बनें) ने ब्रिटिश इंडियन आर्मी में करिअप्पा के अधीन काम किया था। साल 1965 में भारत- पाक युद्ध के दौरान करिअप्पा के बेटे, फ्लाइट लेफ्टिनेंट के. सी “नंदा” करिअप्पा (जो आगे चल कर एयर मार्शल बने) को पकिस्तान द्वारा कैदी बना लिया गया था।

अयूब खान ने करिअप्पा से संपर्क किया और उनके बेटे को छोड़ने की पेशकश की। यह सुनने पर इस रिटायर्ड आर्मी जनरल ने जवाब दिया, “वह अब मेरा बेटा नहीं है.. वह इस देश का बेटा है, एक सैनिक; जो एक सच्चे देशभक्त की तरह अपनी मातृभूमि के लिए लड़ रहा है। आपकी इस नेकदिली के लिए धन्यवाद, पर मेरी आपसे विनती है कि या तो सभी कैदियों को रिहा करें, या फिर किसी को भी नहीं। उसके साथ किसी भी प्रकार का ख़ास बर्ताव करने की आवश्यकता नही है।”

अपने बेटे के साथ करिअप्पा

साल 1953 में एक लम्बे और शानदार करियर के बाद करिअप्पा रिटायर हुए। साल 1986 में उन्हें भारतीय सेना में फील्ड मार्शल के सर्वोच्च सम्मान, पांच सितारा रैंक से सम्मानित किया गया (इस सम्मान को पाने वाले दूसरे एकमात्र अधिकारी सैम मानेक शॉ हैं)। अमेरिकी राष्ट्रपति, हैरी ट्रूमैन ने भी उन्हें ‘ऑर्डर ऑफ द चीफ कमांडर ऑफ द लीजन ऑफ मेरिट’ से सम्मानित किया।

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हालांकि, सेना से अपनी सेवानिवृत्ति के बाद भी उन्होंने कभी आराम नहीं किया, बल्कि ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड में उच्चायुक्त के रूप में साल 1956 तक सेवा प्रदान करते रहे। इस कार्यकाल में, उन्हें ऑस्ट्रेलिया की सरकार द्वारा उनके सेवानिवृत्त अधिकारियों की मदद करने के तरीके ने अत्यंत प्रभावित किया। उन्होंने भारतीय सरकार का ध्यान इस ओर खींचा और उनके सुझावों को जल्द ही सरकार द्वारा अपना लिया गया।

1953 में भारतीय वित्त मंत्री श्री सीडी देशमुख के साथ केएम करिअप्पा

ढलती उम्र के बावजूद, करिअप्पा भारत-पाक युद्ध (1965- 1971) के दौरान सैनिकों का हौंसला बढ़ाने के लिए समय-समय पर दौरे करते थे। रक्षा क्षेत्र में औद्योगीकरण का उन्होंने पूरा समर्थन किया, क्योंकि उनका मानना था कि यह हमारे देश की सेना के पक्ष में होगा और इससे हमें अधिक बल मिलेगा।

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साल 1991 में करिअप्पा का स्वास्थ्य अक्सर बिगड़ने लगा और दो साल बाद, 94 वर्ष की आयु में बंगलुरु में उन्होंने अपनी अंतिम सांस ली। मदिकेरी में इनका अंतिम संस्कार हुआ और इस मौके पर, भारत के तीनों सेना-प्रमुख और साथ ही, फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ भी उपस्थित थे।

मूल लेख: संचारी पाल
संपादन: निशा डागर 


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