महाराष्ट्र में, गौरैया संरक्षण के लिए काम कर रहे एक्टिविस्ट, मोहम्मद दिलावर ने मुंबई, नासिक जैसे शहरों में 25 ‘अर्बन फॉरेस्ट’ (Urban Forest) लगाए हैं। साल 2007 के आस-पास उन्हें अहसास हुआ कि, उनके अपने शहर नासिक में, देसी पेड़-पौधे ढूँढ़ना बहुत ही मुश्किल सा हो गया है। उनके शहर की अधिकांश नर्सरी, विदेशी प्रजातियों के पेड़-पौधे को बड़ी संख्या में बेच रही हैं, लेकिन भारतीय मूल के पौधें उनके पास नहीं हैं।
यदि आप भी अपने आसपास के नर्सरी में जाएंगे तो, आपको केवल ‘हाईब्रिड नस्ल’ के पेड़-पौधे ही दिखेंगे। सालों तक, गौरैया को बचाने के अपने प्रयासों से, दिलावर ने सीखा कि, गौरैया और पेड़-पौधों का लुप्त होना, एक-दूसरे पर निर्भर है। यही वजह है कि, उन्होंने एक ऐसी नर्सरी की शुरुआत की, जहाँ केवल देसी नस्ल के पेड़-पौधे ही आपको मिलेंगे।
दिलावर की नर्सरी में आपको देसी पौधों की 400 प्रजातियां मिल जाएँगी।, उनके और उनके संगठन के लगातार प्रयासों से, यह संभव हो पाया। दिलावर ने द बेटर इंडिया को बताया, “हमने महाराष्ट्र के अलग-अलग इलाकों में, देसी पौधों की प्रजातियों को सहेजने के लिए कार्यक्रम की शुरुआत की। हमने 25 ‘सिटी फारेस्ट’ तैयार किए हैं। जहाँ देसी प्रजातियों के पेड़-पौधों की संख्या अधिक है। साथ ही, ये जंगल जैव-विविधता को भी बढ़ा रहे हैं।”
दिलावर कहते हैं कि, इन सभी पेड़-पौधों की खूबसूरती यह है कि, ये सभी देसी प्रजातियां, विदेशी प्रजातियों का विकल्प हैं। उदहारण के लिए, उन्होंने ‘हमेलिया (Hamelia)‘ की जगह ‘वुडफोर्डिया फ्रूटिकोसा’ (Woodfordia Fruticosa) लगाया है, जिसे आमतौर पर धातकी कहा जाता है। वहीं, ‘कैस्केबेला थेवेटिया’ (Cascabela Thevetia) की जगह ‘नेरियम ओलियंडर (Nerium Oleander)’ लगाया है, जिसे आमतौर पर कनेर कहा जाता है।
देसी नस्ल के पेड़-पौधों के बारे में उनके संगठन के चीफ बोटैनिकल ऑफिसर, वरुण शर्मा कहते हैं, “भारत में देसी पौधों की 35000 से भी ज़्यादा प्रजातियां हैं। सामान्य गौरैया, मक्खियां और पक्षियों की अन्य कई प्रजातियों की संख्या इसलिए घट रही है, क्योंकि उनका प्राथमिक आवास ही उन्हें नहीं मिल रहा है। देसी पेड़-पौधे, एक विशेष स्थान पर, वहाँ की स्थानीय जलवायु, परिस्थितियों, मिट्टी, आदि के अनुसार हज़ारों सालों में विकसित होते हैं। वे प्रकृति के संतुलन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होते हैं। वे पत्ते, तने का रस, अमृत, पराग, फल और बीज प्रदान करते हैं, जो तितलियों, कीड़ों, पक्षियों और अन्य जानवरों के लिए भोजन और आश्रय के रूप में काम करते हैं। जागरूकता और वैज्ञानिक ज्ञान की कमी के कारण, लोग अपने आसपास की वनस्पतियों को कम आंकते हैं। इसे ‘प्लांट ब्लाइंडनेस’ कहा जाता है। यह न केवल पर्यावरण के लिए, बल्कि स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक हो सकता है।”
दिलावर और उनकी टीम के प्रयासों के बारे में बात करने से पहले, आइए हम जान लेते हैं कि, आखिर क्यों इन देसी पेड़-पौधों की प्रजातियों को बचाना आवश्यक है, इससे पहले कि ये पूरी तरह से लुप्त हो जाएं।
क्यों कम हो रही है जैव विविधता?
