आज से करीब 40 साल पहले, संबलपुर (ओडिशा) की संतोषिनी मिश्रा अपने परिवार का खर्च और ज़िम्मेदारियां संभालने के लिए दूसरों के घर में खाना बनाया करती थीं। उस समय घर की चार दीवारी से निकलकर काम करना एक बड़ी बात थी। लेकिन घर की आर्थिक स्थिति से परेशान होकर, उन्हें मज़बूरी में काम करने के लिए बाहर निकलना पड़ा।
वह कहती हैं, “मैं खाना अच्छा बनाती थी, इसलिए मैंने इस काम को चुना और बस मेहनत करती रही।” उन्होंने शुरुआत भले ही दूसरों के घर में खाना बनाने से की थी, लेकिन आज 74 साल की उम्र में, जब हर कोई रिटायर होकर आराम करना चाहता है, तब संतोषिनी संबलपुर में केटरिंग बिज़नेस चलाने वाली सबसे बिजी महिला हैं।
इस काम के जरिए उन्होंने करीब 100 लोगों को रोजगार भी दिया है। शादी हो, जन्मदिन हो या फिर कोई और समारोह, शहर के कई लोगों की पहली पसंद ‘संतोषीनी मामा’ की रसोई ही है।
इस काम से उनका विशेष लगाव है, क्योंकि इसी काम ने उन्हें बुरे वक़्त में आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनने में मदद की थी। उनके बेटे संजीव कहते हैं, “मेरी माँ एक बहुत अच्छी कुक हैं और उनकी खाना बनाने की इस कला ने ही हमें एक बेहतर जीवन दिया है। यह उनका जूनून ही है कि आज 74 की उम्र में भी वह उसी जोश के साथ काम करती हैं।”
संबलपुरी भाषा में लोग उन्हें प्यार से ‘मामा’ यानी दादी कहकर बुलाते हैं। संतोषिनी की टीम में 100 लोग शामिल हैं, जिनमें ज्यादातर महिलाएं हैं। शादी के सीजन के दौरान, वह एक दिन में कम से कम चार दावतों के ऑर्डर्स लेती हैं। उसके दोनों बेटे भी इस काम में उनकी मदद करते हैं, लेकिन व्यवस्थाओं की देख-रेख वह आज भी खुद ही करती हैं।
सालों से परिवार की जिम्मेदारी उठा रहीं मामा
संतोषिनी के पति एक पान की दूकान चलाते थे, लेकिन एक गंभीर बिमारी के कारण, उनका काम बंद हो गया। तब मज़बूरी में संतोषिनी को परिवार के लिए काम शुरू करना पढ़ा था। तब से अब तक पूरे परिवार की जिम्मेदारी, बच्चों की पढ़ाई और पति के इलाज का खर्च वह अकेली ही उठा रही हैं। नौ साल पहले 2012 में पति की मृत्यु के बाद भी, उन्होंने हौसला खोए बिना काम जारी रखा।
वह कहती हैं, “सालों पहले जब लोगों के घरों में खाना बनाने का काम छोड़कर, केटरिंग का काम शुरू किया था तब शहर में ज्यादातर केटरिंग बिज़नेस पुरुष ही चलाते थे। मुझे परिवार और समाज से कई तरह के विरोध का सामना भी करना पड़ा था। एक समय में मुझे अपने बेटे के लिए लड़की ढूंढने में भी दिक्क्त हो रही थी, क्योंकि कोई भी अपनी बेटियों को ऐसे परिवार में देने को तैयार नहीं था, जहां घर की महिला केटरर का काम करती हो। बावजूद इसके मैंने इस काम को कभी नहीं छोड़ा।”
आज उनके बेटे उन्हें काम छोड़कर आराम करने को कहते हैं, लेकिन संतोषिनी जब तक जान है तब तक इस काम से जुड़ी रहना चाहती हैं। इस उम्र में भी वह एक दिन ओडिशा के मुख्यमंत्री के लिए खाना बनाने का सपना देखती हैं।
संतोषिनी आज इस बात की बेहतरीन उदाहरण है कि बुढ़ापा जिंदगी का एक खूबसूरत पड़ाव है, जिसका हमें आनंद लेना चाहिए, इसे अपनी कमज़ोरी नहीं समझनी चाहिए।
संपादन -अर्चना दुबे
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