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143 बच्चे, एक आश्रम और ढेरों सपने, जिन्हें नेत्रहीन होने के बावजूद पूरा कर रहे हैं अशोक चौधरी

Ashok Chaudhary

सूरत के मांडवी जिले के एक छोटे से गांव दढ़वाडा से लेकर अहमदाबाद स्थित गुजरात विद्यापीठ में पढ़ने तक का सफर अशोक चौधरी के लिए काफी मुश्किलों से भरा था। मात्र एक आँख से देख पाने और पैसों की तंगी के कारण वह चाहकर भी ज्यादा पढ़ाई नहीं कर पाए, लेकिन आज वह कई जरूरतमंद बच्चों के जीवन की मुश्किलें कम कर रहे हैं!

सूरत (गुजरात) के मांडवी तालुका के एक छोटे से गांव करूथा के सरकारी स्कूल में पढ़नेवाले ज्यादातर बच्चे गांव के ही एक आश्रम से हैं, जो कभी किसी मजबूरी के कारण पढ़ाई से दूर हो गए थे। लेकिन आज आश्रम में रहकर वह सिर्फ किताबी शिक्षा ही नहीं, बल्कि जीवन में आत्मनिर्भर होने के लिए खेती, पशुपालन, कंप्यूटर  और सिलाई जैसे कई गुण सीख रहे हैं।  

इस आवासीय आश्रम को 35 वर्षीय युवक अशोक चौधरी चलाते हैं, जो खुद भी एक बेहद ही छोटे से गांव और गरीब परिवार से ताल्लुक रखते हैं।  

एक समय पर अशोक भाई के जीवन में भी शिक्षा से जुड़ी ऐसी ही ढेरों समस्याएं थीं। लेकिन उन्होंने अपने हौसलों और हिम्मत के दम पर खुद को इस काबिल बनाया और आज वह कई दूसरे बच्चों के जीवन को बेहतर बनाने की कोशिश कर रहे हैं।  

आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि अशोक चौधरी खुद भी एक दिव्यांग हैं और एक आँख से देख नहीं सकते।  

द बेटर इंडिया से बात करते हुए वह बताते हैं, “आँखों की समस्या तो बचपन से ही थी, इसलिए मुझे इसके साथ रहने की आदत हो गई है। मैं पढ़ने के लिए काफी उत्साहित था, इसलिए अपने आप रास्ते बनते गए। लेकिन आर्थिक तंगी के कारण मुझे कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा।”

गांव के स्कूल से गुजरात विद्यापीठ तक 

अशोक चौधरी एक बेहद ही गरीब परिवार से ताल्लुक रखते हैं, उन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा अपने गांव से ही ली। लेकिन बाद में हाई स्कूल की पढ़ाई और कॉलेज के लिए उन्हें मांडवी तक आना पड़ता था और उससे आगे पढ़ने की ललक के कारण वह अहमदाबाद आ गए।  

ashok chaudhary's hostel for tribal kids
अशोक चौधरी

उन्होंने यहां खुद पैसे जोड़कर अपनी पढ़ाई का खर्च उठाया। अशोक चौधरी कहते हैं, “मैं पढ़ाई के साथ मजदूरी करता था। दो साल कि पढ़ाई पूरी करने में मुझे तीन साल लग गए।  क्योंकि मैं एक साल पढ़ाई करता, फिर वापस मांडवी आकर केनाल बनाने के काम में मजदूरी का काम करता।”

लेकिन जब वह विद्यापीठ में थे, तब वह गाँधीवादी विचारों से भी प्रेरित हुए। उन्होंने अपनी मेहनत और जज्बे के बदौलत बीएड की पढ़ाई साल 2010 में पूरी की। 

यहां तक पहुंचने और अपने आप को शिक्षित करने में उन्हें जिन दिक्क्तों का सामना करना पड़ा, उसी से उन्हें अपने जैसे पिछड़े गाँवों  में रह रहे बच्चों के जीवन को बेहतर बनाने का ख्याल आया।  

नाराज़ माता-पिता ने 3 साल तक नहीं की बात

अशोक चौधरी जिस गांव से आते हैं, उसके आस-पास के कई गाँवों में आदिवासी परिवार ज्यादा रहते हैं। यहाँ लोगों के पास आय का कोई स्थायी ज़रिया भी नहीं होता। साल 2010 में तो कई गाँवों में स्कूल भी नहीं थे। 