जैव-विविधता के संतुलन को बनाए रखने में, देसी प्रजातियों के पेड़-पौधों की महत्वपूर्ण भूमिका है। ये क्षेत्र के अनुकूल होते हैं, और इस वजह से इन्हें देख-रेख की कम ज़रूरत होती है और ये अच्छे से विकसित हो पाते हैं। वे पारिस्थितिकी तंत्र (इकोलॉजिकल सिस्टम) के लिए जीन भंडार (जीन पूल) के रूप में कार्य करते हैं, और पक्षियों को खाद्य सुरक्षा प्रदान करते हैं।
2017 में प्रकाशित, ‘डाउन टू अर्थ’ की एक रिपोर्ट के अनुसार, इंटरनेशनल यूनियन ऑफ कंजर्वेशन ऑफ नेचर की रेड लिस्ट के तहत सूचीबद्ध 387 भारतीय पौधों में से 77 ‘गंभीर रूप से ‘लुप्तप्राय’ (क्रिटिकली एनडेंजर्ड)’ हैं, और छह ‘विलुप्त’ (एक्सटिंक्ट) हैं। इसी रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि, पश्चिमी घाट में 100 से अधिक पेड़ों की प्रजातियां गंभीर रूप से खतरे में है। यह चौंकाने वाले आंकड़े भारत के हर क्षेत्र की वास्तविकता को दर्शाते हैं, चाहे वह मुंबई हो, जिसमें 75 प्रतिशत गैर-देशी (नॉन-नेटिव) पेड़ हैं, या उत्तराखंड, जहाँ पेड़ों की 8 प्रजातियाँ गंभीर रूप से संकटग्रस्त हैं।
इन परिस्थितियों के लिए कई कारणों को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, जिसमे वनों की अनियंत्रित कटाई, अवैध तरीकों से प्रकृति का हनन, कीटनाशकों का अत्यधिक प्रयोग, आग और जलवायु परिवर्तन प्रमुख हैं।
दिलावर कहते हैं, ” अंग्रजों के आने से यहाँ विदेशी प्रजातियां आईं, और अब इसके लिए बिल्डर्स जिम्मेदार हैं। बड़े-बड़े कॉम्प्लेक्स के अंदर लॉन या फिर ‘बोटैनिकल गार्डन’ बनाने के लिए वह विदेशी प्रजातियां के पौधे लगाते हैं, ताकि सौंदर्य बढ़ सके। लैंडस्केप आर्किटेक्ट, दुनियाभर से जैव-विविधता लाते हैं, लेकिन इसकी कीमत हमारे यहाँ की देसी प्रजातियों को चुकानी पड़ती है। जो किसान, आज नर्सरी चला रहे हैं, वह भी इसके लिए ज़िम्मेदार हैं। हमने एक व्यवस्थित ढंग से अपनी जैव विविधता को खत्म करके, बड़े पैमाने पर बढ़ने वाले पेड़ों को प्रश्रय दिया है।”
देसी प्रजातियों को फिर से सहेजा:
विशेषज्ञों, डेस्क रिसर्चर और स्वयंसेवकों की एक टीम बनाने के बाद, दिलावर ने रिसर्च पर लगभग सात से आठ साल काम किया। उनकी टीम ने प्रजातियों, मिट्टी की संरचना, आवास, भौगोलिक परिस्थितियों, विशेषताओं और प्रजातियों की प्रकृति का अध्ययन करने के लिए, भारत के कई हिस्सों की यात्रा की। उन्होंने बीजों और पौधों के सैंपल इकट्ठा किए।
यह प्रक्रिया लगातार जारी है, और टीम ने जड़ी-बूटियों, झाड़ियों, शैवाल, काई (लाइकेन), बेल, घास, फर्न, ऑर्किड, जंगली फूलों, आदि की विभिन्न प्रजातियों को इकट्ठा किया है। कुछ दुर्लभ प्रजातियों में, कैनरियम स्ट्रिक्टम (Canarium strictum), वैटेरिया इंडिका (Vateria indica), एरिनोकार्पस निम्मोनी (Erinocarpus nimmonii), अरेंगा वाइटी (Arenga wightii), कोरिफा उम्ब्राकुलीफेरा (Corypha umbraculifera), पिनंगा डिकसनी (Pinanga dicksonii), अल्बिजिया अमारा (Albizia amara)और अल्बेरिया ओडोरटीससीमा (Albizia odoratissima) शामिल हैं।
