सरकारी स्कूल में पढाने के लिए रोज 8 किमी पहाड़ चढ़ते है यह शिक्षक!

विपरीत परिस्थितियों में पढ़ने का जज्बा तो आपने खूब देखा होगा, लेकिन पढाने का ऐसा जज्बा कम ही देखने को मिलता है। पिछले सात साल और नौ महीनों से एक अध्यापक आठ किलोमीटर, पहाड चढ़कर बच्चों को पढाने जाते हैं। असलियत तो ये है कि उन्हीं के इस कठिन परिश्रम की वजह से यह प्राथमिक विद्यालय आज तक चल रहा है। सरकारी अकूल के इस अध्यापक की जज्बे भरी कहानी से देशभर के सरकारी अध्यापक सीख लें, तो देश के सरकारी स्कूल भी भविष्य की शिक्षित पीढियां पैदा कर सकते हैं।

विपरीत परिस्थितियों में पढ़ने का जज्बा तो आपने खूब देखा होगा, लेकिन पढाने का ऐसा जज्बा कम ही देखने को मिलता है। पिछले सात साल और नौ महीनों से एक अध्यापक आठ किलोमीटर, पहाड चढ़कर बच्चों को पढाने जाते हैं। असलियत तो ये है कि उन्हीं के इस कठिन परिश्रम की वजह से यह प्राथमिक विद्यालय आज तक चल रहा है। सरकारी स्कूल के इस अध्यापक की इस कहानी से देशभर के सरकारी अध्यापक सीख लें, तो देश के सरकारी स्कूल भी भविष्य की शिक्षित पीढियां पैदा कर सकते हैं।

हमारे देश में अक्सर सरकारी प्राथमिक विद्यालयों के बारे में अच्छी खबर कम ही सुनाई देती है। अधिकतर सरकारी अध्यापक स्कूलों में अपनी नौकरी पक्की होने के आश्वासन में तसल्ली से बैठ जाते हैं। इसीलिए सरकारी स्कूलों से हमेशा शिक्षकों के न पढाने की शिकायतें आती हैं। लेकिन हमारे इस नायक की कहानी पढकर आपको अँधेरे में भी एक चिराग नजर आएगा।

कर्नाटक में गडग जिले के बैरापुर गाँव के सुरेश बी. चलगेरी प्राथमिक स्कूल में अध्यापक हैं और पिछले लगभग आठ सालों से गाँव के पहाड़ी पर बने स्कूल को चला रहे हैं। 

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सचमुच सुरेश की मेहनत और पढाने के जज्बे की बदौलत ही आज ये स्कूल चल रहा है। इस स्कूल में एक अध्यापक से लेकर प्रधानाचार्य और चपरासी तक की भूमिकाओं से जूझते हुए सुरेश भविष्य की शिक्षित पीढ़ी तैयार कर रहे हैं।
असल में बैरापुरा गाँव का प्राथमिक स्कूल पहाड़ी की चोटी पर बना है। इस पहाड़ी पर बंजारा जनजाति के लोग रहते हैं और उनके ज्यादातर बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ने जाते हैं। इन बच्चों की खातिर सुरेश को हर दिन आठ किलोमीटर की ऊँचाई तय करनी होती है जिसमें कई बार वे मिड-डे मील के सामान से लेकर बच्चों की कॉपी-किताबें भी अपने साथ उठाकर ले जाते हैं।
50 वर्षीय सुरेश की जब पहली पोस्टिंग यहाँ हुई थी तो उन्हें इस स्कूल का पता भी नहीं मालूम था।
 उन्होंने याद करते हुए Times of India को बताया, ” मुझे कोई अंदाजा नहीं था कि स्कूल कहाँ है? मुझे बस इतना पता था कि कहीं कालकालेश्वर मंदिर के करीब है। यहाँ आने के बाद जब मैंने स्कूल का पता पूछा तब मुझे बताया गया कि स्कूल पहुँचने के लिए मुझे पहाड़ी चढनी होगी।”
जब आप ठान ही लेते हैं तो मुश्किलें भी पिघल जाती हैं। चढ़ने में शुरुआती मुश्किलों के बाद ये सफर सुरेश की ज़िंदगी का हिस्सा बन गया। और दिन-ब-दिन सुरेश पहाड़ी को चढ़ते उतरते रहे।
सुरेश बताते हैं, “इस स्कूल में हर साल 60 बच्चों का दाखिला होता है। बच्चों के दाखिले के बाद ये मेरी जिम्मेदारी हो जाती है कि कोई भी स्कूल न छोड़े। स्कूल में तीन अध्यापक हैं, लेकिन प्रधानाचार्य और अध्यापक से लेकर क्लीनर और प्लंबर तक के काम सब मैं ही करता हूँ ।”
सुरेश को हाल ही में स्कूल पहुँचने के लिए दोपहिया वाहन दिया गया है। जिस पर उनका सफर आसान तो होगा ही साथ ही जज्बे को और रफ़्तार मिलेगी। ऐसे समर्पित लोगों को हम सलाम करते हैं, इन्ही की बदौलत हमें अँधेरे में भी रौशनी का भरोसा होता है। इनका परिश्रम और त्याग हमारे लिए अपने पेशे के प्रति समर्पण की एक अद्भुत सीख है।

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