उस समय अशोक ने सबसे ज्यादा पिछड़े गांव का चुनाव किया। 

अशोक कहते हैं, “मैंने अपने घर और अपने करियर के बारे में सोचने के बजाय, अपना जीवन जरूरतमंद बच्चों की शिक्षा को बेहतर बनाने के लिए बिताने का मन बना लिया और घर से निकल गया। मेरे माता-पिता मेरे फैसले से खुश नहीं थे, जिसके बाद तीन सालों तक उन्होंने मुझसे बात भी नहीं की।”

अशोक चौधरी ने गांव के एक चबूतरे पर बच्चों को पढ़ाने का काम शुरू किया। समय के साथ उन्हें गांव के कम्युनिटी सेंटर में जगह मिली और उन्होंने बच्चों को पास के स्कूल में भेजना शुरू किया। लेकिन कई बच्चों की पढ़ाई इसलिए छूट जाती, क्योंकि उनके माता-पिता प्रवासी मजदुर थे। इसलिए उन्होंने एक हॉस्टल बनाकर बच्चों को अपने पास रखने का सोचा। 

शून्य से सृजन तक की कहानी 

जैसे-जैसे बच्चों की संख्या बढ़ने लगी, वैसे-वैसे अशोक चौधरी को गांव और सूरत के कुछ सेवा भावी लोगों की आर्थिक मदद भी मिलने लगी। इसके साथ अशोक खुद अलग-अगल शहरों में जाकर फण्ड इकट्ठा करते थे। पहले उन्होंने मात्र 17 बच्चों के साथ एक छोटे से घर में आश्रम की शुरुआत की थी, जहां ज्यादा सुविधाएं नहीं थीं, लेकिन बच्चों के लिए दो समय के भोजन का तो अशोक जुगाड़ कर ही लेते थे।  

Ashok with his kids
Ashok with his kids

ये सारे बच्चे नियमित स्कूल जाते और कई तरह की एक्टिविटीज़ में भी माहिर थे। उन्हें समय के साथ  सूरत के कई बड़े संस्थानों से नियमित रूप से फण्ड मिलने लगा। अशोक चौधरी इन बच्चों को खुद ही वोकेशनल ट्रेनिंग देते और एक अच्छे अभिभावक बनकर इन्हे पढ़ाते भी हैं । 

अशोक कहते हैं, “अब तो गांव में ही आठवीं तक का स्कूल खुल गया है और वहां मेरे सारे बच्चे पढ़ने जाते हैं।”

उन्होंने साल 2017 में लोगों से मिले डोनेशन से ही एक छोटा मगर पक्का मकान तैयार करवाया। आज यहां बच्चों की संख्या बढ़कर 143 हो गई है। 

फ़िलहाल, यहां छह साल से लेकर 17 साल तक के बच्चे रहते हैं, जिसमें 84 लड़के और 58 लड़कियां हैं।  हर महीने इन बच्चों के भोजन आदि का खर्च 40 से 45 हजार रुपये होता है, जिसके लिए वह पूरी तरह से दाताओं पर ही निर्भर रहते हैं।

आश्रम में रहनेवाली एक बच्ची सरीना कहती हैं कि उनके माता-पिता मजदुर हैं और उनके लिए अपने बच्चों को पढ़ाना काफी मुश्किल था। इसलिए सरीना को अशोक चौधरी के हॉस्टल में भेजा गया। आज वह यहां रहकर पढ़ाई के साथ, कंप्यूटर और सिलाई जैसे काम भी सीख रही हैं।

अशोक चौधरी अपने इन प्रयासों के लिए मांडवी तालुका में ग्राम शिल्पी के तौर पर मशहूर हो गए हैं। वह सर्वांगी विकास ट्रस्ट के माध्यम से फण्ड इकट्ठा करते हैं।  

अगर आप भी अशोक और उनके इन 143 बच्चों की किसी तरह की कोई मदद करना चाहते हैं, तो उन्हें 96874 92101 पर सम्पर्क कर सकते हैं।  

संपादन-अर्चना दुबे

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