इस कठिन प्रक्रिया के साथ, उन्होंने और भी कई चुनौतियों का सामना किया। दिलावर बताते हैं, “हमने पौधों की एक चेकलिस्ट बना ली थी, लेकिन स्थानीय नर्सरी से इन्हें हासिल करना मुश्किल काम था। कई नर्सरी मालिक, देसी प्रजाति और विदेशी प्रजाति में फर्क ही नहीं कर पाते थे। इससे हमारी गतिविधि धीमी हो जाती थी।”
एक बार पर्याप्त मात्रा में, बीज और पौधे इकट्ठा करने के बाद, साल 2015 में, दिलावर और उनकी टीम ने, पुणे में विप्रो कंपनी के 35 एकड़ परिसर में अपनी पहली अर्बन फॉरेस्ट (Urban Forest)परियोजना की शुरुआत की। जब उन्होंने पौधारोपण अभियान शुरू किया, तब वहाँ सिर्फ 24 देसी प्रजातियां थीं, लेकिन इसके कुछ ही महीनों बाद, यह संख्या 240 देसी पेड़-पौधों तक पहुँच गयी।
दिलावर कहते हैं, ” हमने पक्षियों को देसी पौधों के बीज को फैलाते हुए देखा। जैव-विविधता के फैलने के प्रभाव से, हमने पक्षियों और तितलियों की संख्या में बढ़ोतरी देखी। यह बहुत ही अच्छा अनुभव था।”
विप्रो के सकारात्मक नतीजे के बाद, उन्होंने मुंबई, पुणे, पालघर और नासिक में विभिन्न सरकारी विभागों, गैर सरकारी संगठनों और निजी कंपनियों के साथ टाई-अप किया। उन्होंने इन जगहों पर, देसी प्रजातियों के 25 उच्च घनत्व (हाई-डेंसिटी) वाले जंगल लगाए हैं, और हर एक जंगल में कम से कम 40 देसी प्रजातियों के पेड़-पौधे हैं।
ये जंगल स्वस्थ तरह से विकसित हों, इसलिए, दिलावर और उनकी टीम, दो से तीन सालों तक जंगलों की देखभाल करती है। इतने वक़्त में, सभी पौधे अच्छे से विकसित हो जाते हैं, और उन्हें बाहरी देखभाल की बहुत ज़्यादा आवश्यकता नहीं होती है। इसके बाद, इन जंगलों की ज़िम्मेदारी सरकारी विभाग, या प्राइवेट कंपनियों को सौंप दी जाती है। दिलावर कहते हैं कि, उनके सभी जंगलों की जीवन दर 95% से ज़्यादा है।
जंगल लगाने के अलावा, वह अपनी नर्सरी में, देसी प्रजातियों के पौधे भी बेचते हैं। नासिक के बाहर रहने वाले ग्राहकों को ये पौधें, कूरियर द्वारा भेजे जाते हैं। दिलावर कहते हैं, ” देशभर में फैली हुई, कमर्शियल नर्सरी में ज़्यादातर बिकने वाले पौधें विदेशी प्रजाति के होते हैं, जो पारिस्थितिकी में कोई भूमिका नहीं निभाते हैं। हमारी नर्सरी में 400 प्रजातियां हैं, और हमारा उद्देश्य इस संख्या को 5000 तक पहुँचाना है।”
अपने लगातार प्रयासों से, दिलावर और उनकी टीम ने यह सुनिश्चित किया है कि पारिस्थितिकी संतुलन बना रहे। साथ ही हमारी देसी प्रजातियां, जो लंबे समय से उपेक्षित रहीं हैं, उन्हें फिर से हमारे पर्यावरण में उनकी सही जगह मिले।
मोहम्मद दिलावर से संपर्क करने के लिए आप उन्हें, dilawarmohammed@gmail.com पर ईमेल कर सकते हैं!
संपादन – जी एन झा
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